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यूपी की दलित राजनीति, ग्राउंड रिपोर्ट (पार्ट 5): दंगे वाले शहर के दलितों ने एक मस्जिद को अपने घर में जगह दी है

तमाम मुश्किलों और राजनीति के बीच अकबरगढ़ ने मिसाल कायम की है. दंगों वाले शहर से थोड़ी दूर एक गांव ने मुसलमानों की मस्जिद भी बचा रखी है और अपना नाम भी

Vivek Anand

एडिटर नोट: बीजेपी, इसकी वैचारिक शाखा आरएसएस और दलितों से पहचानी जानी वाली पार्टियां यहां तक कि बीएसपी भी, पिछले कुछ महीनों में दलित समुदाय से दूर हो रही है. इस समुदाय ने भारतीय राजनीतिक पार्टियों और समाज में खुद को स्थापित करने का नया रास्ता खोजा है. फ़र्स्टपोस्ट यूपी में घूमकर दलित राजनीति का जायजा लेगा. गांवों, शहरों और कस्बों में क्या है दलित राजनीति का हाल, जानिए हमारे साथ:

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुजफ्फरनगर जिला 2013 के हिंदू-मुस्लिम दंगों में बुरी तरह से झुलसा था. यहां के दामन से दंगों के दाग अब भी फीके नहीं पड़े हैं. किसी अजनबी से बात करते हुए यहां के लोग खुदबखुद उस वाकये को याद करने लग जाते हैं. जब हम यहां की दलित राजनीति की पड़ताल करने निकले तो सबसे पहले जानकारी मिली 2 अप्रैल को हुए भारत बंद में हिंसा की.


मुजफ्फरनगर में 2 अप्रैल के भारत बंद में हजारों दलित शहर में इकट्ठा हुए थे. शहर के नई मंडी थाने पर दलितों की भीड़ और पुलिस के बीच आमने-सामने की लड़ाई हुई थी. पुलिस फायरिंग में एक दलित युवक की मौत हो गई थी. थाने पर हमले के पीछे भीम आर्मी का हाथ बताया गया था. 2013 के दंगों के बाद पहली बार शहर में इतना बड़ा बवाल हुआ था. तो क्या ऐसे हंगामे वाले वाकये ही इस शहर की पहचान हैं? यहां के दलितों के भीतर किस तरह की बेचैनी है? वो राजनीति में आ रहे बदलाव को किस नजरिए से देखते हैं. हमने इन सारे सवालों के जवाब पाने के लिए शहर से थोड़ी दूर दलित बहुल इलाके अकबरगढ़ का रुख किया. हमें कुछ चौंकाने वाली जानकारी मिली.

70 फीसदी दलित, लेकिन इसलिए है खास

2011 की जनगणना के मुताबिक, मुजफ्फरनगर की कुल आबादी 4 लाख के करीब है. इनमें 52 फीसदी हिंदू और 41 फीसदी मुसलमान हैं. दलितों की आबादी 7.3 फीसदी है. मुजफ्फरनगर में 6 विधानसभा क्षेत्र आते हैं- मुजफ्फरनगर, बुढ़ाना, खतौली, मीरापुर, पुरकाजी और चरथावल. सभी 6 विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी के विधायक हैं. मुजफ्फरनगर शहर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर बसा अकबरगढ़ गांव चरथावल विधानसभा क्षेत्र में आता है.

डेढ़ हजार की आबादी वाले अकबरगढ़ गांव में 70 फीसदी लोग दलित समुदाय से आते हैं. गांव तक सड़क पहुंची है लेकिन टूटी-फूटी हालत में. लेकिन भीतर की गलियां पक्की हैं. गांव में कुछ पुराने तो कुछ नए अच्छी तरह से बने मकान हैं. गरीबों और मध्यमवर्गीय परिवारों की मिली-जुली आबादी है. अकबरगढ़ में घूमने के दौरान हमें एक घर के सामने कुछ लोग मिल जाते हैं. दोपहर के वक्त अपनी चर्चा में मशगूल इन लोगों को मैं अपने सवाल से टोकता हूं- ‘इस गांव में ऐसा कुछ खास है, जो इसे दूसरे आम गांवों से अलग बनाता हो.’ लोग सामने बिछी चारपाई पर बैठने का इशारा करते हैं. इसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ता है.

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अकबरगढ़ गांव खास है आजादी से पहले बने एक मस्जिद के लिए. मेरे लिए चौंकने की बारी तब आती है, जब गांव वाले बताते हैं कि यहां एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है. बिना मुस्लिम आबादी के इस मस्जिद में रोज नमाज पढ़ी जाती है. गांव के लोग ही मस्जिद की देखरेख करते हैं. टूट-फूट होने पर यहीं के लोग ही पैसे इकट्ठा करके मरम्मत करवाते हैं.

