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आप की नेशनल काउंसिल: कुमार विश्वास की 'खामोशी' के पीछे राज क्या है

गुरुवार को जो कुछ भी हुआ, उसके बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी 2015 की नेशनल काउंसिल की बैठक को दोहराने से किस तरह बच पाती है

Debobrat Ghose

आम आदमी पार्टी (आप) की नेशनल काउंसिल की बैठक में हमेशा शोर-शराबा और ड्रामा होता है, विवादों का जन्म होता है और अक्सर पार्टी नेतृत्व के बीच दरार सामने आ जाती है.

भले ही वह मई, 2015 में हुई नेशनल काउंसिल की बैठक हो. इसमें आप के संस्थापक सदस्य और बुद्धिजीवी चेहरे योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और अजित झा को नेशनल एक्जीक्यूटिव से बाहर निकाला गया था. गुरुवार को हुई बैठक में भी असहज स्थितियां साफ देखी जा सकती थीं. यह बैठक ऐसे वक्त हुई है, जब पार्टी संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और वरिष्ठ नेता कुमार विश्वास के बीच दरार चौड़ी होती जा रही है.


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ऐसा पहली बार हुआ, जब शानदार वक्ता, नेशनल एक्जीक्यूटिव के सदस्य और अगले साल चुनाव में जा रहे राजस्थान के प्रभारी कुमार विश्वास मोडरेटर की भूमिका में नहीं थे. यहां तक कि उनका नाम वक्ताओं की सूची में भी नहीं था, जबकि मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, गोपाल राय और आशुतोष जैसे उनके समकक्षों का नाम इस सूची में था.

2015 के दिल्ली विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की प्रचंड जीत के बाद आयोजित समारोह और दूसरे कार्यक्रमों में विश्वास और केजरीवाल अगल-बगल बैठे थे. गुरुवार की बैठक में वो मंच पर एक किनारे थे.

नेशनल काउंसिल की बैठक में शामिल सूत्रों ने कहा कि, बोलने की इजाजत नहीं मिलने से विश्वास परेशान थे. जब दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया बोलने वाले थे, सदस्यों के एक समूह ने विश्वास से बोलने की मांग की.

एक सूत्र ने कहा, 'जब मनीष सिसोदिया बोलने के लिए तैयार थे, श्रोताओं में बैठे नेशनल काउंसिल के सदस्यों और आमंत्रित सदस्यों के बीच से आवाजें आईं. वो विश्वास को सुनना चाहते थे'.

उनकी मांगों का जवाब देते हुए सिसोदिया ने पूछा कि कितने लोग विश्वास को सुनना चाहते हैं? सूत्र के मुताबिक विश्वास को सुनने की मांग करने वालों की संख्या अच्छी-खासी थी.

नेशनल काउंसिल के एक वरिष्ठ सदस्य ने फर्स्टपोस्ट को नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया 'करीब 70 से 80 सदस्यों ने हाथ उठाए और कहा कि वो विश्वास को सुनना चाहते हैं. सदस्यों की राय देखकर सिसोदिया ने विश्वास से बोलने के लिए कहा, लेकिन विश्वास ने मना कर दिया. इसके बजाए, विश्वास ने कहा कि तय कार्यक्रम के मुताबिक बैठक चलती रहे. विश्वास पूरी तरह परेशान दिख रहे थे'.

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खबरों के मुताबिक बैठक के बाद, विश्वास ने मीडिया से कहा, 'अब तक मैं सोचता था कि बीजेपी और कांग्रेस मेरे विरोधी हैं, लेकिन आज मुझे पता चला कि कहानी कुछ और है.'

केजरीवाल का नाम वक्ताओं की सूची में सबसे आखिरी में था. उन्हें समापन भाषण देना था. लेकिन वो बैठक में ज्यादातर समय अनुपस्थित रहे. सूत्रों के मुताबिक, वो बहुत देर से शाम सवा चार बजे आए जबकि बैठक सुबह 10.30 बजे ही शुरू हो गई थी.

वरिष्ठ नेता ने सवालिया लहजे में पूछा, 'यह बैठक अतिमहत्वपूर्ण है क्योंकि नेशनल काउंसिल निर्णय लेने वाली आप की शीर्ष इकाई है. इस बैठक में पार्टी संयोजक (केजरीवाल) की मौजूदगी अनिवार्य थी, जैसा कि दूसरी पार्टियों में होता है. लेकिन वो शाम सवा चार बजे के करीब आए और उनका शाम 4.30 बजे समापन भाषण देना निर्धारित था. अधिकतर सदस्यों को यह थोड़ा अजीब लगा. क्या उन्हें नेशनल काउंसिल के दूसरे सदस्यों को नहीं सुनना चाहिए था जो यहां देश के कई इलाकों से पहुंचे हैं?'

