14 अप्रैल अंबेडकर की जन्मतिथि थी. अगर अंबेडकर आज होते, तो वो 126 साल के होते. हर साल इस तारीख को अंबेडकर की विरासत पर बहस शुरू हो जाती है, लेकिन हर बहस के साथ इस विरासत की गति में और तेजी आ जाती है.
कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक लगभग सभी राजनीतिक दल अंबेडकर और उनकी विरासत पर अपने-अपने दावे के साथ मैदान में आ डटते हैं. रामदास अठावले और मायावती जैसे नेता भी इस रेस में होते हैं, जिनका दावा है कि वो दलितों की राजनीति करते हैं, इसलिए अंबेडकर की विरासत के असली उत्तराधिकारी वही हैं.
अपने-अपने अंबेडकर
सच्चाई तो यही है कि चाहे वामपंथी पार्टी हो, दक्षिणपंथी पार्टी हो या कथित रूप से मध्यमार्गी विचार वाली पार्टी, सभी अपने-अपने तरीके से अंबेडकर के दृष्टिकोण को अपनाने के दावे करते रहे हैं और अपने-अपने तरीके से इसे भुनाने की भी कोशिश की है.
हालांकि ये महत्वपूर्ण बात है कि जिस व्यक्ति ने राजनीति में व्यक्तिपूजा का सबसे ज्यादा विरोध किया था,उसी की मूर्ति राजनीतिक रूप से पूजी जाने लगी है.
अंबेडकर को दलित अधिकारों के लिए लड़ने वाले नेता के रूप में सीमित करने वाली राजनीति उनके कद को छोटा करने की कोशिश करती है. सच्चाई तो यही है कि अंबेडकर एक ऐसे आधुनिक नेता थे, जिन्होंने सामाजिक ढांचे में उदारवादी सोच को व्यावहारिक दलील देने की कोशिश की.
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लेकिन अलग-अलग पार्टियों ने उन्हें अपने-अपने दृष्टिकोण के खांचे में फिट करते हुए अपनी-अपनी तरह की व्याख्या की ताकि ये पार्टियां अपने वोट बैंक की तुष्टि करके अपना सामाजिक आधार मजबूत कर सके.
हमारे राजनेता की राजनीतिक आकांक्षाएं परवान चढ़ सके, उसे ध्यान में रखते हुए अंबेडकर को लेकर जिस तरह की राजनीति की गयी है, उससे अंबेडकर के असली विचार उभरने के बजाय धुंधले हुए हैं.
सवाल उठता है कि स्थापित आदर्श को किसी चीज से जोड़कर की जाने वाली व्याख्या के इस दौर में आखिर वो कौन हैं? जो उस अंबेडकर के व्यावहारिक एवं उदारवादी दृष्टिकोण के काफी नजदीक है, जिन्होंने भारतीय संविधान का निर्माण किया और जिन्होंने जाति व्यवस्था की बेड़ियों से इस आधुनिक भारत को आजाद करने की परिकल्पना की.
अंबेडकर के आदर्शों की गूंज कहां?
यह अजीब विडंबना ही है कि राष्ट्र के स्थापित सिद्धांतों वाले हमारे आदर्शों के व्यवस्थित दुरुपयोग से हताश एक मृत युवा की आवाज में हमें अंबेडकर के सिद्धांतों और आदर्शों की गूंज मिलती है.
यह गूंज सही मायने में हमारे किसी भी राजनेता के मुकाबले पूरी सच्चाई के साथ राजनीतिक और सामाजिक गलियारों में पूरे दम-खम के साथ लहराती है.
मैं रोहित वेमुला की बात कर रहा हूं. वही रोहित वेमुला जो हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र था और उसके मार्मिक सुसाइड नोट ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था. उसकी मौत के एक साल बाद भी कैंपस में समानता और आजादी के लिए लड़ने वाले नौजवानों की लड़ाई में रोहित के सुसाइड नोट में लिखा गया एक-एक शब्द इस्तेमाल होताहै.
वेमुला की बात करते हुए उनकी पहचान में मैंने 'दलित छात्र' की बहस वाली पहचान को जानबूझकर छोड़ दिया. यह सूक्ष्म अंतर ही है कि मैं बहुत सारे राजनेताओं की तुलना में अंबेडकर को लेकर वेमुला की समझ को अधिक मजबूत समझता हूं.
मनुष्य की पहचान का असली संकट क्या?
अंबेडकर खुद को एक राजनीतिक रूप से उदारवादी के रूप में पहचाने जाना पसंद करते थे, वे पूरी तरह से जाति को 'खत्म करने' को लेकर प्रतिबद्ध थे. वेमुला ने भी अपने आखिरी खत में दुनिया को यह कहते हुए विलाप किया था कि 'एक आदमी के मूल्य को उसकी तत्काल पहचान और निकटतम संभावना तक से छोटा कर दिया गया है.'
