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बुरहान वानी की जगह उमर फयाज को कश्मीर का 'पोस्टर बॉय' बनाना होगा

कश्मीर में सेना को ताकत और युवाओं के लिए मरहम की जरूरत है

Sandipan Sharma

भारतीय नजरिये से लेफ्टिनेंट उमर फयाज की कायरतापूर्ण हत्या की तुलना कश्मीर की राजनीति में दो मौकों से की जा सकती है: 1984 में रवींद्र म्हात्रे की हत्या और 1989 में रूबैया सईद का अपहरण.

भारत की संप्रभुता और सम्मान पर हमले के रूप में देखे जाने वाले इन दोनों घटनाओं पर भारत ने अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया की थी. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यूनाइटेड किंग्डम स्थित संगठन ने बर्मिंघम में एक भारतीय राजनयिक रवीन्द्र म्हात्रे का पहले अपहरण किया और फिर उनकी हत्या कर दी. सरकार ने इसका जवाब उस मकबूल बट को फांसी देकर दिया, जिसकी रिहाई भी अपहरणकर्ताओं की मांगों में से एक थी.


तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेकेएलएफ के सह-संस्थापक मकबूल बट को रिहा करने के लिए न सिर्फ अपहरणकर्ताओं से बातचीत करने से इनकार कर दिया था, बल्कि म्हात्रे की हत्या के पांच दिनों के भीतर तेजी से कार्रवाई करते हुए उसे फांसी भी दिलवा दी थी.

दूसरे मॉडल को तब अमल में लाया गया था, जब केद्र में वीपी सिंह की सरकार थी और जिसका समर्थन बीजेपी और वाम दल कर रहे थे. तत्कालीन सरकार रूबैया सईद के अपहरणकर्ताओं के हाथों में खेलती रही. सईद के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद उस सरकार में गृह मंत्री थे, जो बाद में जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री भी बने. सईद ने सरकार पर अपनी बेटी के बदले पांच आतंकवादियों को रिहा करने के लिए दबाव डाला था. जिन आतंकवादियों को रिहा किया जाना था, उनमें से एक मकबूल बट का भाई भी था.

कश्मीर में हर रास्ते पर मुश्किल है

उमर फैयाज के मित्र और संबंधी उसके अंतिम संस्कार में। तस्वीर-समीर यासिर)

मंगलवार की देर शाम आतंकवादियों ने भारतीय सेना के अधिकारी उमर फयाज की हत्या शोपियां जिले में कर दी थी. उनका अंतिम संस्कार बुधवार को ही कर दिया गया.

जैसा कि कश्मीर का इतिहास हमें बताता है, दुर्भाग्य से - बदला और शांतिपूर्ण वार्ता या शर्मिंदगी से समर्पण- दोनों ही मुश्किल विकल्प रहे हैं.

सामान्य तौर पर ऐसा माना जाता है कि बट की फांसी ने उसे कश्मीर के पहले शहीद का दर्जा दिला दिया, उस फांसी से अलगाववाद को हवा मिली और घाटी धीरे-धीरे भारतीय नियंत्रण से बाहर होती चली गयी. इसी तरह सईद की रिहाई ने आतंकवादियों के हौसले को बढ़ाने में बड़ी मदद की और उन्हें विश्वास हो गया कि भारत को अपने घुटनों पर खड़ा किया जा सकता है.

भारतीय आत्मसमर्पण की उस घटना ने कई युवाओं को आतंकवादी समूहों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके अंदर यह यकीन भी दिला दिया कि नई दिल्ली उनके खिलाफ कार्रवाई करने में बहुत कमजोर है.

ऐसे में सवाल उठता है कि कश्मीर में आतंकवादियों की तरफ से मिली इस नई चुनौती पर भारत की प्रतिक्रिया किस तरह की होगी? क्या भारत इसकी प्रतिक्रिया तेजी से देगा और युवा सैनिक अधिकारी की हत्या का बदला लेगा और फिर इस बदले का बदला लेने का एक दुष्चक्र चलेगा?

या फिर क्या भारत इसके लिए अपमान का घूंट पीकर राजनीतिक समाधान का इंतजार करने की कोशिश करेगा ताकि घाटी में उग्र हिंसा, क्रोध और अलगाववाद को और अधिक हवा न मिल सके? जैसा कि हमने पहले भी देखा है कि विकल्प बहुत सीमित है. हर कार्रवाई का परिणाम होता है और इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है.

