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यूपी में 2009 की सुनहरी कामयाबी दोहराने में क्यों नाकामयाब रहेगी कांग्रेस?

फिलहाल कांग्रेस के 2019 में 2009 का प्रदर्शन दोहराए जाने की संभावना नहीं है, बेशक राजनीतिक पंडित जो कुछ भी कहें.

Ajaz Ashraf

बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और समाजवादी पार्टी (एसपी) द्वारा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अपने गठबंधन से बाहर रखने को फैसले पर राजनीतिक पंडित दिलचस्प व्याख्याएं पेश कर रहे हैं. इस तरह के एक राजनीतिक विमर्श का मुख्य आधार यह है कि अगर कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनावों में 2009 की तरह हैरान करने वाला प्रदर्शन दोहराती है, तो बहुजन समाज पार्टी-समाजवादी पार्टी अपने विशेष फायदे से वंचित रह सकती है.

कांग्रेस पार्टी ने 2009 के लोकसभा चुनावों में राज्य में 21 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि समाजवादी पार्टी को 21, बहुजन समाज पार्टी को 20, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को 10 और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) को 5 सीट मिली थी.


सामाजिक परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं

हालांकि, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव में 2009 का प्रदर्शन दोहराए जाने की संभावना नहीं के बराबर है, क्योंकि उत्तर प्रदेश की मौजूदा सामाजिक हकीकत 2009 के दौर से बिल्कुल अलग है. लिहाजा, 2009 का प्रदर्शन दोहराए जाने की संभावना को लेकर विमर्श का ज्यादा मतलब नहीं बनता है. 2009 में राजनीतिक पार्टियों ने लोकसभा चुनावों से पहले अपने कुछ फैसलों के जरिये उत्तर प्रदेश के सामाजिक फलक में उथल-पुथल मचा दी थी.

इनमें एक घटनाक्रम बीजेपी नेता कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी में शामिल किया जाना था. इसके अलावा, राज्य के अग्रणी कुर्मी नेता बेनी प्रसाद वर्मा समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे. तीसरा पहलू 2007 से जुड़ा हुआ था, जब बीएसपी नेता मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग करते हुए बड़ी संख्या में सवर्ण जातियों विशेष तौर पर ब्राह्मणों को अपने पाले में किया था और उस साल का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीता था.

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यह माना गया था कि मायावती की सोशल इंजीनियरिंग उन्हें 2009 के लोकसभा चुनावों में जबरदस्त फायदा पहुंचाएगी. वामपंथी पार्टियों ने मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद तीसरा मोर्चा बनाया था. इस तरह का अनुमान लगाया गया कि मायावती उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से आधी जीतने में सफल होंगी और मोर्चे के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार होंगी.

इस ऐलान की आस में मायावती ने मार्च 2009 में तीसरे मोर्चे के नेताओं के लिए भोज का आयोजन किया. इसके बावजूद अनुमान के विपरीत तीसरे मोर्चे के नेताओं ने उनकी दावेदारी के ऐलान से परहेज किया. दरअसल, इन नेताओं को डर था कि ऐसा करने पर मीडिया भ्रष्टाचार को लेकर उन पर निशाना साध सकता है.

समाज विज्ञानी कांचा इलैया को कड़वे अंदाज में कहना पड़ा, 'सवाल यह नहीं है कि मध्य वर्ग, सवर्ण जातियों के नैतिकतावादी मायावती को किस तरह से देखते हैं. सवाल यह है कि पूरे देश के दलित उन्हें किस तरह से देखते हैं. पूरे देश के दलित उन्हें अपने राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं, जिन्होंने अंबेडकर और कांसीराम की विरासत को अपनाया है.'

हालांकि, मायावती ने कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा नहीं जताई, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अपनी इस महत्वाकांक्षा को लेकर चलने वाली अटकलों को भी खारिज नहीं किया. ऐसे में सवर्ण जातियों ने मायावती की सामाजिक इंजीनियरिंग की उस परियोजना को पलीता लगा दिया, जिसे उन्होंने तैयार किया था. इसके बाद जो सामाजिक उथल-पुथल शुरू हुई, उसके कारण कल्याण सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे घटनाक्रम और और तेजी से होने लगे.