इस स्थिति को गुरुवार शाम 5 बजे किया गया कुमार विश्वास का एक ट्वीट भी बयां करता है.

क्या आज की बैठक 2015 की दोहराव है?

साल 2015 की नेशनल काउंसिल की बैठक में खासा ड्रामा हुआ था. तब योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण समेत चार वरिष्ठ नेताओं को पार्टी की नेशनल एक्जीक्यूटिव से बाहर कर दिया गया था. मई में बैठक से पहले, पार्टी मे तनाव साफ दिख रहा था. एक तरफ, केजरीवाल को अपने निष्ठावान समर्थकों का मजबूत समर्थन हासिल था, दूसरी तरफ, एक वर्ग यादव-भूषण की जोड़ी का समर्थन कर रहा था. तब भी नारेबाजी हुई थी, लेकिन आखिरी में आप सुप्रीमो का फैसला ही माना गया.

उसी तरह, गुरुवार को नेशनल काउंसिल की पांचवीं बैठक से पहले विश्वास और केजरीवाल-सिसोदिया की जोड़ी के बीच दरार चौड़ी होने से तनाव बढ़ने लगा था. जब विश्वास का नाम वक्ताओं की सूची से गायब मिला तो उनके समर्थकों ने बैठक के दौरान ये मुद्दा उठाया.

आप की नेशनल काउंसिल में तीन सौ सदस्य हैं. बैठक में पार्टी विधायक और पार्षद विशेष आमंत्रित होते हैं.

दरार की वजह

कई चुनावों खासकर पंजाब और गोवा विधान सभा चुनाव में लचर प्रदर्शन पर जब विश्वास ने सवाल उठाया, तब से पार्टी से उनका छत्तीस का आंकड़ा चल रहा है. दिल्ली की राजौरी गार्डन उपचुनाव और नगर निगम चुनाव में हार ने आग में घी का काम किया. विश्वास ने पार्टी नेतृत्व पर हमले तेज कर दिए.

स्थितियां तब और बिगड़ गई, जब ओखला से आप के विधायक और केजरीवाल के खास अमानतुल्लाह खान ने विश्वास पर ‘आरएसएस का एजेंट’ होने का आरोप लगाया.विश्वास ने इसे अपमान की तरह लिया और खान के खिलाफ कार्रवाई की मांग की. राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) ने खान को निलंबित कर दिया. विश्वास की ओर से विधायक पर लगाए गए आरोपों की जांच के लिए एक समिति बनाई गई.

हालांकि, खान को निलंबित कर दिया गया, लेकिन उन्हें दिल्ली विधान सभा के अहम पैनलों में जगह दी गई. यहां तक कि केजरीवाल ने निलंबित विधायक की ओर से दी गई इफ्तार पार्टी में भी शिरकत की. हालांकि, 30 अक्टूबर को पार्टी ने खान का निलंबन खत्म कर दिया.

आप के एक वरिष्ठ नेता ने निलंबन खत्म होने के बाद फ़र्स्टपोस्ट को बताया था, 'जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर पीएसी ने खान का निलंबन रद्द किया. वास्तव में,पैनल को विधायक के खिलाफ कुछ भी गलत नहीं मिला.'

तो, वरिष्ठ नेता क्या कहना चाहते थे - विश्वास के खिलाफ खान का आरोप सच था?

वास्तव में, इन सब घटनाओं से विश्वास विचलित हो गए और शीर्ष नेतृत्व से उनका विवाद और बढ़ गया. और, गुरुवार को नेशनल काउंसिल की बैठक के दौरान भी यह साफ तौर पर दिखा.

आगे क्या?

नेशनल काउंसिल की बैठक में दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य समेत बढ़ती बेरोजगारी, नोटबंदी से नुकसान और कृषि संकट पर विस्तार से चर्चा हुई. साथ ही गुजरात चुनाव और उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव में उतरने की योजना पर भी बात हुई, जो कि आम आदमी पार्टी के लिए नए क्षेत्र हैं. पार्टी अगले साल राजस्थान विधान सभा चुनाव लड़ने की योजना भी बना रही है, जिसके लिए विश्वास को राज्य का का प्रभारी बनाया गया है.

इसके अलावा, अगले साल दिल्ली से राज्य सभा की तीन सीटें खाली हो जाएंगी. इन सभी सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों का जीतना तय है.

कई मौकों पर विश्वास ने कथित रूप से ये आरोप लगाया है कि पार्टी के भीतर की कुछ ताकतें उन्हें राज्य सभा जाने से रोकना चाहती हैं.

हालांकि, गुरुवार को जो कुछ भी हुआ, उसके बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी 2015 की नेशनल काउंसिल की बैठक को दोहराने से किस तरह बच पाती है. साथ ही पार्टी नेतृत्व बढ़ते असंतोष को थामकर किस तरह विश्वास का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करता है.