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क्या मजबूत सरकार देशहित में है, बहुमत वाली सरकारों ने देश को क्या दिया है?

देश को मजबूत सरकारों ने क्या दिया और ‘मजबूर’ सरकारों का कैसा रहा परफॉर्मेंस?

Dilip C Mandal

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल देश में अगले 10 साल के लिए स्थिर और मजबूत सरकार चाहते हैं. वे ऐसी सरकार चाहते हैं, जिसे पूर्ण बहुमत हासिल हो और जो सहयोगी दलों पर निर्भर न हो. उनके हिसाब से ऐसी सरकार नहीं होगी तो देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी. यह कहकर उन्होंने पूर्ण बहुमत वाली सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ दिया है.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोई संवैधानिक पद नहीं है. यह पद भारत में हमेशा नहीं था. कल कोई प्रधानमंत्री नहीं चाहेगा, तो ये पद नहीं होगा. ये एक राजनीतिक नियुक्ति वाला पद है. प्रधानमंत्री अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करता है. इस पद के लिए कोई योग्यता भी निर्धारित नहीं है. आम तौर पर विदेश सेवा या प्रशासनिक सेवा के किसी रिटायर्ड व्यक्ति को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाने का चलन है. डोवाल पुलिस सेवा के रिटायर्ड अफसर हैं. इसमें कोई दिक्कत नहीं है. दिक्कत इस बात में भी नहीं है कि वे राजनीतिक बयान दे रहे हैं. अगर वे बीजेपी को वोट देने की अपील करें, या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिंदाबाद बोलें, तो भी इसमें कोई बुराई या अनीति नहीं है. इस पर कोई कानूनी रोक भी नहीं है.


इसलिए बात इस पर नहीं होनी चाहिए कि डोवाल को देश की राजनीति पर बोलने का हक है या नहीं. बल्कि बात इस पर होनी चाहिए कि वे क्या कह रहे हैं और वे जो बोल रहे हैं क्या वह सही है.

तथ्यों के आधार पर देखिए कि उस दौर में देश का क्या हाल रहा

भारत में आजादी के बाद लंबे समय तक स्थिर और एक पार्टी के बहुमत वाली सरकारें रही हैं. पहले लोकसभा चुनाव के बाद देश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और 1977 तक एक ही पार्टी की सरकार केंद्र में रही. केंद्र के साथ ही ज्यादातर राज्यों में एक ही पार्टी यानी कांग्रेस का शासन रहा. तथ्यों के आधार पर देखा जाना चाहिए उस दौर में देश का क्या हाल रहा.

- आर्थिक विकास की दृष्टि से वह पूरा समय सबसे धीमी विकास का रहा. विकास दर आम तौर पर तीन फीसदी से कम पर टिकी रही. दुनिया के कई देश उस समय अपने विकास की मजबूत बुनियाद रख रहे थे.

- सरकारी समाजवाद की नीति ने देश की आर्थिक विकास की गति को रोक दिया. आर्थिक घोटाला और सरकारी पैसे के लूट वाली संस्कृति की बुनियाद इसी दौर में पड़ी. यही वह दौर है जब दुनिया भर के और एशिया के भी कई देश भारत से आगे निकल गए.

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- राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी वह कोई शानदार दौर नहीं था. आजाद भारत ने पहली बार इसी दौरान चीन के हाथों हार झेली और हमारी हजारों एकड़ जमीन पर चीन बैठ गया.

- शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और मानव विकास के तमाम मानदंडों पर आज भारत अगर दुनिया के सबसे फिसड्डी देशों की लिस्ट में है तो इसकी नींव इसी दौर में पड़ी थी.

- वह दौर देश में भीषण दंगों का दौर था, मुसलमानों और दलितों-पिछड़ों के हाशिए पर रहने का दौर था.

1984 सिख दंगा.

जबकि अल्पमत वाली सरकारों ने बेहतर काम किया

हमारे साथ आजाद हुए देशों के साथ तुलना करने पर ये तथ्य मजबूती से सामने आता है कि भारतीय लोकतंत्र उस दौरान जिस तरह चला, वह कोई गौरवशाली दौर नहीं था. चूंकि वह गुलाबी सपनों का, मेरी देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती का दौर था, इसलिए इस दौर की निर्मम समीक्षा अभी तक हुई नहीं है. कहने का यह अर्थ नहीं है कि उस दौर में गठबंधन की राजनीति होती तो तस्वीर अलग होती. लेकिन ये तय है कि उस समय की मजबूत और एक दल के बहुमत वाली सरकारों ने कोई चमत्कारिक उपलब्धि हासिल नहीं की.

