view all

विरोधियों से नहीं, अखिलेश की असली लड़ाई वक्त से है

यह अनिश्चितता जितनी देर तक रहेगी, अखिलेश के लिए उतनी ही मुश्किलें बढ़ती जाएंगी.

Sandipan Sharma

क्या अखिलेश उत्तर प्रदेश चुनाव अपने दम पर जीत सकते हैं? क्या वे बिना साइकिल चुनाव चिन्ह या फिर अपने पिता के बिना मैदान में टिक पाएंगे?

उत्तर प्रदेश के तमाम चुनावी सर्वे में अनुमान चाहे जो भी हों. एक बात तो सबमें है. मुख्यमंत्री के लिए अखिलेश ही सबसे पहली पसंद हैं.


भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के आने के बाद से ही यहां चुनाव व्यक्ति केंद्रित हो गए हैं. जैसे अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव होते हैं. इस तरह के चुनाव में लोकप्रिय नेता को विरोधियों पर शुरुआती बढ़त मिल जाती है.

यह भी पढ़ें: मुलायम के पास बेटे से हार कर 'बाजीगर' बनने का मौका

ऐसा पिछले तीन चुनावों में साफ देखा गया. पहले दिल्ली, जहां अरविंद केजरीवाल ने हर्षवर्धन और किरण बेदी को शिकस्त दी. इस चुनाव के पूर्वानुमानों में भी किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं दिया गया था. लेकिन केजरीवाल की शख्सियत ने आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत से जीत दिलाई.

शख्सियतों का चुनाव

इसी तरह पहले बिहार में नीतीश कुमार की शख्सियत का जादू चला. बाद में असम चुनाम में बीजेपी के सर्बानंद सोनोवाल और हेमंत बिस्वा शर्मा ने जीत हासिल की.

कारण साफ है. चेहरा जब पार्टी से बड़ा हो जाता है. तब जाति-धर्म के समीकरण ध्वस्त हो जाते हैं. पार्टी की विचारधारा भी तब कहीं खो जाती है. चुनाव केवल एक चेहरे के सहारे लड़ा जाता है.

यूपी चुनाव से ठीक पहले अखिलेश का चेहरा पार्टी से बड़ा हो गया है. मुख्यमंत्री की दौड़ में अखिलेश अपने विपक्षियों से आगे नजर आ रहे हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या अखिलेश खुद को मतदाताओं के बीच बहस का मुद्दा बना पाएंगे? क्या अखिलेश मोदी, केजरीवाल, नीतीश कुमार, शर्मा, सोनोवाल जैसा कमाल यूपी में दिखा पाएंगे?

एक बात तो साफ है कि अखिलेश ने पार्टी में तख्तापलट की तैयारी छह महीने पहले ही शुरु कर दी थी. इसके पीछे की रणनीति यह थी कि या तो समाजवादी पार्टी उनकी हो जाए या फिर उनका चेहरा समाजवादियों का चेहरा बन जाए. होर्डिंग, बैनर, पोस्टर, अखबार और टीवी विज्ञापनों में अखिलेश ने अपना काम दिखाना शुरु कर दिया था.

इन विज्ञापनों में अखिलेश का चेहरा ही सामने रहता था. मुलायम और पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल पीछे चले गए. अखिलेश ने अपनी शख्सियत चमकाने के लिए जोरदार अभियान चलाया. इसमें यूपी की राजनीति के महारथी मायावती और मुलायम बौने दिखने लगे.

यह भी पढ़ें: अब मुलायम-अखिलेश की साइकिल बचाओ मुहिम

बीजेपी ने सीएम का कोई चेहरा प्रोजेक्ट नहीं किया है. अब यूपी में अखिलेश के मुकाबले  बहस के लिए कोई चेहरा नहीं रहा. वहां दबी जुबान में लोग कहने लगे हैं ‘दिल्ली में मोदीजी, लखनऊ में भैय्याजी.’

