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UAPA कानून के अस्पष्ट प्रावधान इसे दमनकारी बनाते हैं

यह याद रखना चाहिए कि जो लोकतंत्र ऐसे कठोर कानून बनाता है, खुद को एक फासीवादी राज्य में बदल देता है और इसलिए बीजेपी सरकार को अपने राजनीतिक विरोधियों द्वारा इस कानून को बनाकर की गई गलतियों को सुधारना चाहिए

Raghav Pandey

जबकि शहरी शिक्षित भारत इंटरनेट पर मीम (लोकप्रिय कथनों) से खुद को जोड़ने में मशरूफ है, पांच प्रमुख राइट्स एक्टिविस्ट- सुधा भारद्वाज, वेरनॉन गोंजाल्विस, वरवरा राव, गौतम नवलखा और अरुण फरेरा को कथित रूप से ‘अपनी राय जाहिर’ करने के लिए गिरफ्तार किया गया है.

इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि इन एक्टिविस्ट को फिलहाल गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, लेकिन अगली सुनवाई की तारीख तक उनको उनके घरों में हिरासत में रखा जाएगा. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, 'असहमति को खामोश करने, देश भर में कमजोर वर्गों और हाशिए के लोगों की मदद करने से लोगों को रोकने और लोगों के दिमाग में डर पैदा करने की कोशिश की जा रही है.' तब से, ट्विटर पर #NoMoreFakeCharges की बाढ़ आ गई है.


लेकिन विचार करने के लिए आसान सा सवाल है- वह कानून, जिसने उनकी स्वतंत्रता को छीन लिया है, क्या वास्तव में बहुत कठोर है?

विचाराधीन कानून गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट- यूएपीए) है. इसे कांग्रेस द्वारा बनाया गया था और इसका मकसद उन गतिविधियों को रोकना था जो भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा हैं. स्वाभाविक रूप से, इसने देश की तथाकथित संप्रभुता और अखंडता की आड़ में लोगों की बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी को प्रतिबंधित कर दिया गया और अदालतों को हमेशा देश के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रियता से दखल देना पड़ा.

अनुच्छेद 19(1)(ए) से मिला है हर नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार

कानून पर विचार करने से पहले, यह जानना जरूरी है कि अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत भारत का संविधान हर नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार देता है. यह एक प्राकृतिक अधिकार है, जिसका अर्थ है कि हम अपने जन्म के बाद से इसके हकदार हैं, क्योंकि यह ऐसा अधिकार है जिसके बिना मनुष्य के अस्तित्व की पैमाइश नहीं की जा सकती है.

अरुण परेरा (फोटो: पीटीआई)

वैधानिक अधिकारों (जैसे कि अग्रिम जमानत का अधिकार) के विपरीत, जिन्हें किसी भी समय संसद के एक साधारण कानून द्वारा वापस लिया जा सकता है, यह प्राकृतिक अधिकार केवल आपातकाल के दौरान ही छीना जा सकता है, और वह भी सिर्फ निषेधात्मक रूप से.

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लेकिन, यह अधिकार निरंकुश नहीं है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत इसके अपवाद दिए गए हैं. इनमें से कुछ अपवाद हैं- भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था. इस तरह, जैसा कि देखा जा सकता है, यूएपीए की बुनियाद हमारे संविधान में दर्ज राज्य की संप्रभुता के अपवाद पर आधारित थी.

इस कानून में नहीं दी गई है आतंकवाद की परिभाषा

यूएपीए बनने के बाद इसमें कई संशोधन हुए हैं. वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह सरकार ने आतंकवाद निरोधक अधिनियम, 2002 (पोटा), जिसे पूर्व में संसद द्वारा वापस ले लिया गया था, के अधिकांश प्रावधानों को इसमें शामिल करने के लिए संशोधन किया था. इस प्रकार, यह अपनी नाकाम कोशिश को मौजूदा कानून में शामिल करने का एक चालाकी भरा तरीका था. इसके अलावा, मुंबई हमले के बाद 2008 में इसी सरकार द्वारा इसी अधिनियम में फिर संशोधन किया गया. नवीनतम संशोधन वर्ष 2012 में किया गया है.

