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गुजरात चुनावः पीएम मोदी के गढ़ में राहुल सिर्फ दिखावटी विजेता हैं

दृश्य कुछ ऐसा रचा जा रहा है मानों मुकाबला राहुल बनाम मोदी का बन चला हो और मोदी के मुकाबले में जिसे खड़ा किया गया है वह अखाड़े की तरफ चलता दिखे तो राष्ट्रीय मीडिया बस इतने भर से उसे चैंपियन बताने को तैयार बैठा है

Ajay Singh

चुनावी रहस्य-कथा को सुलझाने के लिए जो लोग अकादमिक या बौद्धिक दायरे में प्रचलित आमफहम तरकीबों का सहारा लेते हैं उनके लिए गुजरात हमेशा एक बुझौवल बना रहता है. ये बात साल 2002 के बाद और नरेंद्र मोदी के सियासी आसमान पर उभार के बाद से खास तौर से देखने में आई है. लेकिन जब असमंजस ज्यादा बढ़ जाता है तो ऐसे विश्लेषक छल की आड़ लेकर अपनी नाकामियों को छुपाते हैं.

इस दुविधा की सबसे बड़ी मिसाल तो ये है कि गुजरात में होने जा रहे चुनाव को नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी के मुकाबले के रूप में पेश किया जा रहा है. और, विडंबना देखिए कि आमफहम तरकीबों का सहारा लेने वाले कुछ राजनीतिक विश्लेषक ( मोदी ऐसे विश्लेषकों को पंडित का नाम देंगे) इस चुनाव में राहुल गांधी को अपने दम पर एक बड़ा नेता बनकर उभरता हुआ बता रहे हैं.


अभी साबित होना बाकी है राहुल गांधी का जादू

नेता ही क्यों, कोई भी आदमी कठिन मेहनत करके एक अरसे में लगातार बड़ा बने तो इसमें कुछ भी गलत नहीं. ठीक इसी तरह यह शिकायत भी नहीं पाल सकते कि विश्लेषकों का एक तबका राहुल गांधी को एक सुलझे हुए नेता के रूप में उभरता देख रहा है. यह सब तो अपने-अपने दिल को ठीक जान पड़ने वाली राय-समझ का मामला है, सो ऐसी राय-समझ की काट की जा सकती है. हां, उनके प्रति सम्मान का भाव भी रखना होगा.

राहुल गांधी में अगर किसी को नया-नवेला जादू दिख रहा है तो उसका साबित होना अभी बाकी है. लेकिन राय-समझ का ये सिलसिला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं. कुछ विश्लेषकों को राहुल में जादू दिख रहा है तो राष्ट्रीय मीडिया इस जादू को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है. राष्ट्रीय मीडिया मोदी के मुकाबले किसी को खड़ा करने के फिराक में है. दृश्य कुछ ऐसा रचा जा रहा है मानों मुकाबला राहुल बनाम मोदी का बन चला हो और मोदी के मुकाबले में जिसे खड़ा किया गया है वह अखाड़े की तरफ चलता दिखे तो राष्ट्रीय मीडिया बस इतने भर से उसे चैंपियन बताने को तैयार बैठा है.

राष्ट्रीय मीडिया दशकों तक उत्तर भारत की जाति की राजनीति के मुहावरे में चीजों को देखने-परखने का आदी रहा है और वह गुजरात के चुनावी माहौल को भी इसी चश्मे से देखना चाहता है. लेकिन राष्ट्रीय मीडिया दो बड़ी सच्चाइयों से आंख मूंदे हुए है. एक तो यह कि मोदी ने यूपी जैसे राज्य में पत्थर की लकीर बन चली जाति की राजनीति को अपने जोर से धूल-धूसरित कर दिया. दूसरी बात यह कि हाल के दशक में देश का सबसे बड़ा नेता बनकर उभरने से पहले मोदी ने सबसे मजबूत क्षेत्रीय नेता के रूप में अपनी जमीन तैयार कर ली थी.

गुजराती अस्मिता के चैंपियन हैं पीएम मोदी

अब, देश का सबसे कद्दावर और मजबूत नेता अपने गृह-प्रदेश में जाए और लोगों से अपनी पार्टी के लिए समर्थन मांगे तो कोई कैसे कह सकता है भला कि लोग उसे समर्थन नहीं देंगे? ऐसा कहने के लिए जाहिर है, ढेर सारी बौद्धिक जुगाली करनी पड़ेगी.

अगर मोदी भाषण-कला में निपुण हैं तो फिर उनके भाषणों का जोर उनकी मातृभाषा गुजराती से ज्यादा और किस भाषा में निखरकर सामने आएगा?