कांग्रेस को बड़े पैमाने पर मिला था ब्राह्मण, कुर्मी और मुसलमानों का वोट

कांग्रेस को इससे फायदा हुआ, क्योंकि यूपीए सरकार ने कई सफल कार्यक्रम पेश किए थे- मिसाल के तौर पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, परमाणु करार आदि और देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत हुई थी. इस तरह से कहा जा सकता है कि आखिरकार यूपीए सरकार से लोगों की संतुष्टि ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिणाम तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

उस वक्त के राजनीतिक घटनाक्रम की और चर्चा करें तो मुसलमान कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी में शामिल करने के मुलायम सिंह यादव के फैसले से काफी नाखुश थे.

नाराजगी की वजह साफ थी- 6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई तो उस वक्त कल्याण सिंह ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. मुलायम को लगा कि मुसलमान उन्हें नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि 1989 और 1991 के बीच अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए उन्होंने अपनी राजनीतिक कुर्सी दांव पर लगा दी थी.

मुलायम का गणित यह था कि वर्मा के समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने के कारण उन्हें कुर्मी वोटों के नुकसान की भरपाई कल्याण सिंह के जरिए हो जाएगी. मुलायम सिंह यादव को लग रहा था कि कल्याण सिंह के जरिए वह अपनी पार्टी के लिए लोध राजपूत (अन्य पिछड़ा वर्ग) का वोट हासिल कर पाएंगे. हालांकि, उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी में शामिल किए जाने का मतलब यह निकाला कि मुलायम रंग बदल रहे हैं.

दरअसल, मुलायम ने मुसलमानों के विचित्र वोटिंग पैटर्न को देखते हुए यह जोखिम उठाया था. इस पैटर्न के मुताबिक मुसलमान वैसी गैर-बीजेपी पार्टी के लिए वोट करते हैं, जिसको किसी क्षेत्र में वहां के सबसे मजबूत जाति समूह का समर्थन रहता है. ऐसा इसलिए कि उन्हें खुद की सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए मजबूत जाति समूह की जरूरत पड़ती है. 2009 में समाजवादी पार्टी के पास कम से कम कागजों पर (खास तौर पर यादवों के लिए) ओबीसी समुदायों के लिए जत्था था.

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मुलायम सिंह यादव के लिए दुर्भाग्य की बात यह रही कि मुसलमानों के पास अचानक से एक और विकल्प आ गया था, क्योंकि अपने वर्चस्व के आदी रहे ब्राह्मण मायावती की प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षाओं से आहत हो गए थे. उन्होंने मायावती को 2007 में इसलिए वोट दिया था, क्योंकि उन्हें लगा था कि उत्तर प्रदेश में सवर्ण समुदाय के वर्चस्व को ओबीसी समुदाय से मिली चुनौती को बेअसर करने के लिए बीएसपी सुप्रीमो सबसे बेहतरीन दांव हैं.

इसके बदले मायावती ने अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल के दौरान सवर्ण जातियों के हितों को बढ़ावा दिया. इसका एक उदाहरण राजनीतिक विज्ञानी ए. के. वर्मा ने अपने पर्चे- मायावती क्यों हारीं (2012 के विधानसभा चुनावों में) में पेश किया था? दरअसल, बड़े पैमाने पर नालियों और साफ-सफाई का काम करने वाले 'वाल्मीकि समुदाय को सरकार की नीतियों के कारण अपने साथ छल जैसा महसूस हुआ, मसलन उपरोक्त कार्यों के लिए सरकारी की भर्ती संबंधी नीति, जिसके तहत ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण जातियों को 25 फीसदी इस तरह की नौकरी मुहैया कराई गई थीं.'

वर्मा के मुताबिक विडंबना यह थी कि सवर्ण जातियों ने अपना काम वाल्मीकि समुदाय के लोगों को आउटसोर्स कर दिया और इसके लिए उन्हें काफी कम रकम देते थे. ब्राह्मणों के लिए मायावती की खातिर वोट करना एक बात थी और प्रधानमंत्री बनने के उनके सपनों का समर्थन करना कुछ अन्य मामला था.

