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कुमार पर विश्वास न दिखाने से हैरानी क्यों? बीजेपी से उनकी करीबी जगजाहिर है

राज्यसभा की तीन सीटों के लिए आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों के एलान ने कई बड़े सवाल खड़े किये हैं। आखिर दो बाहरी लोगो को राज्यसभा भेजने की पीछे केजरीवाल की मजबूरी क्या है?

Rakesh Kayasth

नेता वही बड़ा होता है, जो असहमत सहयोगियों को भी साथ लेकर चल सके. संगठन वही कामयाब होता है, जो परस्पर विरोधी विचार वाले सदस्यों को जोड़े रख पाए. राजनेता के रूप में केजरीवाल की परिपक्वता और संगठन के रूप में आम आदमी पार्टी की मजबूती इन दोनो की परीक्षा राज्यसभा की 3 सीटों के उम्मीदवारों के नाम के ऐलान के साथ होनी थी. क्या केजरीवाल इस इम्तिहान में पास हो पाए?

जिन नामों का ऐलान हुआ है, उन्हें देखकर तो ऐसा नहीं लगता. आम आदमी पार्टी किन तीन लोगो को राज्यसभा भेजेगी कि इसे लेकर सस्पेंस लंबे समय तक जारी रहा. पार्टी के संयोजक संजय सिंह का नाम लगभग तय था, लेकिन बाकी दो नाम बहुत चौकाने वाले हैं. चंद महीने पहले तक कांग्रेस से जुड़े रहे सुशील गुप्ता को राज्यसभा का टिकट देते हुए 'आप' ने उन्हें कई चैरिटेबल स्कूल चलाने वाला एक समाजसेवी बताया है.


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सवाल यह है कि आंदोलन से निकली एक पार्टी को राज्यसभा भेजने के लिए कहीं और समाजसेवी इंपोर्ट करने की जरूरत क्यों पड़ी? इसी तरह चार्टर्ड एकाउंटेंट नारायण गुप्ता को भी राज्यसभा भेजे जाने का फैसला बहुत चौंकाने वाला है.

आम धारणा यह है कि राज्यसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर पैसे का खेल होता है. इल्जाम कांग्रेस और बीजेपी जैसी देश की तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों पर लगते रहे हैं. आम आदमी पार्टी के लिए यह मौका था कि वह पारदर्शी तरीके से अपने तीन उम्मीदवारों के नाम का ऐलान करके यह संदेश देती कि वह वाकई पॉलिटिकल  कल्चर बदलने के लिए आई है. लेकिन सुशील गुप्ता और नारायण गुप्ता को जिस तरह पैरा ट्रूपर की तरह राज्यसभा में लैंड कराने का फैसला लिया गया है, उससे संदेश यही यही जाता है कि 'आप' और बाकी दूसरी पार्टियां के साथ इस मामले में एक ही धरातल पर हैं.

घटती साख या आंतरिक लोकतंत्र की नाकामी?

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

राज्यसभा सीटों के ऐलान की सुगबुगाहट जिस वक्त शुरू हुई थी, उसी समय यह साफ हो गया था कि केजरीवाल के लिए कोई फैसला आसान नहीं होगा. मीडिया के जरिए कई नेताओं ने अपने उछालने शुरू कर दिए थे. बड़बोले कवि और लंबे समय से रूठे नेता कुमार विश्वास के समर्थकों ने तो बाकायदा जगह-जगह उनके नाम के पोस्टर लगाने शुरू कर दिए थे.

पार्टी नेतृत्व से बड़ी भूमिका की मांग करने में गलत कुछ भी नहीं है. पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में आए आशुतोष समेत आधा दर्जन से ज्यादा नेता ऐसी ही भूमिका की उम्मीद कर रहे थे. लेकिन पार्टी आलाकमान इस बात के संकेत लगातार दे रही थी कि वह राज्यसभा सीटों को लेकर एक सीमा से ज्यादा अंदरूनी खींचतान झेलने की हालत में नहीं है.

इसलिए ऐसे बाहरी नामों की तलाश की जा रही थी कि जिन्हें राज्यसभा में भेजने को लेकर पार्टी के भीतर सवाल ना खड़े हों और `आप’ की छवि भी निखरे. आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और आधार कार्ड योजना के जनक नंदन नीलकेणी का नाम इसी वजह से बार-बार सुनाई दे रहा था.

