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कोतवालों के 'करिश्माई' किस्से: बरेली के ऑपरेशन ‘बेजा बड़े साहब’ से लेकर, अपनी ही कोतवाली में धर-दबोचे गए कोतवाल तक!

कहानी में मौजूद झोलों पर नजर डाली जाए तो, सच्चाई में जाने के लिए जरूरत महसूस होती है

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

पुलिस हो या फिर कानून. दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हिंदुस्तान में इन दोनो के ही हाथ बहुत लंबे हैं. अगर यह कहूं कि ‘जुर्म’ को जड़ से काटने के वास्ते इन दोनो संस्थाओं के पंजों की धार भी गजब की पैनी है, तो कोई शक नहीं. बशर्ते, खाकी-वर्दी पहनने वाले इंसान के भीतर ‘शैतानी-सोच’ कुलांचें न भर रही हो! वरना इतिहास गवाह है कि जब-जब खाकी में ‘तिकड़मी-दिमाग’ ने टांग अड़ाई, तब-तब खाकी के कोप का भाजन समाज को ही बनना पड़ा है. भले ही बाद में पुलिस की भी थू-थू कितनी भी क्यों न होती रहे. जब-जब कानून और खाकी की बेजा ताकतों का दुरुपयोग हुआ या फिर किया जाता है, तब-तब इनमें से (कानून और पुलिस) कब, कौन किस पर और कहां भारी पड़ सकता है? इसकी ‘हद’ मापने का ‘पैमाना’ जमाने में अभी तक नहीं बना है.

कोतवालों की करिश्माई कहानियां


बजरिए कोतवालों की ‘करिश्माई’ कहानियां'. पैनी नजर डालने की कोशिश कर रहा हूं. ‘खाकी-वर्दी’ में व्याप्त ‘भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी’ के ‘घिनौने’ खेल पर. पेश यह सच्ची-कहानियां जो आपको बतायएंगीं कि आखिर कैसे कभी-कभी बेखौफ-बेकाबू ‘खाकी-वर्दी’ पर भी बेइंतिहाई ‘वजनदार’ साबित हो सकता है ‘हिंदुस्तानी-कानून.’ शायद कभी-कभी इसी मजबूत कानून के ‘बेजा’ इस्तेमाल की खौफनाक परिणति सामने निकल कर आती होगी. जब तमाम थाने-कोतवाली में कभी अपने मातहत ‘कोतवाल’ पर ‘पुलिस-कप्तान’ भारी पड़ गया? तो कभी दांव पलटने और मौका हाथ आने पर किसी अड़ियल-दबंग ‘कोतवाल’ ने अपने उस्ताद यानि ‘पुलिस-कप्तान’ या उससे भी ऊंचे ओहदे वाले ‘आला-पुलिसिया-उस्ताद’ पर बेहिचक-बेखौफ सवारी-गांठने में लिहाज की कहीं कोई गुंजाईश बाकी नहीं छोड़ी. बीते करीब तीन दशक की पत्रकारिता में खाकी के भीतर छिपी जो, खौफनाक तस्वीर मेरी आंखों ने देखी है. उसे ही मैं हू-ब-हू आज यहां पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं...

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बरेली के ‘बेजा बड़े साहब’ से लेकर ‘शहजादा-कोतवाल’ तक

ऊपर उल्लिखित तमाम पुख्ता सबूतों-तथ्यों की धुरी पर ही घूम रही है ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की यह खास कड़ी. जिसमें जिक्र कर रहा हूं भारतीय पुलिस महकमे में अब से 25 साल पहले (मई 1994) यानि 1990 के दशक में हुए हिंदुस्तानी पुलिस के सबसे चर्चित कहिए या फिर ‘बदनाम’! उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में हुए ऑपरेशन ‘बेजा-बड़े-साहब’. और हाल ही में यूपी के नोएडा ‘शहर-पुलिस’ में हुए हैरतंगेज (चर्चित) और बदनुमा ‘ऑपरेशन-गठजोड़’ का कथित भ्रष्टाचार का यह ढांचा ‘पुलिस-पब्लिक-पत्रकार’ यानि ‘PPP MODEL’ (POLICE PRESS PARTNERSHIP) की बैसाखियों पर खड़ा था.

कहानी में काल, पात्र, समय बदले बाकी सब पुराना

25 साल के लंबे अंतराल में हुए इन दोनो ही ‘ऑपरेशन’ में सिर्फ काल, पात्र, स्थान बदले हैं. दोनों ही कहानियों में कोतवाली-कोतवाल भी मौजूद रहे हैं. कमोबेश दोनो कारिस्तानियों की कहानी भी तकरीबन मिलती-जुलती सी ही है. सिवाए इसके कि पहली बार दबंग कोतवाल अपने आईजी साहब पर सवारी गांठने में कामयाब रहा. इस बार शहर पुलिस कप्तान मातहत मूंछ वाले ‘कोतवाल’ पर सवारी करने में कामयाब हो गया. रात के अंधेरे में कोतवाल साहिब की ही कोतवाली (सेक्टर 20 नोएडा कोतवाली) में घेर-बटोर करा के अपने ही जिले के उस्ताद कप्तान (आईपीएस वैभव कृष्ण) ने मातहत कोतवाल (इंस्पेक्टर मनोज पंत) को कानून और पुलिसिया ‘पॉवर’ की असलियत से रु-ब-रु करा डाला! खुलेआम सर-ए-बाजार.

KK Gautam

मुश्किल है वर्दी में ‘हनक’ बरकरार रख पाना

बरेली के ‘बेजा-बड़े-साहब’ में एक अड़ियल कोतवाल ने अपने ‘बड़े-साहब’ यानि आला-आईपीएस आईजी (रेंज के पुलिस महानिरीक्षक) पर ही ‘सवारी’ गांठ कर साबित कर दिया कि, खाकी में कब कौन किसकी ‘लगाम’ खींच बैठे? वक्त के सिवाए किसी को पहले से नहीं मालूम होता. तो दूसरे मामले में अपनी पर उतरे जिला पुलिस कप्तान यानि एक दबंग आईपीएस (SSP) ने मातहत मगर खाकी-वर्दी की ‘हनक’ में अक्सर बेचैन रहने वाले एक हाई-प्रोफाइल चंद आला-पुलिस-अफसरों के ‘शहजादे-कोतवाल’ को. सर-ए-आम और रंगे-हाथ उसी की कोतवाली में ‘घेर’ डाला! उसी के चंद कथित दलाल-टाइप कथित पत्रकारों सहित ताकि दबंग-दारोगा को समझाया जा सके कि खाकी वर्दी में उसकी ‘औकात’ की हदें आखिर होती क्या हैं?

मई 1994 में बरेली कोतवाली की वो ‘शर्मनाक’ शाम

3 मई 1994 को यूपी के चर्चित और दबंग इंस्पेक्टर कौशल किशोर गौतम यानि केके गौतम ने बरेली जिले की कोतवाली में बहैसियत ‘कोतवाल’ का चार्ज लिया. अफसरों की नजरों में पहले से कड़क रहे अड़ियल इंस्पेक्टर गौतम देहरादून से जबरिया ही ट्रांसफर करके बरेली ले जाकर पटके गए थे. 15-20 दिन की नौकरी में गौतम ने इलाके के बदमाशों और छुटभैय्या नेताओं को खुद की जुबान खोले बिना ही ‘खुलेआम’ समझा दिया कि किसी इंस्पेक्टर की ‘कानून’ की नजर में क्या हैसियत होती है? बशर्ते इंस्पेक्टर भी अगर उसके काबिल हो तो! नए-नए कोतवाल ‘केके’ ने चार्ज लेते ही महकमे के अपने उस्ताद और मातहतों को भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ‘सुना-समझा’ दिया था. ‘बे-वजह छेड़ूंगा नहीं. मुझे जो छेड़ेगा, उसे छोड़ूंगा नहीं.’ वरिष्ठ आईपीएस सुभाष चंद्र गुप्ता उन दिनों बरेली जिले के पुलिस कप्तान यानि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और रेंज के आईजी (परिक्षेत्र पुलिस महानिरीक्षक) थे सी.डी. कैंथ.

