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राजस्थान: गहलोत 'पायलट' तो बने पर कितना सुहाना रहेगा सफर?

राजस्थान जीतने के 72 घंटों बाद आखिरकार कांग्रेस ने फैसला कर लिया कि राजस्थान का 'पायलट' कौन होगा.

Mahendra Saini

राजस्थान जीतने के 72 घंटों बाद आखिरकार कांग्रेस ने फैसला कर लिया कि राजस्थान का 'पायलट' कौन होगा. शेक्सपीयर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है. ये एकबार फिर चरितार्थ हुआ. पायलट सरनेम वाले सचिन राज्य के मुख्य पायलट नहीं बन पाए और उन्हें को-पायलट यानी उपमुख्यमंत्री के पद से ही संतोष करना पड़ा. पार्टी आलाकमान ने मुख्यमंत्री पद के लिए अशोक गहलोत के अनुभव पर ज्यादा भरोसा जताया.

राहुल गांधी के लिए राजस्थान के मुख्यमंत्री का फैसला कर पाना बेहद मुश्किल रहा. ये इस तथ्य से समझा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बहुमत की तस्वीर बाद में साफ हुई लेकिन मुख्यमंत्री का फैसला वहां पहले कर लिया गया. इसके अलावा, वहां ज्योतिरादित्य सिंधिया की मजबूत दावेदारी के बावजूद डिप्टी सीएम का पद नहीं रखा गया. जबकि राजस्थान में ऐसा करना पड़ा.


मुश्किल रही मुख्यमंत्री चुनने की डगर

चुनाव संपन्न होने तक राहुल गांधी हर रैली में अशोक गहलोत और सचिन पायलट को गले मिलाकर ये दिखाने की कोशिश करते रहे कि कोई गुटबाजी नहीं है. गहलोत और पायलट भी कौन बनेगा करोड़पति गेम का हवाला देते हुए कहते रहे कि अभी तो फास्टेस्ट फिंगर राउंड है, हॉट सीट का मसला बाद में सुलझा लिया जाएगा.

लेकिन ये सारी बातें बनावटी और दिखावटी साबित हुई. गुटबाजी कायम थी और एकता की बातें खोखली थीं. ये साबित हो गया जब 11 दिसंबर की शाम से ही गहलोत और पायलट आक्रामक रणनीति में जुट गए. हालांकि दोनों की दिल्ली दौड़ 7 दिसंबर को चुनाव खत्म होने के साथ ही शुरू हो गई थी. दोनों ही खेमों के सेनापतियों ने दिल्ली से जयपुर तक अपने-अपने तरकश के सारे तीर आजमाए.

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गहलोत-पायलट की रणनीतियों में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस कदर उलझ गए कि उन्हे अपने परिवार यानी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका वाड्रा को घर पर बुलाना पड़ा. पूरे परिवार ने घंटों तक विचार विमर्श किया. राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल से लेकर दूसरे सीनियर नेताओं से मदद ली गई. लेकिन मसला था कि सुलझने में ही नहीं आ रहा था. 13 दिसंबर की शाम को आखिरकार गहलोत का जादू चल गया और उन्हें शपथ की तैयारी के लिए जयपुर जाने को कह दिया गया.

लेकिन पायलट शायद अभी हथियार डालने के मूड में नहीं थे. जयपुर जाने के लिए गहलोत दिल्ली हवाई अड्डे से बोर्डिंग पास ले चुके थे और तभी उनके पास राहुल गांधी का संदेश आया कि वापस आइए. गहलोत समझ गए कि पायलट अपना खेल दिखा चुके हैं.

पायलट आसानी से नहीं हुए पस्त

2004 में राजनीति में एंट्री करने वाले सचिन पायलट का अनुभव भले ही 14 साल का ही है. लेकिन देश के सबसे बड़े राज्य को लीड करने का मौका वे किसी भी हाल में नहीं छोड़ना चाहते थे. उन्होंने वो सब किया जो साम-दाम-दंड-भेद की नीति में से कर सकते थे. कई सीनियर नेताओं से खुद के लिए पैरवी करवाई.

यहां तक कि अपने श्वसुर और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला से सोनिया गांधी को फोन करवाया. सूत्रों के मुताबिक अब्दुल्ला ने पायलट को सीएम बनाने पर 2019 के लिए कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के बीच बेहतर रिश्ते बनने की बात भी कही.

लेकिन 40 साल की राजनीति के अनुभवी गहलोत की तरफ से इन 'बेहतर रिश्तों' की काट ये कहकर की गई कि जम्मू-कश्मीर की 6 लोकसभा सीटों के लिए राजस्थान की 25 सीटों को दांव पर कैसे लगा सकते हैं. गहलोत के पैरोकारों ने राहुल गांधी को बताया कि पायलट पर पहले ही जातिवाद का आरोप लगता रहा है.