ब्राह्मणों ने 2009 में मायावती की जातीय पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए हैरान करने वाले नतीजे दिए. ब्राह्मण समुदाय को लगा कि देश के सर्वोच्च पद के लिए मायावती की नजर उनका दुस्साहस है. ऐसे में जाति व्यवस्था उनके सर चढ़कर बोलने लगी. ब्राह्मण मायावती को मात देने के लिए काफी उत्सुक थे.

जाहिर तौर पर ब्राह्मण ज्यादातर सामाजिक समूहों से ज्यादा शिक्षित और राजनीतिक रूप से जागरूक हैं. उन्होंने महसूस किया कि उनकी पसंद की पहली पार्टी बीजेपी 2009 में लोकसभा चुनाव जीतने की रास में कहीं नहीं है. लिहाजा, वे कांग्रेस का समर्थन करने की तरफ मुड़ गए, जिसने मजबूत उम्मीदवार खड़े किए थे. ऐसी स्थिति में ब्राह्मणों के साथ सवर्ण समुदाय की अन्य जातियां भी जुड़ गईं.

कांग्रेस के मजबूत उम्मीदवारों में बड़ी संख्या में राजनीतिक विरासत वाले, पूर्व राजा और फिल्मी सितारे थे. जरा इस सूची पर गौर कीजिए- सोनिया गांधी, राहुल गांधी, संजय गांधी, मोहम्मद अजहरुद्दीन, जफर अली नकवी, कुंवर जितिन प्रसाद, राजकुमारी रत्ना सिंह, सलमान खुर्शीद, आर. पी. एन. सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा, जगदम्बिका पाल, पी. एल पुनिया और आचार्य नरेंद्र देव के पोते निर्मल खत्री.

कांग्रेस को बुरे दौर में हमेशा सवर्ण जाति के वोटों का एक हिस्सा मिला. हालांकि, उस दौर में कांग्रेस को इसलिए निर्णायक बढ़त मिली, क्योंकि मायावती फैक्टर के कारण उसके वोट शेयर में सवर्ण जातियों की हिस्सेदारी काफी बढ़ गई. इससे मुसलमानों को भी कांग्रेस का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहन मिला और कुर्मी जाति के लोगों का समर्थन मिलने से पार्टी को और फायदा हुआ.

इस संबंध में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसायटीज के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के कुछ आंकड़े इस तरह हैं-

कांग्रेस को 2009 में ब्राह्मणों के सभी वोटों का 31 फीसदी मिला (2007 के विधानसभा चुनावों में उसे जितना मिला थ, उससे 12 प्रतिशत ज्यादा), राजपूतों का 16 फीसदी (+7 फीसदी), अन्य सवर्ण जातियों का 25 फीसदी (+14 फीसदी), कुर्मियों का 28 फीसदी (+20 फीसदी), गैर-जाटव दलित 26 फीसदी (+11 फीसदी ) और मुसलमान 25 फीसदी ((+11 फीसदी ).

2009 के मुकाबले 2019 की तस्वीर काफी अलग है. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कारण राजपूतों के बढ़ते असर के कारण ब्राह्मणों की बढ़ती नाराजगी का मामला सवर्ण जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण के फैसले के कारण ठंडा पड़ चुका है.

दूसरी तरफ, चूंकि समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी- राष्ट्रीय लोक दल गठबंधन के कारण ओबीसी-दलित एकजुट होंगे, इसलिए सवर्ण जाति के लोगों को लग सकता है कि सिर्फ बीजेपी के जरिये ही उनका थोड़ा सा वर्चस्व सुरक्षित रह सकता है. जाहिर तौर पर बीजेपी आज अलग-अलग समुदायों का वोट हासिल करने के मामले में कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा सक्षम है.

इस तरह की स्थिति का मतलब है कि कांग्रेस को मुसलमानों के वोट का छोटा सा हिस्सा मिलेगा, क्योंकि इस समुदाय के मतदाता वैसी पार्टी का समर्थन करते हैं, जिसे हिंदू के किसे प्रमुख जाति का समर्थन हासिल होता है. इसलिए वे समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी-राष्ट्रीय लोकदल के पीछे जाएंगे. यही वजह है कि फिलहाल कांग्रेस के 2019 में 2009 का प्रदर्शन दोहराए जाने की संभावना नहीं है, बेशक राजनीतिक पंडित जो कुछ भी कहें.