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बस्तर में मार्च का महीना सुरक्षा बलों के लिए क्यों खतरनाक है?

सरकार के लाख वादों और आश्वासनों के बावजूद नक्सलियों के हमले में क्यों छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा और सुकमा में लगातार सीआरपीएफ जवान मारे जा रहे हैं?

Debobrat Ghose

माओवादियों के गढ़ माने जाने वाले छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में मार्च का महीना सुरक्षाबलों के लिए खतरनाक साबित होता जा रहा है. माओवादियों के सुरक्षाबलों पर अधिकतर बड़े हमले इसी महीने में हुए हैं. मगंलवार,13 मार्च को बस्तर में हुआ हमला इसी कड़ी में शामिल है, जिसमें सीआरपीएफ के 9 जवानों की जान चली गई. इन सभी हमलों का केंद्र सुकमा का इलाका रहा है.

13 मार्च को एक चौंका देने वाले हमले में माओवादियों ने सुकमा में घात लगा कर एक एंटी लैंडमाइन व्हीकल को उड़ा दिया. इसमें सीआरपीएफ के 9 जवान मारे गए और दो लोग गंभीर रूप से घायल हो गए. माओवादियों ने विस्फोट के लिए आईईडी का इस्तेमाल किया था और धमाका इतना जोरदार था कि एंटी लैंडमाइन व्हीकल की भी धज्जियां उड़ गईं.


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सीआरपीएफ के 212वीं बटालियन के 11 जवान, जिसमें गाड़ी का का चालक भी शामिल था, एंटी लैंडमाइन व्हीकल में सफर कर रहे थे. इस धमाके में 11 में से 8 जवानों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई जबकि गंभीर रूप से घायल एक जवान ने अस्पताल जाने के रास्ते में दम तोड़ दिया.

वास्तव में वहां हुआ क्या ?

सीआरपीए के सूत्रों के मुताबिक वहां पहले से सुरक्षाबलों और माओवादियों के बीच मुठभेड़ चल रही थी जबकि दूसरी तरफ माओवादी वहां घात लगा कर बैठे थे. सीआरपीएफ के आधिकारिक बयान के मुताबिक सुकमा जिले में माओवादियों को खत्म करने का अभियान चल रहा है. इसी दौरान माओवादियों और कोबरा बटालियन के बीच मंगलवार को सुबह 8 बचे मुठभेड़ हुई थी. इसी के कुछ देर बाद माओवादियों ने घात लगा कर एंटी लैंडमाइन व्हीकल को आईईडी से विस्फोट करके उड़ा दिया.

सीआरपीएफ के एक अधिकारी ने घटना की जानकारी देते हुए बताया कि मंगलवार की सुबह नक्सलियों के कोबरा बटालियन से मुठभेड़ के दौरान खुद को कमजोर पड़ता देख नक्सली वहां से भाग खड़े हुए.

इसके बाद दिन के लगभग 12.30 बजे नक्सली वापस लौटे और उन्होंने किस्तराम और पलोदी गावों के बीच सीआरपीएफ की 212वीं बटालियन पर घात लगा कर हमला बोल दिया. माओवादियों ने आईईडी विस्फोट करके 212वीं बटालियन की एंटी लैंडमाइन व्हीकल उड़ा दी. माओवादियों ने इस घटना को अंजाम देने के लिए 50 किलो विस्फोटक का इस्तेमाल किया जिससे एंटी लैंडमाइन व्हीकल की भी धज्जियां उड़ गयी.

सुरक्षा में चूक

सुकमा से सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार सीआरपीएफ और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बलों ने ग्रेनेड दागने के अत्याधुनिक हथियार ‘अंडर बैरल ग्रेनेड लॉन्चर’ यानी यूबीजीएल का इस्तेमाल किया. यूबीजीएल एक स्मार्ट और अत्याधुनिक हथियार है जिसका सुरक्षा बल दुश्मनों पर लगातार ग्रेनेड दागने में इस्तेमाल करते है.

सूत्रों ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बलों ने यूबीजीएल से तीन राउंड फायरिंग की लेकिन वो ग्रेनेड फटे ही नहीं. हालांकि सूत्रों के द्वारा दी गयी इस जानकारी की जांच फ़र्स्टपोस्ट ने नहीं की है.

बैलेस्टिक विशेषज्ञों के मुताबिक नक्सलियों से मुठभेड़ के दौरान अगर सुरक्षाबलों द्वारा दागे गए ग्रेनेड फट गए होते तो नक्सलियों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता था. यूबीजीएल की रेंज 400-500 मीटर तक की होती है ऐसे में ये किसी टारगेट किए विरोधियों पर गिर जाए को कई लोगों की मौत हो सकती है.