कोतवाल के ‘कोहराम’ से रंगे थे शहर के अखबार

25 मई 1994 को सुबह देश के बाशिंदे नींद से जागे तो सब के सब भौचक्के रह गए. विशेषकर बरेली के लोग. सामने मौजूद अखबार के पहले पन्ने पर सबसे ऊपर मोटे हैडिंग्स में मौजूद खबर देख-पढ़कर. हिंदी अंग्रेजी हर अखबार की सुर्खियां थीं....‘शहर कोतवाल गौतम ने अपने ही आई.जी. और उनके शागिर्द सिपाही के खिलाफ दर्ज कराई रिश्वतखोरी की रिपोर्ट.’ ‘बरेली शहर कोतवाल ने अपने ‘उस्ताद’ आईजी को किया कटघरे में खड़ा, खुलेआम जड़ा आतंकवादियों को शरण देने का आरोप!’ ‘कोतवाली में कोतवाल से ही वसूली करने पहुंचा आईजी का फॉलोअर सिपाही हिरासत में.’ ‘बरेली कोतवाल ‘केके’ के खौफनाक कदम में फंसे आईजी सीडी कैंथ!’ आदि-आदि...

Vaibhav Krishna

‘आईजी’ ने सिपाही भेजा कोतवाल से ‘उगाही’ को!

अब 25 साल बाद दबंग इंस्पेक्टर केके गौतम (यूपी पुलिस के रिटायर्ड डिप्टी एसपी) और यूपी के चर्चित वरिष्ठ आईपीएस सी.डी. कैंथ (यूपी पुलिस में एडिश्नल डायरेक्टर जनरल रहे सीडी कैंथ की कई साल पहले मृत्यु हो चुकी है) के बीच खाकी वर्दी में साम-दाम-दण्ड-भेद से तैयार ‘पॉवरफुल’ कलम से शुरू हुई खतरनाक कानूनी जंग ने बरेली शहर में कोहराम मचा दिया. आईजी साहब और उनके कथित मातहत वसूलीदार सिपाही (फॉलोअर) पान सिंह के खिलाफ नामजद एफआईआर दर्ज होने से कोतवाल ‘केके’ ने यूपी पुलिस को खुलेआम आगाह कर दिया था कि उन्हें बे-वजह छेड़ा गया है. इसलिए उन्होंने अपने उस्ताद यानि आईजी और उनके मातहत सिपाही तक को नहीं छोड़ा. केके गौतम का आरोप था कि आईजी, बजरिए अपने विश्वासपात्र रिश्वत-उगाहीदार पान सिंह 30 हजार रुपये का ‘महीना’ मुझसे (केके गौतम) वसूलवाने की नाकाम कोशिश में जुटे थे!’ हांलांकि बबाल-ए-जान बने उस मामले में सीडी कैंथ ने जीते-जी खुद को बेकसूर ही बताया था. यह बात भी यहां उल्लेखनीय है.

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खाकी वर्दी में कंचे नहीं खेले, कानून भी सीखा-समझा

कहने को तो कथित रिश्वत की वसूली के फेर में फंसा आईजी साहब का विश्वासपात्र सिपाही पकड़ा गया. एक आईपीएस दोस्त के गले में कानून का फंदा कसता देख यूपी पुलिस महकमे के चंद आला-उस्ताद कहिए या फिर शातिर दिमाग आईपीएस अफसरों ने शिकायतकर्ता और पीड़ित कोतवाल के.के गौतम को सस्पेंड करवा कर निपटवा दिया. जाहिर सी बात है कि आईजी साहब का दिमाग ठिकाने लगाने की औकात रखने वाले इंस्पेक्टर कौशल किशोर गौतम ने भी पुलिसिया नौकरी में महज ‘कंचे’ ही नहीं खेले थे. सो उन्होंने भी उस्ताद आईजी साहब को बचकर निकल जाने के तमाम संभावित छेद पहले ही बंद कर दिए थे. मय सबूत और गवाहों के. इंस्पेक्टर केके गौतम ने उनके फेर में फंसे आईजी के विश्वासपात्र वसूलीदार सिपाही पान सिंह से हासिल तमाम सबूत पहले ही अपने कब्जे में ले लिए थे.