तो, इस कानून में खामियां क्या हैं? पहली समस्या परिभाषा की धारा के साथ ही है. आतंकवाद की कोई परिभाषा ही नहीं दी गई है. आतंकवादी गतिविधि को धारा 15 के तहत परिभाषित किया गया है और धारा 2 (के) के अनुसार, आतंकवादी की परिभाषा इसी के अनुसार मानी जानी चाहिए. इसमें एक बड़ा शाब्दिक छलावा है क्योंकि यह व्याख्या का व्यापक दायरा प्रदान करता है, जिसका उपयोग और दुरूपयोग उस समय की मौजूदा सरकार द्वारा किया जा सकता है.

वर्णन गोन्सालिविज (फोटो: फेसबुक से साभार)

इसके अलावा, धारा 2(ओ)(ii) के तहत ‘गैरकानूनी गतिविधियों’ की परिभाषा में ऐसी कार्रवाई शामिल है जो भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को अस्वीकार करती है, सवाल उठाती है या बाधित करती है. तो कल को, अगर कोई शख्स डोकलाम गतिरोध को चीन की जीत बताता है, तो, इस तरह की संदिग्ध शब्दावली के तहत, उसे गैरकानूनी गतिविधि में संलिप्त कहा जा सकता है.

बगैर चार्जशीट के 180 दिन तक बढ़ाई जा सकती है हिरासत की अवधि

इसके अलावा, धारा 43डी पर सरसरी नजर डालने से ही कानून की कई खामियां दिख जाती हैं. उपधारा 2(बी) के अनुसार, चार्जशीट दाखिल किए बिना हिरासत की अवधि को 180 दिन तक बढ़ाया जा सकता है. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली उपधारा 5 है, जो अदालत को अधिकार देती है कि अगर उसे लगता है कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ पहली नजर में आरोप सच हैं तो वह सिर्फ केस डायरी या पुलिस रिपोर्ट के आधार पर आरोपी को जमानत देने से इनकार कर सकती है.

इस प्रावधान के खिलाफ सीधा तर्क यह है कि पुलिस डायरी या रिपोर्ट हमेशा अपनी सुविधा के अनुसार तैयार की हुई होगी, जिसमें अभियुक्त को दोषी ठहराया जाएगा.

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सरकार को यूएपीए की धारा 35 के तहत सरकारी गजट में अधिसूचना जारी कर किसी भी संगठन को आतंकवादी संगठन घोषित करने का अधिकार है. यह इस तथ्य की मौजूदगी में है कि कहीं आतंकवाद की परिभाषा मौजूद ही नहीं है. इससे भी बड़ा मजाक यह है कि एक आतंकवादी संगठन की सदस्यता इस अधिनियम के तहत अपराध है, लेकिन सदस्यता को परिभाषित ही नहीं किया गया है.

तो, एक 80 वर्षीय शख्स जो कृषि सुधार की मांग कर रहा है, और एक संगठन का समर्थन करता है जिसे आतंकवादी समूह के रूप में अधिसूचित किया गया है, तो उस शख्स को संगठन का सदस्य माना जा सकता है. हालांकि 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था कि 'सदस्यता' उन मामलों तक ही सीमित है, जहां कोई शख्स हिंसा को उकसाने में सक्रिय रूप से शामिल था.

लोकतंत्र में कठोर कानून बनाना एक फासीवादी राज्य में बदलने जैसा

यह याद रखना होगा कि विचाराधीन प्रावधान जैसा ही प्रावधान, अब खत्म हो चुके टाडा और पोटा अधिनियम में भी था, जिसका प्रयोग करके गुजरात और पंजाब में कई गलत गिरफ्तारियां की गई थीं.

वरवरा राव (फोटो: फेसबुक से साभार)

अभी एक दिन पहले ही, फ़र्स्टपोस्ट की एक रिपोर्ट में बताया गया था, कि पंजाब सरकार ने राज्य के लिए आईपीसी की धारा 295एए में संशोधन करने का प्रस्ताव दिया है ताकि धर्मग्रंथों के अपमान को आजीवन कारावास के साथ दंडनीय बनाया जा सके. अगर ऐसे कृत्य और संशोधन लागू किए जाते हैं तो यह लोकतंत्र के लिए अप्रत्यक्ष खतरा बन सकता है.

यह याद रखना चाहिए कि जो लोकतंत्र ऐसे कठोर कानून बनाता है, खुद को एक फासीवादी राज्य में बदल देता है और इसलिए बीजेपी सरकार को अपने राजनीतिक विरोधियों द्वारा इस कानून को बनाकर की गई गलतियों को सुधारना चाहिए.

(राघव पांडे नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, मुंबई में कानून के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. नीलाभ बिस्ट नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, मुंबई में कानून के चौथे वर्ष के छात्र हैं)