अगर वे सीएम बनते हैं तो कम से कम 8 सीटों पर ताकत रखने वाले मीणा जाति के वोट तो बिल्कुल नहीं मिलेंगे. साथ ही 6% वोट वाली सैनी जाति भी कांग्रेस से हमेशा के लिए दूर हो सकती है. ऐसे में राजस्थान से 5 लोकसभा सीटें आनी भी मुश्किल हो जाएंगी.

गहलोत का ये दांव भारी पड़ता देख पायलट ने अपना आखिरी हथियार यानी इमोशनल कार्ड खेला. पायलट ने राहुल गांधी से कहा कि उनपर लग रहे जातिवाद के आरोप बेबुनियाद हैं. वे 4.5% जनसंख्या वाले गुर्जरों के ही नेता नहीं हैं बल्कि वे सभी जातियों को साथ लेकर चले हैं. पायलट ने जोर देकर कहा कि 2013 में 21 सीट पर सिमट जाने के बाद उन्होंने मेहनत कर कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया है जबकि गहलोत राजस्थान छोड़ दिल्ली आ गए थे.

आगामी चुनाव में वोट की बात पर कहा गया कि गहलोत भी 2004 और 2014 के आम चुनाव में सीटें दिलाने में नाकाम रहे थे. सूत्रों के मुताबिक पायलट ने अपने पिता राजेश पायलट के योगदान और 1997-98 में अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी को चुनौती दिए जाने के मसले पर भी अपनी बात रखी. आखिर में पायलट ने नम आंखों से कहा कि उन्होंने अपनी बात कह दी है. अब जो भी फैसला राहुल गांधी करेंगे, वो उन्हे मंजूर होगा.

पायलट के पक्ष में नहीं रही आखिरी जंग

सूत्रों के मुताबिक पायलट की इमोशनल बातों से राहुल गांधी तगड़े दबाव में आ गए. एकबारगी तो लगा कि वे युवा और भविष्य के नाम पर पायलट की घोषणा कर ही देंगे. लेकिन इसी दौरान जयपुर और पूर्वी राजस्थान में चल रहे घटनाक्रमों ने पायलट के पास आती कुर्सी को उनसे छीन लिया.

सचिन पायलट समर्थकों की उग्रता ही आखिर में उनके लिए भारी पड़ गई. पिछले 2 दिन में पायलट समर्थकों ने कम उग्रता नहीं दिखाई है. इसके चलते जयपुर में कांग्रेस मुख्यालय के बाहर पुलिस बंदोबस्त करना पड़ा. पूर्वी राजस्थान में भी कई जगह गहलोत विरोध के नाम पर सड़कें जाम कर दी गईं.

कई वीडियो वायरल हुए जिनमें राहुल गांधी तक के लिए अपशब्द बोले गए. पूरा यकीन है कि पायलट इन समर्थकों को जानते भी नहीं होंगे लेकिन पायलट को मुख्यमंत्री न बनाने पर इन लोगों ने खुलेआम कानून-व्यवस्था को बिगाड़ देने की धमकी दी.

इसके उलट, गहलोत के समर्थक शांत बने रहे. गहलोत के पक्ष में निर्दलीय विधायकों के बयानों ने भी काम किया. बाबू लाल नागर, कांति लाल मीणा, महादेव सिंह खंडेला और राजकुमार गौड़ जैसे दर्जन भर विधायकों ने कांग्रेस को तभी समर्थन का वादा किया जब गहलोत मुख्यमंत्री बनें. कांग्रेस के कई बागियों ने आने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी की मदद गहलोत के नेतृत्त्व में ही करने के बयान दिए.

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हालांकि शुरुआत में पायलट ने सीएम से कम कोई भी पद मंजूर न होने की बात कही थी. पर आखिर में, राहुल गांधी के समझाने पर वे डिप्टी सीएम बनने को राजी हो गए. लेकिन सीएम पद का 'युद्ध' हार जाने की टीस उनके मन में बाकी है. नामों की घोषणा के लिए हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसे समझा जा सकता है.

पायलट ने कहा, 'राजस्थान में उनका और गहलोत का जादू चला है' (यानी सिर्फ गहलोत का नहीं). और 'किसे पता था कि करोड़पति दो-दो लोग बन जाएंगे' (यानी वे पद में ही डिप्टी हैं, हैसियत में नहीं). क्या इससे ये समझा जाए कि आने वाले दिन गहलोत के लिए उतने सुहाने नहीं होंगे जितने उनके पिछले कार्यकालों में रहे.