हाल ही में लोगों ने मस्जिद के रंग रोगन के लिए फंड इकट्ठा किया है. मस्जिद को थोड़ा निखारने की तैयारी चल रही है. पास के ही एक गांव से यहां रोज एक इमाम आते हैं. इमाम अली मोहम्मद कहते हैं, ‘मैं यहां के लोगों का एहसानमंद हूं. ये लोग मेरा पूरा ख्याल रखते हैं. मुझे कभी लगा ही नहीं कि यहां मुस्लिम बिरादरी नहीं है और मैं गैरधर्म के लोगों के बीच हूं.’ ये गांव दलित-मुस्लिम एकता की मिसाल है. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में भी यहां के हालात नहीं बिगड़े. एक भी अप्रिय घटना नहीं हुई.

अकबरगढ़ की मस्जिद.

मस्जिद को हटाने और गांव का नाम बदलने को लेकर हुई है बहस

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि माहौल बिगाड़ने की कोशिश नहीं हुई. ओबीसी जाति से आने वाले और पेशे से वकील मोहित पाल कहते हैं,‘ हमें कई मौकों पर भड़काने की कोशिश हुई. कुछ बाहरी लोगों ने मस्जिद पर सवाल उठाए. आज तक इतने लोग आए लेकिन कोई मस्जिद को टच नहीं कर सका. यहां तक की गांव का नाम बदलने का प्रयास भी हुआ. कुछ हिंदूवादी संगठनों ने कहा कि गांव का नाम अकबरगढ़ से बदलकर प्रतापगढ़ रख लो. लेकिन गांव वाले बहकावे में नहीं आए. सबकी एक ही राय थी कि गांव का नाम अकबरगढ़ ही रहेगा और मस्जिद से भी कोई छेड़छाड़ नहीं होगी.’

यहां से होकर गुजरने वाले लोग कई बार रात हो जाने पर मस्जिद में आश्रय लेते हैं. मोहित पाल कहते हैं कि मस्जिद के साथ ही गांव में एक पुराने पीर बाबा की मजार भी है. पिछले दिनों उन्होंने अपने पैसे खर्च करके मजार की बाउंड्री वॉल बनवाई है. यहां के लोग इसे विरासत के बतौर सहेज कर रख रहे हैं.

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गांववाले बताते हैं कि अकबरगढ़ आसपास के गांवों के दलितों का नेतृत्व करता है. दलितों को एकजुट करने में ये गांव हमेशा से आगे रहा है. पिछले 2 अप्रैल को दलितों के बुलाए भारत बंद में इस गांव के बच्चे-बच्चे ने हिस्सा लिया था. दलित समुदाय से आने वाले स्लेक चंद कहते हैं,‘ 2 अप्रैल को हमने शांतिपूर्ण ढंग से विरोध प्रदर्शन किया था. यहां से पैदल मार्च शहर तक निकला था. कानून के दायरे में रहकर हमने अपनी आवाज बुलंद की थी.’

शब्बीरपुर गांव में हिंसा का असर यहां भी

बातचीत के बीच में ये कहते हैं कि अकबरगढ़ शिक्षित गांव हैं. यहां कोई जातीय भेदभाव नहीं होता. अपने अधिकारों को लेकर यहां के दलित जागरूक हैं. सहारनपुर का शब्बीरपुर गांव, जहां पिछले साल दलितों और ठाकुरों के बीच हिंसा हुई थी, इस गांव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है. यहां के कई दलितों के रिश्तेदार वहां रहते हैं. इसलिए उस हिंसा का असर यहां तक हुआ. स्लेक चंद कहते हैं,‘ शब्बीरपुर की घटना ने पूरे भारत के दलितों को बदल दिया. पूरे देश में उसका असर देखा गया. हमने भी उस घटना का पुरजोर विरोध किया.’

बाएं से स्लेक चंद और मोहित पाल.

मैं पूछता हूं कि आपका लीडर कौन है, किसकी अगुआई में आपलोग ये करते हैं. स्लेक चंद जवाब देते हैं, ‘हमारा लीडर है अखबार. यहां रोज अखबार आता है. घर-घर में लोग अखबार से देश का हाल जानते हैं. यहां सब लीडर हैं.’ गांववाले बताते हैं कि यहां सब बीएसपी के वोटर्स हैं. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कुछ लोगों ने मोदी के चेहरे पर भी वोट दिया था. अब ये सब बीजेपी से नाराज दिखते हैं. दलित समुदाय के युवक शिवकुमार ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. सहारनपुर के किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज से बीटेक की पढ़ाई करने के बाद भी इन्हें कोई सरकारी नौकरी नहीं मिली. प्राइवेट जॉब करने को राजी नहीं दिखते, इसलिए खेतीबाड़ी कर रहे हैं. शिवकुमार कहते हैं, ‘इस गांव में सारे काम बीएसपी के राज में हुए है. बिजली भी उसी वक्त आई. बीएसपी का शासन खत्म होने के बाद एक हैंडपंप तक नहीं लगा है. नेता सोचते हैं कि बहनजी का गांव है, इसलिए कोई काम नहीं करते.’