घाटी में 90 के दशक जैसे हालात बन रहे हैं

भारत की समस्या इस वास्तविकता से बढ़ी हुई है कि घाटी 90 के उस काले दशक की लौटती दिख रही है, जब बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हिंसा, सुरक्षा बलों की हत्या और भारत को समर्थन करने वाले कश्मीरियों की हत्या दैनिक जीवन का हिस्सा बन गई थी. अलगाववादियों के पोस्टर ब्यॉय बुरहान वानी की मुठभेड़ में हत्या ने घाटी में उबाल ला दिया. तोड़-फोड़ की गई, स्थानीय युवाओं का विरोध प्रदर्शन हुआ, दक्षिण कश्मीर के गांवों में आतंकियों के समर्थन में जुलूस निकाले गए और पुलिस, सैनिकों और बैंक कर्मचारियों पर हमले किए गए.

बहन की शादी के ठीक एक दिन पहले फयाज की हत्या कर दी गई. फयाज के अंतिम संस्कार के दौरान कश्मीरियों ने पत्थर बरसाए. उन्होंने उस निष्ठावान जवान की मौत पर शोक जताने के बजाय सेना को उसे उचित सम्मान देने से रोकने की कोशिश की. यह वाकये इस बात की ओर इशारा करते हैं कि घाटी में कैसी हवा चल रही है.

समस्या की जटिलता और परिणाम को ध्यान में रखते हुए भारत के पास ये विकल्प हैं: पहला कि दुश्मन के गढ़ में यानी पाकिस्तान और उसके आतंकी कारखानों पर सटीक कार्रवाई की जाए. दूसरा कि हमारे सशस्त्र बलों और खुफिया एजेंसियों को घाटी से आतंकवादियों को बाहर खदेड़ने के लिए स्पष्ट आदेश मिले. और तीसरा कि कश्मीरियों तक पहुंच बनाई जाए और इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि कश्मीरी लोग घाटी में बड़े पैमाने पर विरोध में न उतरें और वहां के नौजवान बदले और हिंसा के दुष्चक्र में न झोंके जाएं.

ग्राउंड रिपोर्ट: फयाज की हत्या ने बहन की शादी को मातम में बदला

साफ है कि बहुत ढिंढोरा पीटकर शोर मचाने वाले सर्जिकल स्ट्राइक से न तो पाकिस्तान को निराश किया जा सका और न ही पाकिस्तान को उसकी कश्मीर परियोजना से अलग किया जा सका. घुसपैठियों को भारत भेजा जाना अब भी जारी है.

पाकिस्तान हमारी सीमा के अंदर घुसकर भारतीय सैनिकों को मारता है और अलगाववादियों और आतंकवादियों को हथियार और नैतिक समर्थन देता रहता है. भारत ने अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसमें नरेंद्र मोदी और अजित डोवाल ने पाकिस्तान के भीतर की सोच को बदल डाला हो.

लफ्फाजी नहीं ठोस कदम चाहिए

ऐसे में चुनावों और टीवी बहसों में चुनावों को प्रभावित करने के लिए अपने घर में बड़ी-बड़ी बात करने और लोकलुभावन फैसले लेने के बजाय मोदी सरकार को देश की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी. पाकिस्तान की तरफ से अप्रत्यक्ष युद्ध अब इतना गहरा हो गया है और इतना खून बह चुका है कि भारत के सर्जिकल हमलों, सीमा पार से गोलाबारी और बलूचिस्तान को अस्थिर करने वाले खाली दावों के सामान्य बयान देने से पहले लाखों बार सोचना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में सचमुच इन खोखले दावों के बजाय भारत को पाकिस्तान को सबक सिखाने के नए तरीकों को खोजने की जरूरत है.

घाटी में आतंकवादियों, उनके समर्थकों और उनके विचारकों को बाहर निकालने के लिए सेना के हाथ को खोल देने की जरूरत है. केंद्र सरकार को महबूबा मुफ्ती सरकार के पुलिस बल के मुकाबले सुरक्षा बलों को अपनी कार्रवाई चलाने की स्वतंत्रता की अनुमति दी जानी चाहिए.

लेकिन, अगर भारत कश्मीरियों और उनके बच्चों तक अपनी पहुंच नहीं बनाता है और मुख्यधारा के गले लगाने के लिए उन्हें कोई आकर्षक विकल्प नहीं देता है, तो हमलावर तेवर का असर उल्टा भी हो सकता है.

लंबे दौर में भारत आतंकवादियों और अलगाववादियों के जरिए गुमराह होते कश्मीरी युवाओं को अगर शहीद लेफ्टिनेंट फयाज के नक्शेकदम पर चलने के लिए प्रेरित कर सके, तो सही अर्थों में ये उनकी हत्या का सबसे सटीक बदला होगा. अगर भारत घाटी में बुरहान वानी के पोस्टर की जगह फयाज के पोस्टर को लोकप्रिय बना सके, तो यह न सिर्फ आतंकवादियों और पाकिस्तानपरस्ती के खिलाफ एक आदर्श बदला होगा, बल्कि देश के लिए जान देने वाले उस बहादुर सैनिक के प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी.