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क्या आप उस कश्मीरी मुसलमान को जानते हैं जो मुंबई हमलों का असली हीरो था

ऐसा लगता है कि भारत सरकार 26/11 के वीरों के रजिस्टर में एक कश्मीरी मुस्लिम नायक का नाम जोड़ने को इच्छुक नहीं थी.

Praveen Swami

26/11 की देर रात, मध्य दिल्ली में औपनिवेशिक काल की उस उपेक्षित इमारत के सबसे अंदरूनी हिस्से में आवाजों का शोर गहराता जा रहा था: वहां मौत का फरमान लेकर आए लोगों के बीच कूटभाषा में हो रही बातचीत के एक-एक शब्द को सुना जा रहा था, हर आपसी फुसफुसाहट, मौत का हर लम्हा. पूरी रात, कमरे के अंदर आदमियों के एक छोटे ग्रुप को इकट्ठा किया गया था जहां शिकार की अनोखी घेराबंदी जारी थी, 166 लोगों की हत्या की जा चुकी थी और भावशून्य होकर घंटा दर घंटा सब कुछ सुना जा रहा था. कमरे के अंदर से, उन्होंने 26/11 की घटना कोई श्वरीय भावशून्यता के साथ देखी थी: रक्त का बवंडर जिसके शोर को रिकॉर्ड किया जा सकता था, पॉज़ किया जा सकता था, रिवाइंड किया जा सकता था.

अगस्त 2008 में, जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक एजेंट ने लश्कर-ए-तैयबा में घुसपैठ कर ली थी, और इसके कमांडरों के पास 22 सेलफोन सिम कार्ड पहुंचा दिया था, जिन्हें पूरे भारत में ऑपरेशन में इस्तेमाल किया जाना था. कार्ड के नंबर इंटेलिजेंस ब्यूरो वॉच-लिस्ट में दर्ज थे- और जब 26/11 की डेथ स्क्वॉयड ने अपने सेलफोन को चालू किया, तो एक कंप्यूटर भी सक्रिय हो गया.


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ऑटोरिक्शा चालक से जासूस बने शख्स ने सरकारी एजेंसियों के लिए डेथ स्क्वॉयड की कॉल को इंटरसेप्ट करना मुमकिन बना दिया था- और इस तरह, 26/11 में पाकिस्तान की भूमिका को साबित किया जा सका, लेकिन वह शख्स लगभग अनजान ही बना हुआ है. उसे ना तो कभी कोई पदक मिला और न कोई इनाम; इसके बजाय, उसे झूठे आरोपों में तीन महीने के लिए जेल में रखा गया. आतंकवादियों से लगातार खतरे के बीच उसका परिवार अब भी कश्मीर में रहता है.

मुख्तार अहमद शेख के साथ हमारे देश में जो हुआ अगर वह किसी और देश में होता तो उसे राष्ट्रीय घोटाला कहा जाता. यह एक से अधिक अर्थों में 26/11 का अंतिम प्रेत है.

श्रीनगर के रंग पारेस्तान इलाके में जन्मे मुख्तार अहमद शेख का जासूसी की दुनिया से परिचय लगभग संयोगवश ही हुआ था. 1990 के दशक के मध्य में कश्मीर के खूनी विद्रोह की दुनिया में घसीट लिया गया उनका भाई सोच से जेहादी, ड्रग-डीलर और पुलिस मुखबिर के मिले-जुले रूप में कई सालों से जिंदगी जी रहा था. 2006 में शेख के भाई को हिज्ब-उल-मुजाहिदीन ने पुलिस की मुखबिरी के आरोप में कत्ल कर दिया.

शेख कई सालों तक कोलकाता और चेन्नई में ऑटो-रिक्शा चला कर गुजारा करते हुए कश्मीर से दूर रहे थे. लेकिन अब, वह बदला लेना चाहते थे- और इसके बाद तत्कालीन पुलिसमहानिरीक्षक एसएम सहाय के मातहत चल रही एक पुलिस इकाई में भर्ती हो गए.

फिल्मों में जासूसी की दुनिया में तेज रफ्तार कारें, लग्जरी याट, प्राइवेट जेट और अनिवार्य रूप से हसीनाएं होती हैं. यहां अपनी जान खतरे में डालने के एवज में, शेख को फॉलोअर के तौर पर बहुत कम पैसे मिलते थे- फॉलोअर पुलिस में सबसे निचली रैंक है, और बिना माध्यमिक स्कूल की योग्यता वाले व्यक्तियों के लिए उपलब्ध एकमात्र पद है.

साल 2006 से, शेख ने दक्षिणी कश्मीर के साथ-साथ श्रीनगर में मध्य स्तर के लश्कर कमांडरों से संपर्क किया, छिपने का सुरक्षित ठिकाना दिलाया, संदेश लाने-ले जाने का काम किया और ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था की. संगठन ने उस पर भरोसा नहीं किया- लेकिन शेख ने हर इम्तेहान पास किया. पुलिस ने खामोशी से यह सुनिश्चित किया कि जिन इकाइयों के लिए वह काम कर रहे थे, उन्हें कभी निशाना नहीं बनाया गया, कम से कम तब जब उन पर पुलिस का एजेंट होने का शक हो सकता था.

फिर, अगस्त 2008 में, एक असामान्य मांग आई; संगठन को बड़ी संख्या में सिम कार्ड की जरूरत थी, जो कश्मीर के बाहर भी इस्तेमाल हो सकते थे. शेख कोलकाता चले गए, जहां ऑटो-रिक्शाचलाने के दिनों के उनके दोस्त थे, और उन्होंने 22 सिम खरीदे.

श्रीनगर में सहाय ने- जिन्होंने लश्कर में घुसपैठ के लिए कारगर तरीकों की एक श्रृंखला शुरू की थी, खुफिया ब्यूरो के स्थानीय स्टेशन को पत्र लिखा. तत्कालीन खुफिया ब्यूरो स्टेशन के प्रमुख अरुण चौधरी को भेजे पत्र में उन्होंने खरीदे गए सिम के नंबर बताते हुए इनके राज्य से बाहर संभावित इस्तेमाल की चेतावनी दी थी.

फिर, 26/11 हो गया- और खुफिया ब्यूरो हमलावरों की कराची में उनके कंट्रोल रूम से बातचीत रीयल-टाइम में सुनने में सक्षम था, भले ही उन्हें वायस-ओवर-इंटरनेट-प्रोटोकॉल नंबरों से मास्क किया गया था. इन कॉल्स में शीर्ष लश्कर कमांडरों मुजम्मिल भट और जकी-उर-रहमान लखवी की भूमिका का अकाट्य साक्ष्य शामिल था.

हालांकि पाकिस्तान सार्वजनिक रूप से इनकार कर रहा था कि उसका हमलावरों से कोई जुड़ाव नहीं था, और इसके बजाय हमले का आरोप एक भारतीय जेहादी समूह पर लगा रहा था, लेकिन भारत के पास उसके झूठ की पोल खोलने का सबूत था.

26/11 की जांच के दौरान, बृहन्मुंबई पुलिस ने दस आतंकवादियों के डेथ स्क्वॉयड से बरामद पश्चिम बंगाल से खरीदे सिम कार्ड की पहचान की. कोलकाता के एंटी टेररिस्ट स्क्वॉयड ने जल्द ही शहर में रह चुके कश्मीरी मूल के उस शख्स की पहचान कर ली, जिसने इन्हें खरीदा था. उसने उसके दोस्तों की मदद से उन्हें वापस बुलवाया और दिसंबर के शुरू में शेख को गिरफ्तार कर लिया गया.

जम्मू-कश्मीर पुलिस के तीखे विरोध से भी उन्हें कुछ मदद नहीं मिली. खुफिया ब्यूरो को सच्चाई पता थी, लेकिन उसने दखल नहीं देने का फैसला लिया. शेख को बिना जमानत अगले तीन महीने जेल में गुजारने पड़े.