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दलितों के बीच सरकार के अच्छे कामों का संदेश पहुंचाने के लिए चलाए जा रहे ग्राम स्वराज अभियान में यहां कोई बीजेपी नेता नहीं आया. गांववाले कहते हैं कि यहां कभी कोई नेता आता ही नहीं. बीएसपी से जुड़े गुलबीर यहां छोटी-मोटी मेडिकल प्रैक्टिस करते हैं. गांववाले इन्हें डॉ गुलबीर बुलाते हैं. डॉ गुलबीर इलाके की राजनीतिक नब्ज पर अच्छी पकड़ रखते हैं.

भीम आर्मी के सफल होने पर भरोसा नहीं

उनसे मैं पूछता हूं कि क्या इस इलाके में भीम आर्मी का प्रभाव है और अगर भीम आर्मी राजनीति में उतरी तो दलितों के राजनीतिक समीकरण पर असर पड़ेगा? डॉ गुलबीर कहते हैं,‘ यहां भीम आर्मी का कोई खास असर नहीं है. भीम आर्मी एक सामाजिक संगठन है. सामाजिक संगठन बनाना अलग बात है और राजनीतिक संगठन बनाना अलग. सामाजिक संगठन के तौर पर उनका फैलाव है. लेकिन अगर वो राजनीति में आए तो फेल होंगे.’ वो कहते हैं कि भारतीय किसान यूनियन से मजबूत संगठन कोई नहीं हो सकता. लेकिन जब वो राजनीति में आए तो खतौली से सिर्फ 9 हजार वोट मिले. वो फेल रहे.

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पिछले दिनों बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने भीम आर्मी को आरएसएस का एजेंट बताया था. इसके पीछे की कहानी को समझाते हुए डॉ गुलबीर कहते हैं कि जैसे ही बहन मायावती को लगा कि दलित भीम आर्मी के पीछे जा रहे हैं. उन्होंने कह दिया कि भीम आर्मी आरएसएस का एजेंट है. दलित आरएसएस के पीछे जा ही नहीं सकता. कांग्रेस से इनका जुड़ाव हो सकता है. हालांकि वो ये भी जोड़ते हैं कि भीम आर्मी के बड़े लीडरों से संकेत मिला है कि वो मायावती को ही सपोर्ट करेंगे.

यहां इस बार गन्ने की फसल गांव में ही सूख गई है. मिल मालिकों ने हरियाणा से गन्ना खरीद लिया है.

बीजेपी से नाखुश

अकबरगढ़ के लोग ज्यादातर खेती-किसानी करते हैं. यहां गन्ने की फसल अच्छी तादाद में होती है. गन्ने की फसल को लेकर राज्य सरकार की नीतियों पर गांववाले नाराजगी जाहिर करते हैं. मोहित पाल कहते हैं, ‘कहने को बीजेपी किसानों की सरकार है. लेकिन इसके पहले किसान की दुर्दशा ऐसी कभी नहीं हुई. ट्रॉली में रखी गन्ने की फसल सूख गई लेकिन चीनी मिल मालिकों ने फसल नहीं उठाई. मिल वालों की मनमर्जी चली है. जब मिल वालों को गन्ना चाहिए था तब वो ले रहे थे. जब देखे की आपाधापी से गन्ना गिरने लगा तो उन्होंने फसल लेना बंद कर दिया. हमारी फसलें छोड़कर यहां के मिल मालिको ने हरियाणा से गन्ना लिया है.’ गांववाले कहते हैं कि गन्नामंत्री सुरेश राणा यहीं से हैं. वो ध्यान देते तो हमारा गन्ना ट्रॉली में नहीं सूखता. ये दिक्कत पूरे इलाके में है.

इन तमाम मुश्किलों और राजनीति के बीच अकबरगढ़ ने मिसाल कायम की है. दंगों वाले शहर से थोड़ी दूर एक गांव ने मुसलमानों की मस्जिद भी बचा रखी है और अपना नाम भी. बदले राजनीतिक हालात में ये कम बड़ी बात नहीं है.