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मोदी और जेटली, कितने पास....कितने दूर?

आर्थिक हालात पर चर्चा हो और वित्तमंत्री मौन हों, यह बात सहजता से हजम नहीं होती.

Rajesh Raparia

पिछले दो दिनों से सियासी गलियारों में यह चर्चा गरम है कि वित्तमंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबंध पहले जैसे सहज नहीं रह गए हैं. जेटली पर मोदी का पहले जैसा भरोसा नहीं रह गया है. सोशल मीडिया में भी 'अरुण जेटली की केतली कितना है दम' को लेकर काफी चहल-पहल है.

कुछ समय पहले तक मोदी के मंत्रिमंडल में अरुण जेटली को नंबर 2 माना जाता था. पिछले शनिवार को खबर आयी कि प्रधानमंत्री मोदी मंगलवार से नीति आयोग की बैठक लेंगे और मौजूदा आर्थिक हालात पर विमर्श करेंगे पर इस खबर को खास तवज्जो नहीं मिली.


सोमवार को टेलीविजन चैनलों ने ब्रेकिंग न्यूज में यह खबर चलाकर हलचल मचा दी कि इस बैठक में वित्तमंत्री भी शामिल होंगे. यह खबर चौंकाने वाली थी.

देशे के आर्थिक हालात पर चर्चा हो और वित्तमंत्री शामिल न हो, यह सोचा भी कैसे जा सकता है. मंगलवार को यह बैठक हो भी गई. इस बैठक के बारे में सूत्रों के हवाले से कई खबरें आईं. लेकिन जितनी खबरें थीं उतने उनके सिर.

लेकिन इन सब में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली खबर थी नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की प्रेस ब्रीफिंग. इस ब्रीफिंग के दौरान उन्होंने कहा कि बैठक में कृषि, रोजगार, स्किल इंडिया को लेकर भी चर्चा भी हुई और वित्तमंत्री अरुण जेटली भी बोले. बस इतनी सी खबर सबसे तेज चैनल पर मिली.

वैसे बात छोटी सी है लेकिन है गंभीर. आर्थिक हालात पर चर्चा हो और वित्त मंत्री मौन हों, यह बात सहजता से हजम नहीं होती. यह भी तब जब एक दिन के बाद 28 दिसंबर को अरुण जेटली का जन्मदिन था. ऐसा कर प्रधानमंत्री मोदी क्या वास्तव में कोई संदेश देना चाहते हैं जैसे वह मंत्रिमंडल में कर चुके हैं.

नीति आयोग की मीटिंग के दौरान भी जेटली की भागीदारी पर सवाल खड़े हुए

नोटबंदी के बाद रिश्ते बिगड़े

असल में नोटबंदी के साथ ही वित्तमंत्री को लेकर सियासी चर्चाएं तेज हैं. राज्य सभा में नोटबंदी पर हुई बहस के दौरान जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव और एसपी सांसद नरेश अग्रवाल ने चुटकी ली थी कि, नोटबंदी के फैसले की जानकारी वित्तमंत्री को भी नहीं थी, वरना वो उनको जरूर बताते.

सामान्य धारणा ये है कि, यह सरसराहट अरुण जेटली खेमे की ही देन थी. नोटबंदी को लेकर अब तक 60 से अधिक निर्देश जारी हो चुके हैं. कई बार इन निर्देशों को लेकर भी भारी भ्रम रहता है. नतीजतन, इस भ्रम को दूर करने के लिए वित्तमंत्री या उनके महकमों को सफाई देने पर मजबूर होना पड़ा है.

डिजिटल पेमेंट को प्रोत्साहित करने के लिए दी गई राहतें और छूट संबंधी निर्देश इसके सबसे मुफीद उदाहरण है. नोटबंदी का एक निर्देश तो 24 घंटे में ही वापस लेना पड़ा. इन सबसे नोटबंदी के निर्णय की भारी फजीहत हुई है. बीजेपी के अंदर भी वित्तमंत्रालय के तौर तरीकों पर उनके विरोधी अब उन्हें काम लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते हैं.

मोदी मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री पर भरोसा नहीं करने वालों की तादाद कम नहीं है. इसकी वजह है कि विरोधियों को कमजोर करने के लिए जेटली मीडिया का बेजा इस्तेमाल करने में माहिर हैं.

केंद्रीय मंत्रीमंडल में अरुण जेटली का कद नंबर दो का माना जाता है

गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के नजदीकी, जेटली के स कौशल को ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं.

कीर्ति आजाद को बीजेपी से बाहर कराने में जेटली की भूमिका किसी से छिपी नहीं है. इसमें कोई शक नहीं है कि मीडिया में उनके अपने आदमी हैं. मीडिया में मजाक भी चलता है कि फलां मीडिया जेटली का संवाददाता है.

गोविंदाचार्या के बीजेपी से बाहर होने और प्रमोद महाजन की दर्दनाक हत्या के बाद बीजेपी में अरुण जेटली का ग्राफ काफी तेजी से बढ़ा. शुरू से ही उन पर आडवाणी की विशेष कृपा रही.

पर संघ-आडवाणी में खटपट बढ़ने के बाद जेटली ने आडवाणी से दूरी बना ली थी, जिसका प्रतिफल भी उन्हें मोदी सरकार में खूब मिला. पर इस प्रतिफल में कितना फल बचा है, यह अब कयासों और सवालों के घेरे में है. आगामी बजट में इसकी झलक देखने को जरूर मिलेगी कि यह वित्तमंत्री का बजट है या प्रधानमंत्री कार्यालय का?