खुफिया ब्यूरो के अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि तत्कालीन प्रमुख नेहचल संधू ने परिस्थितिवश शेख को जेल में सड़ने देने के लिए छोड़ दिया था. सिम कार्ड कोलकाता से खरीदे गए थे, यह खबर मुंबई पुलिस के माध्यम से लीक हो गई थी- और केंद्र सरकार सिम खरीदने वाले शख्स की पहचान करने की पाकिस्तान की मांग की अनदेखी करते नहीं दिखना चाहती थी. इसके साथ ही, यह भी तर्क दिया जाता है कि संधू को शेख के कार्यों को गोपनीय रखना था, और इस तरह एक रणनीति के तहत उन्हें जेल में रहने दिया गया.

हालांकि, कश्मीर पुलिस के अधिकारियों के पास एक लचर धर्मार्थ स्पष्टीकरण है. एक वरिष्ठ अधिकारी का तर्क है, 'सच्चाई यह है कि जासूस नहीं चाहते थे कि कोई जाने कि एक साधारण शख्स ने लश्कर-ए-तैयबा में घुसपैठ करके उनसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण काम किया है.'

खुफिया ब्यूरो के कश्मीर स्टेशन और नई दिल्ली में इसके काउंटर-टेररिज्म डिवीजन के बीच खींचतान, एक तीसरी वजह है जिसने शेख की किस्मत पर ताला जड़ दिया. कुछ अधिकारियों का दावा है कि काउंटर-टेररिज्म डिवीजन, इस बात को लेकर बहुत खफा थी कि उसे सहाय की लश्कर में घुसपैठ की योजनाओं की जानकारी नहीं दी गई थी, और इस तरह शेख को बचाने का उसके पास कोई कारण नहीं था.

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जब तक फाइलें खोली नहीं जातीं या एक उचित जांच की घोषणा नहीं की जाती, सच जानने का कोई तरीका नहीं है. हालांकि शेख 26/11 के हमलों में मदद करने के आरोप में संभावित आपराधिक मुकदमे का सामना करने के लिए तीन महीने तक जेल में कैद रहे, बाद में उन्हें बिना किसी आरोप के रिहा कर दिया गया था. वैसे इस तरह का इंटेलिंजेंस का काम करने के लिए उन्हें किसी भी पदक से सम्मानित नहीं किया गया. ऐसा लगता है कि भारत सरकार 26/11 के वीरों के रजिस्टर में एक कश्मीरी मुस्लिम नायक का नाम जोड़ने को इच्छुक नहीं थी.

इस हमले में एक आतंकी जिंदा पकड़ा गया था. जिसका नाम मोहम्मद अजमल कसाब था.

भारत सरकार कम से कम परिवार को वहां से हटा सकती थी, और शेख को एक सुरक्षित पोस्टिंग दे सकती थी- लेकिन नई दिल्ली में किसी आका के बिना उनके मामले को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं था. सहाय, और शेख को निर्देशित करने में शामिल अन्य अधिकारी- जिन्होंने लश्कर में घुसपैठ के लिए पूरे ऑपरेशन की रचना की थी- वे भी बेपरवाह थे.

सहाय अब सक्रिय पुलिस के काम में शामिल नहीं है, और इसके बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के साथ रणनीतिक मुद्दों पर काम करते हैं.

हालांकि, शेख ने बाद के सालों में भी कश्मीर पुलिस के लिए वह काम करना जारी रखा है जिसे-खुद अधिकारियों के शब्दों में 'बेहद जोखिम वाला' कहा जाता है. अभी 2012 में, उन्हें लश्कर और हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के खिलाफ गुप्त अभियानों की एक श्रृंखला में शामिल किया गया है. शेख के काम से जुड़े हुए जोखिम को देखते हुए एक एक अधिकारी कहते हैं, 'मुझे लगता है कि वह हर रोज वह यह सोचते हुए उठता होगा कि वह मरने वाला है या यह सुनेगा कि उसके परिवार के किसी शख्स को मार डाला गया.'