दो साल पहले दिल्ली में भी ऐसी ही चर्चा शुरु हुई थी. जिसमें ‘केंद्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल’ की बात बीजेपी के खिलाफ गई थी. यह बीजेपी के लिए चिंता का विषय है.

साइकिल रणनीति का हिस्सा

अखिलेश ने शिवपाल सिंह से लड़ाई मोल ली. मुलायम के उम्मीदवारों को भी अखिलेश ने नकार दिया. ऐसा करके अखिलेश ने अपनी सरकार के खिलाफ लोगों की नाराजगी को भी दूर कर दिया है.

अब वो 60 के दशक की इंदिरा गांधी जैसे अपनी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले योद्धा भी बन गए. जनता की सहानुभूति भी अब अखिलेश के साथ है.

सामान्य हालातों में अच्छी लोकप्रियता और कम एंटी-इनकंबेसी किसी भी मुख्यमंत्री के लिए जीत का मंत्र होती हैं. नोटबंदी के कारण किसानों को हो रही परेशानी. दैनिक वेतन भोगियों की बढ़ी मुश्किलें. पलायन कर गए मजदूरों की घर वापसी. यह तीनों अखिलेश के पक्ष में महौल बनाती हैं.

अगर अखिलेश को साइकिल चुनाव चिन्ह नहीं भी मिलता तो कोई बात नहीं. उनके रणनीतिकारों की मानें तो नए चुनाव चिन्ह को भी वो आसानी से दूर-दराज इलाकों तक आसानी से और जल्दी पहुंचा सकते हैं. साइकिल के लिए चुनाव आयोग जाने के पीछे अलग रणनीति है.

साइकिल चुनाव चिन्ह का मामला आयोग में ले जाकर अखिलश गुट ने एक तीर से दो शिकार किए हैं. पहला तो साइकल चुनाव चिन्ह पर दावा. दूसरा शिवपाल गुट को साइकल चुनाव चिन्ह इस्तेमाल करने से रोकना.

मुख्यमंत्री अखिलेश के रणनीतिकारों को लगता है कि यह प्लान काम करेगा. अखिलेश गुट को साइकिल चुनाव चिन्ह मिलने से अखिलेश को मिलने वाला वोट गलती से किसी और के पास नहीं जाएगा.

समाजवादी पार्टी में अखिलेश विरोधी खेमे के पास कोई ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसे लेकर वे चुनाव में जाएं. ऐसे में चुनाव चिन्ह भी छिन जाने से विरोधी गुट पूरी तरह टूट जाएगा.

लेकिन इन सब तैयारियों के बावजूद अखिलेश अभी तक परिवार की लड़ाई में उलझे हुए हैं. जबकि दूसरी पार्टियों का चुनाव अभियान शुरू हो चुका है.

अब अखिलेश के पास ज्यादा वक्त नहीं है. यूपी में पहले चरण के मतदान के लिए अधिसूचना कुछ ही दिनों में जारी हो सकता है.

मुलायम गुट के साथ अभी तक समझौता न हो पाने से गठबंधन का फैसला भी अधर में अटका पड़ा है. अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि अखिलेश कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के साथ चुनाव लड़ेंगे या नहीं. इस अनिर्णय की वजह से उम्मीदवारों की सूची भी अटकी है.

यह भी पढ़ें: यूपी चुनाव 2017: क्या नेताजी मजबूरी में ‘मुलायम’ हो गए हैं?

यह अनिश्चितता जितनी देर तक रहेगी, अखिलेश के लिए उतनी ही मुश्किलें बढ़ती जाएंगी. जाहिर है उनके कुछ वोटर बीएसपी और बीजेपी की तरफ भी छिटक सकते हैं.

यूपी में अखिलेश की लड़ाई मायावती, मोदी और मुलायम के खिलाफ है. लेकिन उनका असल मुकाबला वक्त के साथ है, एक ऐसा दुश्मन जिसे हराना नामुमकिन है.