वेमुला ने अपने पत्र में लिखा था, 'एक व्यक्ति को कभी भी एक दिमाग की तरह नहीं देखा गया. एक गौरवांवित चीज की तरह देखा गया, मानो वह कोई सितारों की धूल से बना हो.'
अंबेडकर की तरह वेमुला ने भी सहजता के साथ जाति व्यवस्था को समझा और स्वीकार किया. फिर भी उसने इस सच्चाई को लेकर अपनी घृणा को स्पष्ट किया कि 'गौरवशाली मनुष्य' अपनी 'तात्कालिक पहचान' के मोहताज हैं.
हालांकि वह तर्क देना नहीं भूलता, 'जो जाति के बारे में नहीं बोलते, वो जाति खत्म नहीं कर सकते हैं. यह सिर्फ बिना नाम का भेद पैदा करता है !!! और हमारी सक्रियता पहचान की राजनीति नहीं है, यह मान्यता के लिए एक संघर्ष है. हमारी यह सक्रियता हमारे अपने विकृत इतिहास के माध्यम से हम पर थोपे गए और विनाशकारी पहचान के खिलाफ है.'
अपने कुछ लेखों के ऑनलाइन संकलन ‘जाति एक अफवाह नहीं है’ के लेखक निखिल हेनरी लिखते हैं, 'उनके शब्द आधुनिक भारत में जाति की कार्यशीलता का आईना है. उनका लेखन हमें बताता है कि डॉ बी आर अंबेडकर के अंतिम शब्द, 'शिक्षित बनो, आंदोलन करो और संगठित हो’ के साथ जीने का क्या मतलब है.'
वेमुला के विचारों से दिक्कत किसे?
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वेमुला को पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और बाद में विश्वविद्यालय का कोपभाजन क्यों होना पड़ा, क्योंकि उनके बहुत सारे विचार आज के कथित राष्ट्रवादी के गले के नीचे नहीं उतरते थे.
फिर भी उनके ज्यादातर तथाकथित विवादास्पद तर्क सिर्फ अंबेडकर की विरासत के लाभार्थियों के साथ लावारिस साझेदारी का एक नमूना है. उदाहरण के लिए, बीफ को लेकर प्रतिबंध की कठोर आलोचना वेमुला की पंक्तियों में बहुत अधिक है, और ब्राह्मणवादी गाय पूजन को व्यर्थ बताने वाले उनके विज्ञानसम्मत आलेख शायद अंबेडकर से प्रेरित हैं, जिसमें सवाल किया गया है कि क्या हिंदू कभी बीफ नहीं खाते थे?
'…यह (बीफ खाना) एक राजनीतिक संकेत भर है. हिंदुत्व कहे जाने वाले हथियार का इस्तेमाल करके ब्राह्मणवाद इस देश में हमेशा से ही दलितों तथा अल्पसंख्यकों की संस्कृति का दमन करता रहा है.'
दिसंबर 2015 को वेमुला के फेसबुक पर पोस्ट की गयी एक टिप्पणी है, 'हाल ही में महाराष्ट्र में बीफ पर लगा बैन सही अर्थों में हाशिए पर ढकेले गए लोगों की पहचान पर एक अहंकारी हमला है.' (‘जाति कोई अफवाह नहीं’ से उद्धृत)
अंबेडकर ने भी इस तर्क से इनकार करते हुए कहा था कि गो पूजा या बीफ नहीं खाना हिंदुत्व का अभिन्न हिस्सा नहीं था. वास्तव में उनका तर्क तो यही था कि बीफ आर्य संस्कृति में भोज समारोहों का एक अभिन्न हिस्सा था और प्राचीन ग्रन्थों में इस बात का जिक्र है कि इंद्र बीफ खाते थे.
राष्ट्रवाद पर अंबेडकर और रोहित वेमुला
लेकिन यह अंबेडकर की विचारधारा का कोई पहलू नहीं है कि राजनेता उनकी विरासत के दावे की दौड़ लगा रहे हैं. सच्चाई तो यही है कि विरासत की ये दौड़ खोखली है.
वेमुला राष्ट्रवाद के किसी भी विचार का बहुत बड़ा आलोचक था और इस विषय पर उसके विचार यह सवाल उठाते हैं कि आखिर बढ़ते हुए असहिष्णु समाज ने उसके राष्ट्रविरोधी विचारों पर प्रतिबंध क्यों लगाया ?
'मैंने पाया कि दो तरह के ‘वाद’, धर्मवाद और राष्ट्रवाद हमेशा बहुत ही मूर्खतापूर्ण हैं और इसकी व्याख्या भी अपने ही तरीके से की जाती है, जो युगों-युगों से हिंसा के लिए सबसे बेहतरीन तरीक़ा साबित होता रहा है.'