आइए, जरा अपने जेहन पर जोर डालें और याद करें कि 2002 के विधानसभा चुनाव से तुरंत पहले मोदी ने पूरे सूबे के लिए गुजरात गौरव-यात्रा का अभियान छेड़ा था जबकि पार्टी के शीर्ष के नेता इस अभियान के पक्ष में नहीं थे. चूंकि यह अभियान गोधरा-कांड के तुरंत बाद के वक्त में छेड़ा गया था सो इसे लेकर ऐतराज जताया जा रहा था. लेकिन मोदी अपने सोच पर टिके रहे यात्रा-अभियान को जिस खूबी और बेहतरी से पूरा किया वह कठिन दौर से गुजर रहे किसी नेता में शायद ही देखने में आता है.

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याद रहे कि उस वक्त मोदी ने राजनेता के रूप में अपने पंख पसारने शुरू ही किए थे, वो दौर पार्टी के भीतर कुछ अन्य कद्दावर नेताओं का था और शीर्ष पर वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी मौजूद हुआ करती थी.

लेकिन जिन लोगों ने 2002 के गुजरात विधानसभा के चुनावों की रिपोर्टिंग की है वे आपको बताएंगे कि मोदी ने वो चुनाव अकेले अपने दम पर जीता

था. चूंकि चुनाव दंगों की पृष्ठभूमि में हुए थे तो मोदी को हासिल जीत को नकारने के गरज से कहा गया कि यह सांप्रदायिक गोलबंदी का नतीजा है.

लेकिन क्या मामला सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का था? गुजरात में तो दंगे का लंबा इतिहास रहा है. मिसाल के लिए 1980 के दशक के दंगों को याद किया जा सकता है जिसने समाज के बहुत गहरे में चिंता की भावना पैदा की थी. लेकिन बीजेपी तो 1995 तक तो सियासी मैदान में एक हाशिए की ताकत थी. मोदी जिस जाति के हैं उसकी गुजरात में कुछ खास तादाद नहीं लेकिन 2002 में वे एक ऐसे नेता बनकर उभरे जो जाति की जकड़ से सियासत को बाहर निकाल सकता है.

गुजराती समाज की गहरी समझ से ध्वस्त किए अन्य समीकरण

गुजराती समाज की अपनी गहरी समझ के कारण मोदी उस समाज में मौजूद जातिगत भेद को गुजराती अस्मिता के आंदोलन के रूप में बदलने में कामयाब हुए. उन्होंने ऐसी कई योजनाएं और कार्यक्रम शुरू किए जिनके केंद्र में सिर्फ गुजरात था. हिंदीपट्टी के मुख्य राज्य उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के उलट जहां बीजेपी चुनावी राजनीति के हिसाब से हाशिए पर थी, गुजरात में मोदी लोगों को अपनी रणनीति से पार्टी के साथ जोड़ने में कामयाब रहे.

यह भी कहा जाता है कि मोदी के एक सिंगापुरियन दोस्त ने उन्हें सलाह दी थी कि गुजरात पर ध्यान दो और उसे ही अपनी सियासी बुनियाद बनाओ. ‘पांच करोड़ गुजरातियों के लिए काम करना है’ मोदी की यह टेक दरअसल उनकी कुल सियासी रणनीति का अहम हिस्सा थी.

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लेकिन यह कहानी का सिर्फ एक पहलू है. मोदी ने कई मोर्चों पर काम किया. मिसाल के लिए उन्होंने राज्य के सार्वजनिक उपक्रम खासकर स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड की दशा सुधारने के लिए पूरे जोर-शोर से अभियान चलाया. सूखे की मार झेलने वाले सौराष्ट्र और कच्छ जैसे इलाके में पानी की आपूर्ति के लिए कार्यक्रम चलाये. जो लोग 2007 से पहले गुजरात गए हैं वे जानते हैं कि सौराष्ट्र और कच्छ के इलाके में ‘वाटर माफिया’ होते थे. राजकोट जैसे शहरों में इनके टैंकर चला करते थे. मोदी ने इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में सुधार और बदलाव के कठोर निर्णय किए थे.

उस वक्त उन्हें पार्टी के भीतर विद्रोह का भी सामना करना पड़ा. गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके कद्दावर नेता केशुभाई पटेल ने उस वक्त बीजेपी के कुछ नाराज नेताओं के साथ मिलकर गुपचुप कांग्रेस को समर्थन दिया और मोदी की संभावनाओं पर चोट पहुंचाने की कोशिश की.

बड़े-बड़े बगावती तेवरों को पहले भी झेल चुके हैं पीएम मोदी

जो लोग सोचते हैं कि पटेल समुदाय के लोग इस बार पहली दफे बगावती तेवर में हैं वे इतिहास खंगालने पर पाएंगे कि अभी का पटेल समुदाय का आंदोलन तो इस समुदाय के पहले के आंदोलनों के तेवर के आगे कुछ भी नहीं. उस वक्त बगावत की बड़ी जाहिर सी वजह ये थी कि कुछ ताकतवर पाटीदार नेताओं को सत्ता अपने हाथ से फिसलती जान पड़ रही थी.

