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मुलायम, अखिलेश और आप भी जरूर पढ़ें 1897 की ये कहानी

गुरचरण लाल और उनके बड़े बेटे के बीच के झगड़े की कहानी आज के यादव परिवार में मची कलह से मेल खाती है

Madhukar Upadhyay

ध्यान रहे: इस कहानी के सभी पात्र, स्थान और समय वास्तविक हैं और इन्हें लखनऊ में मुलायम सिंह यादव के परिवार में घट रही घटनाओं से जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए.

बात 1871 की है. अवध के इलाके में एक बहुत बड़े जमींदार होते थे, चौधरी गुरचरण लाल. उनके पास गोंडा के क्षेत्र में एक-डेढ़ लाख एकड़ जमीन की मिल्कियत भी थी. आजमगढ़, झूंसी, इलाहाबाद और मनकापुर में इनकी बड़ी हवेलियां थीं.


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गुरचरण लाल केवल पैसे वाले ही नहीं थे. समाज में हर तरफ उनके मित्र थे. इन्हीं मित्रों में से एक थे स्वामी दयानंद सरस्वती जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की.

अवध ही नहीं पूरे हिंदुस्तान में थी धाक

साल 1857 के गदर में जब विद्रोहियों ने क्रांति के कोड के रूप में रोटियां और कमल का फूल बांटना शुरू किया, तो इनका घर उसका एक बड़ा केंद्र था.

इसके अलावा मिर्जापुर में गुरचरण लाल का लंबा चौड़ा खानदानी कारोबार भी था.

बनारस से सटे मिर्जापुर को ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक बड़ी मंडी के तौर पर बसाया था. वो कपास और रेशम के कारोबार का बड़ा केंद्र था. वहां नील के बड़े गोदाम भी थे. इन सभी धंधों में चौधरी की बड़ी हैसियत थी. तो जाहिर है कि चौधरी गुरचरण लाल का कारोबार और घर-बार हर तरफ से फल फूल रहा था.

गुरुचरण जी ने तीन विवाह किए और उनके सात बेटे थे. सबसे बड़े बेटे का नाम था बद्रीनारायण. बद्रीनारायण भी अपने पिता के जैसे ही काबिल थे.

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कांग्रेस के गठन के साल भर बाद, 1886 में कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुए दूसरे महाधिवेशन में बद्रीनारायण मिर्जापुर की तरफ से शामिल हुए थे. इनकी भी पूछ-परख इतनी थी की 1911 में दिल्ली में जॉर्ज पंचम का दरबार हुआ तो सल्तनते बर्तानिया ने इन्हें भी बुलावा भेजा.

बाप बेटे में क्यूं ठनी

हुआ यूं कि एक दिन बाप-बेटे के बीच में महज 22 बीघे के जमीन के टुकड़े के लिए मनमुटाव हो गया. बेटा उसे किसी और तरह से इस्तेमाल करना चाहता था और बाप किसी और तरह से.

बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ी की बाप-बेटे के बीच में अबोला हो गया. संबंध ना बचे. हर कोई हैरान. कुछ लोगों ने बीच-बचाव कराने की कोशिश भी की.

इन्हीं लोगों में एक थे स्वामी दयानंद सरस्वती. साल 1876 में स्वामी जी के दबाव में दोनों में राजीनामा भी हुआ. पर थोड़े दिन के बाद वही ढाक के तीन पात. बाप और बेटा फिर लड़ पड़े.

साल 1877 में गुरुचरण लाल जी ने उस 22 बीघे जमीन के टुकड़े के लिए अदालत में मुकदमा ठोंक दिया. मुकदमा चलता रहा और 20 साल में खिंचते-खिंचाते इलाहाबाद हाईकोर्ट जा पहुंचा. बाप बेटे में से किसी ने ना समय का मुंह देखा ना पैसे का.

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गुरचरण लाल ने उस समय के इलाहाबाद के दो सबसे बड़े फिरंगी वकील, लेन हार्वुड और एलिस्टन को रख लिया.

बेटे की तरफ से उस समय के सबसे बड़े और महंगे हिन्दुस्तानी वकील मोतीलाल नेहरू और तेज बहादुर सप्रू मुकर्रर हुए. खैर 57 पेशियों के बाद 1897 में हाईकोर्ट ने बेटे के पक्ष में फैसला दिया.

जब बेटा जीता तो पिता ने जिसने बरसों तक उससे बात भी नहीं की थी. उसने एक बड़ी दावत दी. दावत में बेटे को भी बुलाया.

लोग हैरान कि ये बेटे से हारने पर क्यों दावत दे रहे हैं. कोई बोला इसलिए कि बेटे ने साबित कर दिया कि वो बड़ा हो गया है. कोई बोला कि बेटे को बेइज्जत करने के लिए कि उसने बाप को अदालत में हराया. गुरचरण लाल से किसी ने पूछा तो वो उसको बोले ‘तुम नहीं समझोगे’.

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खैर दावत हुई. बेटा आया और उस जमाने के रईसों की तरह ऊंचा रौबदार साफा पहन कर आया. लोग सांसे रोके देख रहे थे कि अब क्या होता है.

बेटा दनदनाता हुआ बाप के सामने पहुंचा और सबके सामने पांवों पर अपना साफा रख कर बोला ‘अब जो है सब आपका है जो चाहे करिए’.

इस तरह बेटे ने बाप को एक बार फिर सबके सामने हराया.