राज्यसभा उम्मीदवारों के नाम एक एलान के वक्त दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने जो कहा वह काबिल-ए-गौर है. सिसोदिया का कहना है कि देश के लगभग 15 बड़े लोगो से संपर्क किया गया, लेकिन ज्यादातर लोगों ने यह कहते हुए मना कर दिया कि पार्टी से जुड़कर वे अपनी स्वतंत्र छवि को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते.

कुछ लोगों ने यह भी कहा कि ऐसा करना केंद्र सरकार की नाराजगी मोल लेना होगा और इसलिए वे 'आप' के कोटे से राज्यसभा में नहीं जाना चाहेंगे. इसका मतलब यही है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और अर्थशास्त्र से जुड़ी देश की नामचीन हस्तियों की नजर में 'आप' एक ऐसा संगठन नहीं है, जिससे वे जुड़ना चाहेंगे, राज्यसभा भेजे जाने पर भी नहीं.

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सिसोदिया का कहना है कि बड़े लोगों को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाने में नाकामी के बाद सुशील गुप्ता और नारायण गुप्ता का नाम तय किया गया. यह दलील भी अपने आप में अजीब है. बड़े लोग मिले नहीं और अपने लोगों में सर्वसम्मति वाले तीन नाम नहीं ढूंढे जा सके.

इसलिए एक अलग ही रास्ता चुना गया. दो ऐसे लोगों को टिकट दे दिया गया जिन्हे पार्टी के कार्यकर्ता भी ठीक से नहीं जानते! यानी पूरे प्रकरण ने बौद्धिक समुदाय के बीच 'आप' की कम होती साख को ही रेखांकित नहीं किया बल्कि  एक बार फिर यह भी साफ कर दिया कि केजरीवाल आंतरिक लोकतंत्र जैसी किसी चीज में भरोसा नहीं करते.

आंदोलनकारी पार्टी से केजरी एंड कंपनी तक

देश की राजनीतिक संस्कृति बदलने के दावे के साथ पॉलिटिक्स की पिच पर उतरे अरविंद केजरीवाल के लिए आंतरिक लोकतंत्र के मोर्चे पर फेल होने का यह कोई पहला मामला नहीं है. प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के फौरन बाद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के तीन संस्थापक सदस्यों प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार को निकाल बाहर किया था. ये तीनो नेता पार्टी के लिए थिंक टैंक की भूमिका निभाते आए थे और पार्टी के आंतरिक संचालन के तौर-तरीकों में बदलाव की मांग कर रहे थे.

प्रशांत भूषण

जिस वक्त प्रशांत भूषण और उनके साथियों की नाराजगी ने सिर उठाया था, उस वक्त केजरीवाल की लोकप्रियता उफान पर थी. यह मानना कठिन था कि चुनाव ना लड़ने वाले तीन बुद्धिजीवी पार्टी तोड़ देंगे. अगर केजरीवाल इस मामले को कुछ इस तरह हैंडिल कर पाते जिससे सीनियर नेताओं की नाराजगी दूर हो जाती तो यह पार्टी के हित में होता. लेकिन केजरीवाल ने एक ऐसा रास्ता चुना जिसने रातो-रात 'आप’ को आंदोलनकारी पार्टी से एक ऐसे क्षेत्रीय दल में बदल दिया जो सिर्फ अपने क्षत्रप के इशारे की मोहताज होती है.

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अरविंद केजरीवाल की असुरक्षा केंद्र सरकार के साथ खराब होते उनके रिश्तों की वजह लगातार बढ़ती चली गई. कपिल मिश्रा प्रकरण के बाद केजरीवाल और उनके सिपहसलारों ने तय कर लिया है कि पार्टी के भीतर किसी भी ऐसे आदमी को पनपने नहीं दिया जाएगा जिसका अपना एक अलग वजूद हो.

कुमार विश्वास को राज्यसभा न भेजे जाने के फैसले को अजरज के साथ देखना नासमझी होगी. जरूरत से ज्यादा मुखर रहे विश्वास की बीजेपी नेताओं के साथ करीबी भी जग-जाहिर है. सवाल यह है कि विश्वास के पार्टी छोड़ने या ना छोड़ने से 'आप' पर क्या असर होगा. जवाब है- कुछ भी नहीं. ट्विटर की फैन फॉलोइंग और कवि सम्मेलनों की भीड़ कभी राजनीतिक कद का पर्याय नहीं हो सकती. 'आप' 'केजरीवाल एंड एसोसिएट्स'  के तौर पर अपने ढंग से पहले की तरह काम करती रहेगी.

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं. )