ऐसा लगता है कि देश में उदारवादी लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता खत्म होने के कगार पर है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों और वकीलों की हाल में हुई गिरफ्तारी से इसके साफ संकेत मिल रहे हैं. देश के कुछ शहरों से सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवर राव, वर्नोन गोंजालवेज और अरुण फरेरा जैसे लोगों की गिरफ्तारी यह बयां कर रही है कि जल्द हम देखेंगे कि असहमति की आवाजों को अस्थाई रूप से चुप करा दिया जाएगा और विरोध जताने वालों को जेल के अंदर डाल दिया जाएगा, जैसा कि देश में आपातकाल में या जर्मनी में नाजियों के शासन के दौरान देखने को मिला था.
गोएबल शैली में फैल रहा है प्रोपगैंडा
मौजूदा हालात उस माहौल की अगली कड़ी हैं, जो हिंदुत्व के नाम पर घृणा फैलाने वाले भाषणों, सांप्रदायिक 'दंगों' (वास्तव में दंगे नहीं बल्कि एकतरफा हमले), कथित गौरक्षा, मुसलमानों की पीट-पीटकर हत्या कर उनके दिमाग में डर पैदा कर बनाई गई है. इसके अलावा, संस्थाओं के भगवाकरण, मीडिया के आतंकीकरण और लिबरल (उदारवादी) बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को परेशान करने से भी यह माहौल बना है. मीडिया का एक हिस्सा चापलूस और पूरी तरह से पक्षपाती हो चुका है और यह गोएबल शैली में प्रोपगैंडा फैला रहा है. खास तौर पर कुछ टीवी चैनल ऐसा कर रहे हैं. वे 'राष्ट्र-विरोधियों', 'शहरी नक्सलियों' आदि के खिलाफ लगातार जहर उगलते रहते हैं, जिससे इस तरह की स्थिति देखने को मिल रही है.
जनवरी 1933 में हिटलर के सत्ता में आने पर जर्मनी जो हुआ, उस घटनाक्रम से हम देश की मौजूदा स्थिति में समानता ढूंढ सकते हैं.
उस वक्त जर्मनी दुनियाभर में संस्कृति और पढ़ाई-लिखाई का एक अहम केंद्र था और इस देश के अकादमिक का हर जगह काफी सम्मान था. वेमार रिपब्लिक दुनिया की सबसे मुक्त लोकतांत्रिक इकाइयों में से एक था. हालांकि, यह सब कुछ काफी तेजी से बदल गया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन किया गया. विरोध-प्रदर्शन करने वालों को गिरफ्तार कर 'कॉन्सन्ट्रेशन कैंपों' में भेज दिया गया, यहूदी और वापमंथी प्रोफेसर को बर्खास्त किया जाने लगा. ऐसे में कई प्रोफेसरों ने अपनी सुरक्षा के लिए पलायन करने यानी बाहर जाने का विकल्प चुना, जबकि कइयों ने नाजी सरकार के सामने सरेंडर कर दिया और अपनी दुगर्ति से बचने के लिए नाजी समर्थक बन गए.
बुद्धिजीवियों और मीडिया को चुप करा दिया गया है
बुद्धिजीवियों को उनकी नौकरी जाने का खतरा दिखाकर आसानी से चुप कराया जा सकता है. भारत में आज ऐसा ही कुछ हो रहा है. भीमा कोरेगांव में फंसाए गए इन लोगों की गिरफ्तारी के खिलाफ भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलजों के प्रोफेसरों की तरफ से नहीं के बराबर विरोध-प्रदर्शन देखने को मिल रहा है. मीडिया की आवाज को चुप करा दिया गया है और जल्द वह इस हालात से सामंजस्य बिठा लेगा.
हकीकत यह है कि भारत का आम आदमी सिविल लिबर्टी (नागरिक स्वतंत्रता) या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में ज्यादा परवाह नहीं करता और वह वास्तव में खुद और अपने परिवार का पेट भरने को लेकर चिंतित रहता है. इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में देश में लगाई गई इमरजेंसी के दौरान यह साबित हो गया था. उस वक्त इमरजेंसी के खिलाफ नहीं के बराबर विरोध-प्रदर्शन हुए थे और इसकी बजाय 'इमरजेंसी के फायदे', ट्रेनों के सही समय पर चलने आदि की बात हो रही थी. इमरजेंसी में जनता द्वारा बड़े पैमाने पर किसी तरह का प्रदर्शन या खुला विरोध नहीं दिखा था. साथ ही, जैसा कि आडवाणी ने कहा था, जब प्रेस को सिर्फ झुकने के लिए कहा गया, तो वो रेंगने लगे.
1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी की हार इमरजेंसी के दौरान नागरिकों के अधिकारों की आजादी के दमन के कारण नहीं हुई थी. उनकी हार नसबंदी और जबरन बंध्याकरण के कारण हुई थी. दरअसल, दक्षिण भारत में कांग्रेस का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा था, जहां नसबंदी नहीं लागू की गई थी. हालांकि, उत्तर भारत में कांग्रेस पूरी तरह से साफ हो गई थी, जहां नसबंदी अभियान चलाया गया था.
बुद्धिजीवियों के चुप होने की वजह भी है
भारत की आबादी में बुद्धजीवियों की संख्या 5 फीसदी से ज्यादा नहीं है और सिर्फ यही तबका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी और नागरिक स्वतंत्रता के अन्य मामलों को लेकर चिंतित है. हालांकि, मध्य वर्ग से ताल्लुक रखने वाले बुद्धिजीवी मध्यवर्गीय सुविधाओं के आदी हैं. उन्हें इन सुविधाओं से वंचित करने की धमकी दिए जाने पर इनमें से ज्यदातर तुरंत सरेंडर कर देंगे. भारत में ठीक यही हो रहा है. हालांकि, यहां अचानक से कुछ नहीं हो रहा है, जैसा कि जर्मनी में हुआ था. यहां धीरे-धीरे ऐसा हो रहा है.
इस पूरे घटनाक्रम के सिलसिले में बात करें तो सच यह है कि भारत में बुद्धिजीवी और 'उदारवादी' लंबे समय से अच्छी नौकरी की सुविधा उठा रहे हैं. प्रमुख विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों को ऊंचा वेतन के अलावा कई तरह के भत्ते भी मिल रहे हैं. मीडिया में शीर्ष पदों पर मौजूदा लोग मोटे पैकेज (सालाना करोड़ों में) का सुख भोग रहे हैं. बड़े वकील, डॉक्टर और अन्य प्रोफेशनल सुविधाभोगी जीवन बिता रहे हैं. वे इन तमाम सुविधाओं को गंवाना नहीं चाहेंगे. लिहाजा, धमकी मिलने पर वे न सिर्फ रेंगेंगे, बल्कि साष्टांग भी करेंगे.
बुद्धिजीवी और उदारवादी तार्किकता के सिद्धांत में यकीन रखते हैं. हालांकि, नाजी जर्मनी में एस ए और एस एस की तरह तार्किकता फासिस्ट गुंडों या कथित गौरक्षकों और भगवा रंग में रंगी सरकार की ताकत का मुकाबला नहीं कर सकती. भारत में बोलने की आजादी, उदारवाद और उन्मुक्त बौद्धिकता के दिन जल्द खत्म होने वाले हैं.
(मार्कंडेय काटजू सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज हैं)
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