‘आईजी’ साहब की खुशी को सिपाही का ‘बालहठ’!

तमाम खतरनाक सबूतों में केके गौतम के जरिए कोतवाली परिसर में गुपचुप तरीके से रिकॉर्ड की गई पान सिंह और उनके बीच हुई बातचीत भी थी. खुफिया तरीके से रिकॉर्ड बातचीत में पान सिंह आईजी साहब के लिए 30 हजार रुपया महीना जबरिया वसूलने की जिद पर अड़ा हुआ था. अगर 1994 के उस सनसनीखेज कांड (केके गौतम-सीडी कैंथ कांड) का इतिहास पलट कर पढ़ा जाए तो पता चलता है कि जब आईजी साहब के लिए 30 हजार रुपया महीना वसूली की बात नहीं बनी तो पान सिंह बरेली कोतवाली से निकलते-निकलते उनसे (कोतवाल गौतम) बोला कि उसके (पान सिंह) आने-जाने के खर्चे के बतौर वे उसे कम से कम 100 रुपए का एक नोट ही ‘भेंट’ कर दें!

शिकंजे में फंसे आईजी को छोड़, कोतवाल निपटा दिया!

कोतवाल इंस्पेक्टर कौशल किशोर गौतम के जरिए किए गए ऑपरेशन बरेली के ‘बेजा बड़े साहब’ में फंसे भले ही आईजी सीडी कैंथ थे! हालत मगर पतली, सूबे के बाकी तमाम ‘पुलिसिया-साहिबान’ की थी. सिर्फ यह सोचकर कि न मालूम, अड़ियल इंस्पेक्टर गौतम के निशाने पर अगला कौन सा आला-पुलिसिया-उस्ताद या साहिब आ घिरे? लिहाजा कानूनी शिकंजे में बुरी तरह फंस चुके आईजी साहब को कायदे से ‘तलब’ करने के बजाए! भयभीत आला-पुलिस-अफसरों ने हड़बड़ाहट में (मगर सोची-समझी रणनीति के तहत) कोतवाल गौतम को ही ‘सस्पेंड’ करके उन्हें आगे शांत रहने का अप्रत्यक्ष और नाकाम-इशारा कर दिया! इतना ही नहीं इस कांड से सुर्खियों में आए कोतवाल गौतम को पुलिसिया नौकरी की बाकी बची जिंदगी के तमाम साल खुद को बेदाग या निर्दोष साबित करने के लिए कोर्ट-कचहरियों में धक्के खाने में ही गुजारने को भी विवश होना पड़ा.

पुलिस की नौकरी में अंत तक ‘बबाल’ साथ रहे

‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ ने 1990 के दशक में खुद ही पुलिस महकमे में फैली रिश्वतखोरी-भ्रष्टाचार की ‘माहमारी’ का शिकार डिप्टी एसपी पद से रिटायर के.के. गौतम को तलाश किया. उनसे मिलने का मकसद था, कभी खुद ही रिश्वतखोरी के मामले में संदिग्ध अपने ही आईजी के खिलाफ खुला मोर्चा खोलने वाले गौतम से दो-दिन पहले ही यूपी के हाईटेक शहर नोएडा सेक्टर-20 कोतवाली में आधी रात के वक्त हुए रिश्वतखोरी के ‘तमाशे’ के बारे में बात करना. बकौल केके गौतम, ‘अतीत को याद रखने से वर्तमान और भविष्य दोनो बन-संवर सकते हैं. बशर्ते वो अतीत जो आपको कोई नई सीख-उत्साह हासिल करवाता हो. बरेली में जो कांड हुआ वो पुलिस में उदंडता की पराकाष्ठा थी. जो होना था हो चुका. मुझे जो करना था कर आया. उस कांड से किसने क्या खोया और क्या पाया? नहीं जानता. हां इतना जरूर है कि, मैंने साबित कर दिया कि, मैं जो हूं वही रहूंगा. मुझे बदलने की किसी की कुव्वत बे-वजह ही न कुलबुलाए या कुलांचे मारे. जिंदगी का यही फलसफा पहले था आज भी है.’