5 जुलाई 2013 को एक अन्य फेसबुक पोस्ट में रोहित राष्ट्रवाद की परिभाषा देते हुए कहता है, 'राष्ट्रगान के बजने पर नहीं खड़ा होने के विचार के मुकाबले मनोरंजन देने वाली फिल्मों की शुरुआत से पहले राष्ट्रगान का चलाया जाना मुझे ज्यादा अपमानजनक लगता है. राष्ट्रभक्ति बैठे रहने और खड़े होने के बीच कोई अटकी हुई चीज नहीं होती, बल्कि हम अन्य नागरिकों के साथ किस तरह सम्मानपूर्वक पेश आते हैं, यह ज्यादा मायने रखता है.' ( ‘जाति कोई अफवाह नहीं’ से उद्धृत 30 नवंबर, 2015)
जैसा कि साफ-साफ हमारे आसपास दिखता है कि अगर अंबेडकर आज जिंदा होते, तो निश्चित रूप से भगवा ब्रिगेड उन्हें भी राष्ट्रद्रोही के तमगों से ही नवाजते.
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उन्होंने इस बात में विश्वास करने से न सिर्फ इनकार किया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं है और इसे हिंदू राष्ट्र ही कहें. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्र के मुकाबले वो हाशिए पर बैठे लोगों के हितों को अधिक प्राथमिकता देंगे.
अक्सर ही इस वाक्य को एक नमूने की तरह पेश किया जाता है, 'किसी तरह की कोई हिंदू चेतना नहीं है. हर हिंदू में मौजूद चेतना उसकी जाति की चेतना है. यही कारण है कि हिंदुओं को समाज या एक राष्ट्र बनाने के लिए कहा नहीं जा सकता ...आखिर एक राष्ट्र होने के लिए लोगों को हजारों प्रकारों में कैसे विभाजित किया जा सकता है ?'
अंबेडकर शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं, जब वो इस बात पर जोर देते हैं कि आखिर इस राष्ट्रवाद के दावे की कीमत कौन चुकाता है.
'श्रमिक वर्ग को अक्सर कहा जाता है कि वह अपने संपूर्ण उद्देश्यों को तथाकथित राष्ट्रवाद पर न्योछावर कर दें. लेकिन उनका ख्याल इस बात के लिए कभी रखा ही नहीं गया है कि जिस राष्ट्रवाद पर उन्हें अपने उद्देश्यों को न्यौछावर करने के लिए कहा जाता है, उसने आखिर उनकी सामाजिक तथा आर्थिक समानता को सम्मान की नजरों से क्यों नहीं देखा.'
अपनी सुविधा के लिए अंबेडकरवादी नहीं था रोहित वेमुला
क्या आज के राष्ट्रवादी ‘बाबा साहेब अंबेडकर’ को किसी समारोह में उनकी फोटो पर माल्यार्पण करने से ही अपने अंबेडकरवादी होने के सुबूत देते हैं ?
लेकिन, किसी भी राजनेता के ठीक उलट रोहित वेमुला अपनी सुविधा और हितों के मुताबिक अंबेडकर की विचारधारा को नहीं चुना.
वेमुला ने खुद अंबेडकर के बारे में जो कुछ कहा है,वह गौरतलब है, 'वो हमारे लिए लड़े, हमारे लिए जिए और हमारे लिये ही मरे. आज यह देश उन्हें याद करता है, लेकिन लोग उन चमचों को याद नहीं करते, जो उनके खिलाफ उठ खड़े हुए थे... यह बहुत ही कुंठित करने वाली बात है कि 124 वीं जयंती पर भी बाबा साहेब की मूर्तियों को ब्राह्मणवादी ताकतों के कब्जे से मुक्त नहीं किया गया जिसकी आज जरूरत है.'
'अंबेडकर जब जिंदा थे, उनपर सवाल उठाया गया था, उनके महात्मा गांधी और ‘आज़ाद भारत’ पर उठाए गए सवालों की वजह से उनसे घृणा की गयी थी. आज़ादी के नाम पर संदिग्ध सत्ता के हस्तांतरण के पक्ष में खड़ा नहीं होने के कारण उन्हें गद्दार तक कहा गया था.' (हेनरी की किताब से लिया गया रोहित वेमुला के पोस्ट का अंश)
हेनरी की किताब में उद्धृत वेमूला के पोस्ट पर नजदीकी से नजर डालने पर हमें पता चलता है कि वेमुला की ज्यादातर बातें लाल सलाम से लेकर जयभीम तक की हैं.
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इसमें किसी तरह का कोई भ्रम नहीं रह जाता है कि वेमुला ने वामपंथी राजनीति को अलविदा कह दिया था और अंबेडकरवादी हो गया था. उसका यह रुपांतरण इस विश्वास पर आधारित था कि धर्म के तमाम स्थापित सिद्धांत और राजनीतिक विचारधारा अनिवार्य रूप से इस समाज को विभाजित करने वाले हैं, चाहे वो वर्ग के आधार पर हों या जाति की बुनियाद पर, इन्हें नामंजूर कर देना चाहिए.
उसने कहा था, “न वामपंथ, न वाम उदारवाद और न ही रेडिकल वामपंथी. सिर्फ और सिर्फ रेडिकल अंबेडकरवाद ही हमें मुक्ति दिला सकता है.'
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