मोदी ने बिजली बोर्ड के सुधार के लिए कड़े कदम उठाए थे. उस समय किसानों ने बिजली का बिल चुकाने से मना कर दिया था और बड़ी तादाद में उनकी गिरफ्तारी हुई. आरएसएस की किसान-शाखा भारतीय किसान संघ मुख्यमंत्री के खिलाफ सड़कों पर उतरी. लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद 2007 के चुनावी नतीजे इन बातों से अप्रभावित रहे.

साल 2007 के विधानसभा चुनावों से पहले ऊर्जा के क्षेत्र में गुजरात में किए गए सुधार-कार्य के कारण जितना सामाजिक रोष पैदा हुआ उसकी तुलना में जीएसटी के कारण आ रही परेशानियां बहुत छोटी जान पड़ती है और जीएसटी से नाराजगी गुजरात के कुछ इलाकों तक ही सीमित है.

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मोदी ना सिर्फ अपनी राह पर अडिग रहे बल्कि सियासी तौर पर निर्वासन झेल रहे लेकिन तादाद में अहम जान पड़ते सामाजिक समूहों को अपने साथ लेकर उन्होंने अपना सामाजिक आधार भी पुख्ता किया. मिसाल के लिए कोली जाति ( राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद इसी समुदाय से हैं) और आदिवासी समुदाय को सियासत में हिस्सेदार बनाकर बीजेपी ने उन्हें अपने साथ जोड़ा.

अगर जाति के ऐतबार से देखें तो 2007 के विधानसभा चुनावों में मोदी ने इस बात की तनिक भी परवाह नहीं की थी कि गुजरात के ताकतवर जाति समूह क्षत्रिय और पटेल या फिर मुस्लिम उन्हें वोट देंगे या नहीं. लेकिन चुनावी नतीजों ने जाति के गणित से सोचे गए तमाम विश्लेषणों को धराशायी कर दिया क्योंकि मोदी अपना आधार बढ़ाते हुए समाज के एक व्यापक तबके तक पहुंच बना चुके थे.

मोदी के लिए शायद नतीजों के लिहाज से सबसे ज्यादा आसान चुनाव 2012 का साबित हुआ. वे इस वक्त तक राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य दावेदार के रूप में उभर चुके थे और अपने लोकप्रियता की वजह से पार्टी के भीतर सबसे अव्वल नेता के रूप में नजर आ रहे थे. इस वक्त तक मोदी एक ऐसे महारथी के रूप में उभर चुके थे जिसका रथ कोई कितना भी जोर लगाकर नहीं रोक सकता था.

क्या बदला है इन चुनावों में

अब जरा इस बात पर गौर कर लें कि 2017 के चुनावी माहौल में क्या चीजें बदली नजर आ रही हैं. यह कहना कि मोदी चूंकि अब गुजरात की सत्ता में नहीं हैं सो इस बात का बहुत फर्क पड़ेगा दरअसल बहुत कुछ इस सोच के करीब बैठता है कि गुजरात के लोगों को नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में ज्यादा प्रिय हैं. विजय रूपाणी अपने सोच के पक्के नेता हैं और उनकी छवि बेदाग है. बीते चार दशक से प्रदेश की राजनीति में उनकी जड़ें कायम हैं. मोदी के विपरीत विजय रूपाणी भावनाओं का ज्वार नहीं उभारते और यह उनकी ताकत है.

लेकिन कांग्रेस जिन बैसाखियों का सहारा ले रही है जरा उनपर भी गौर कर लें. केशुभाई पटेल से हार्दिक की तुलना करना नासमझी है. दलित इतने ज्यादा बिखरे हैं कि जिग्नेश मेवाणी के नाम पर उनका एकजुट होना मुमकिन नहीं. साल 2007 के बाद से बीजेपी ने दलित और आदिवासियों के बीच अपनी राह बनाई है. गुजरात में आदिवासियों की अच्छी-खासी तादाद है और संगठन के स्तर पर आरएसएस के नेटवर्क के सहारे विस्तार कर बीजेपी ने आदिवासी समुदाय को अपने पाले में कर लिया है.

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गुजरात के मामले में यूपी और बिहार की तरह जाति का गणित सीधे-सीधे अमल में नहीं लाया जा सकता. गुजरात 1980 के दशक में बड़े मंथन से गुजरा है और वहां एक सामाजिक समीकरण स्थिर हो चुका है.

गुजरात के समाज पर व्यापार और उद्यम के भाव का जोर है. ऐसे समाज में कोई बेहतर भविष्य का वादा करके ही कोई स्थिर हो चले समीकरणों में हेर-फेर कर सकता है. क्या आपको लगता है कि राहुल गांधी बेहतर भविष्य की ऐसी आशा गुजराती समाज में जगा सकते हैं? जो लोग ऐसे भ्रम में पड़े हैं वे कभी गुजरात चुनाव की रहस्य कथा को नहीं सुलझा सकेंगे.

मैं साफ कहता हूं कि जोर मोदी का चलेगा और बीजेपी बड़ी आसानी से गुजरात का चुनाव जीतेगी.

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