सामने आया ही सच है तो जल्दी ‘अलर्ट’ हो पुलिस

महाराष्ट्र में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अलख जगाने वाले. आला-अफसर जी.आर. खैरनार और हिंदुस्तान के कड़क-मिजाज पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की सी शख्शियतों के चहेते के के गौतम के मुताबिक, ‘नोएडा सेक्टर-20 कोतवाली में आधी रात को इंस्पेक्टर मनोज पंत (कोतवाल) और तीन कथित ब्लैकमेलर पत्रकारों की गिरफ्तारी पर फिलहाल कमेंट करना जल्दबाजी होगी. उस कांड के तमाम पहलू ऐसे हैं जिनकी तह तक जाए बिना ही उस पर बोलना बालकों की मानिंद हवा में गुब्बारे फुलाने-उड़ाने सा साबित होगा. बजरिए मीडिया के अब तक जो कुछ सामने आया है, अगर सच वही है तो यूपी पुलिस महकमा जल्दी सोचे कि वो किस दिशा में जा रहा है? वरना महकमे में कई वैभव कृष्ण से आईपीएस और मनोज पंत से कई इंस्पेक्टर-कोतवालों की भीड़ निकल कर सामने आती जाएगी.’

Ajay Pal Sharma

दाल में काला जरूर है वर्ना...!

नोएडा सेक्टर-20 कोतवाली में आधी रात को कोतवाल इंस्पेक्टर मनोज पंत की गिरफ्तारी उन्हीं की कोतवाली में हैरत की बात है. अगर यह कहूं कि जो फंस गया या पकड़ा गया वही चोर! नोएडा में कुछ समय पहले तक तैनात रहे एक आला आईपीएस के चहेते से ज्यादा चर्चित इंस्पेक्टर मनोज पंत दलालों के साथ मय 8 लाख की रकम के साथ गिरफ्तार हुए. कमाई के काले-कारोबार में डटे तीन कथित ब्लैकमेलर टाइप पत्रकार भी कोतवाल के साथ जेल में बंद हैं. मनोज पंत और उनके कथित गुर्गों को दबोचने के लिए 16 घंटे तक चले ऑपरेशन ‘ट्रैप’ में झोल भी कम नहीं है. जमाने ने अभी तक सिर्फ वही सुना है जो गौतमबुद्धनगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (बुलंदशहर हाईवे गैंग रेप कांड में यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के जरिए सस्पेंड किए गए) ने सुनाया और दिखाया.

एक कांड में सौ-सौ झोल मौजूद हैं....

कहानी में मौजूद झोलों पर नजर डाली जाए तो, सच्चाई में जाने के लिए जरूरत महसूस होती है. शर्मनाक प्रकरण में ‘खलनायक’ के रूप में घसीट कर बाहर लाए गए. आज के आरोपी और कल के अड़ियल इंस्पेक्टर मनोज पंत से भी दो-टूक बात करने की. ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके. खाकी वर्दी के मुंह पर कालिख पोत देने वाले इस कांड के बाद से देश में जितने मुंह उससे ज्यादा बाहियाद चर्चाओं का बाजार गर्म है. कुछ लोग तो यहां तक फुसफुसा रहे हैं कि भले ही इंस्पेक्टर मनोज पंत कमतर न रहे हों. मगर कहीं उन्हें अपने पूर्व कप्तान से करीबी और खुद की बेबाकी का खामियाजा तो नहीं भुगतना पड़ा है. वो खामियाजा जिसके बारे में फिलहाल जेल की काल-कोठरी में बंद और कल तक सेक्टर-20 नोएडा जैसी मलाईदार कोतवाली के ‘कोतवाल’ रहे इंस्पेक्टर (अब लाखों रुपए की रिश्वत वसूलने के कथित आरोपी) मनोज पंत ने ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा.

(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)