इसके उलट, जिन्हें हम अक्सर कमजोर, जोड़तोड़ वाली, अस्पष्ट बहुमत वाली सरकार कहते हैं, उस दौर में ही देश में छाया गतिरोध टूटता है. जादू तो तब भी नहीं हुआ, लेकिन इन सरकारों का परफॉर्मेंस स्थिर सरकारों से बेहतर ही साबित हुआ.

- आर्थिक विकास के नजरिए से सबसे बुनियादी बदलाव नरसिंह राव सरकार के दौर में हुआ, जब भारत ने खुद को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकाकार करना शुरू किया. नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधारों का जिम्मा दिया और उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था की दिशा बदल दी. अक्षम सरकारी क्षेत्र की तंद्रा तोड़ने के लिए भी यह जरूरी था.

- कांग्रेस का एकछत्र राज टूटने और कमजोर सरकारों के आने के बाद के दौर में देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज रही. कभी-कभी तो विकास दर ने दहाई का आंकड़ा भी छू लिया.

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- कमजोर सरकारों के दौर में भारत ने किसी देश के हाथों हार का सामना नहीं किया. बल्कि इस दौर में युद्ध होने बंद हो गए. कारगिल की सीमित झड़प को छोड़ दें तो सीमाएं अपेक्षाकृत शांत और सुरक्षित हैं.

- सामाजिक दृष्टि के दो सबसे बड़े फैसले- मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करना और उच्च शिक्षा संस्थानों में देश की 52 फीसदी ओबीसी आबादी को आरक्षण देना- कमजोर सरकारों ने किए. इससे राष्ट्र निर्माण में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करने का रास्ता खुला. राजीव गांधी की मजबूत सरकार मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू नहीं कर पाई, जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह की साझा सरकार ने कर दिखाया.

पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह

कमजोर सरकारें देश की विविधता को समेट पाती हैं

- दरअसल जिसे कमजोर सरकार या मिली-जुली सरकार कहा जाता है, उसमें शामिल कई दलों की वजह से ऐसी सरकारें राष्ट्रीय विविधता को बेहतर तरीके से समेट पाती है. इसकी वजह से देश के ज्यादा से ज्यादा भाषाई, भौगोलिक और जातीय समूहों को लगता है कि राजकाज में उनकी हिस्सेदारी है. राष्ट्रीय एकता के लिए यह एक बेहतर स्थिति है. जो देश अंदर से मजबूत होता है, उसकी सीमाएं अपने आप मजबूत हो जाती हैं.

- पंजाब का आतंकवाद जो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की मजबूत सरकारों में फला-फूला, इसे शांत करने का काम नरसिंह राव की अल्पमत वाली सरकार ने किया. राजीव गांधी की मजबूत सरकार ने श्रीलंका के आंतरिक विवाद में भारत के उलझाकर देश का जो नुकसान किया, उसकी भरपाई में खासा वक्त लग गया. कहना मुश्किल है कि अगर उस समय कोई साझा सरकार होती, तो भी क्या भारतीय फौज श्रीलंका जाती. हो सकता है कि डीएमके या एआईडीएमके जैसा कोई सहयोगी दल रोड़ा बनकर खड़ा हो जाता!

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- गठबंधन सरकार होने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी के समय में सरकार ने बीजेपी का एजेंडा लागू नहीं किया और देश में सांप्रदायिक तापमान आम तौर पर ठंडा बना रहा. उसी दौर में, गुजरात की पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी सरकार गुजरात दंगों को रोक पाने में पूरी तरह विफल रही.

अजित डोवाल अगर कह रहे हैं कि देश को पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार चाहिए, तो उन्हें अपनी बात के समर्थन में तर्क देने चाहिए. भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में किसी भी सरकार में ज्यादा से ज्यादा विचारों और सामाजिक और भाषाई समूहों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए. राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का यही लोकतांत्रिक रास्ता है.