हमलों के पीछे किसकी साजिश ?

छत्तीगढ़ एंटी नक्सल ऑपरेशन टास्क फोर्स के सूत्र के मुताबिक सीआरपीएफ की 212वीं बटालियन पर घात लगा कर हमला प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के मिलिट्री विंग ने किया था. इस हमले का मास्टरमाइंड हिडमा को बताया जा रहा है जो कि खतरनाक नक्सल पीपुल्स लिबरेश गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के मिलिट्री बटालियन का कमांडर है.

सूत्र के मुताबिक ये हमला नक्सलियों के ‘टेक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैंपेन’ (टीसीओसी) कार्यक्रम का हिस्सा है जिसे वो गर्मी के महीनों में अमलीजामा पहनाते हैं. टीसीओसी सुरक्षा बलों के खिलाफ नक्सलियों की खास रणनीति होती है जिसपर वो अधिकतर गर्मियों के महीने में अमल करते हैं.

इसकी शुरुआत वो मार्च-अप्रैल से करते हैं और इसे अगले तीन चार महीनों तक जारी रखते हैं. जब सशस्त्र नक्सली कैडर सुरक्षा बलों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई करते हैं या फिर कोई रणनीति बनाते हैं तो उनका मकसद होता है कि वो उस इलाके पर अपनी पकड़ मजबूत बना सकें.

ऐसे में वो सुरक्षा बलों के खिलाफ अपनी हिंसक कार्रवाई के लिए गर्मियों की शुरुआत का समय चुनते हैं. इन कार्रवाइयों के माध्यम से नक्सली अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में अपनी पकड़ को और मजबूत करते हैं.

ठीक लगभग एक साल पहले 11 मार्च 2017 को सुकमा के भेज्जी इलाके के कोट्टाचेरु में नक्सलियों के घात लगा कर किए गए हमले में 12 सीआरपीएफ जवानों की मौत हो गई थी. लेकिन ये घटना पिछले साल यूपी चुनावों के परिणामों के शोर में दब गई थी. मंगलवार को किए गए हमले की तरह ही पिछली बार भी सीपीआई (माओवादी) के मिलिट्री बटालियन ने हमले को अंजाम दिया गया था. उस समय हमले की कमान सोनू के हाथ में थी जबकि हिडमा बैकअप दे रहा था.

बस्तर में नक्सली कैडर की दो मिलिट्री बटालियन है. हिडमा के नेतृत्व में एक सुकमा में काम करता है जबकि दूसरा माढ़-कांकेड़-गड़ियाबंद के इलाके से ऑपरेट करता है. हिडमा जो कि अपने छद्म नाम से ऑपरेट करता है उसे गुरिल्ला युद्द की रणनीति में जबदस्त महारत हासिल है और वो बेहतरीन फाइटर और माहिर रणनीतिकार है

सुकमा में ही मार्च में हमले क्यों होते हैं?

दरअसल मार्च का महीना नक्सलियों के लिए टीसीओसी के लिए मौसम के हिसाब से सबसे ज्यादा मुफीद होता होता. ये वो समय होता है जब मौसम बदल रहा होता है और सर्दियों के बाद गर्मियों की आहट सुनाई देने लगती है. इस दौरान पेड़ों से पत्तियां झड़ने लगती है और बिना पत्तियों के पेड़ों के पीछे से नक्सलियों को सुकमा जैसे घने जंगलों में ज्यादा दूर तक नजर आता है. इस दौरान जहां नक्सली घात लगा कर हमला करने की योजना बनाते हैं वहीं सुरक्षा बल नक्सलियों को इस दौरान मार गिराने के फिराक में रहते हैं.

छत्तीसगढ़ के बस्तर में रहने वाले नक्सली मूवमेंट पर नजर रखने वाले विशेषज्ञ आरएस भटनागर के मुताबिक नक्सली हर साल मार्च में ‘जनपितूरी सप्ताह’ मनाते हैं. एक सप्ताह तक चलने वाले इस कार्यक्रम में नक्सली सुरक्षा बलों पर बड़े हमले की रणनीति बनाते हैं. भटनागर के मुताबिक इस कार्यक्रम में सेंट्रल कमिटि और सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो के सभी शीर्ष नेता शामिल होते हैं.

भटनागर का कहना है कि नक्सलियों का मिलिट्री बटालियन सुकमा बेस्ड है. घने जंगलों और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से ये नक्सलियों के लिए स्वर्ग जैसा है. यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ माओवादियों के लिए ये इलाका सुरक्षा बलों पर हमला करने के लिए बिल्कुल सटीक है. जगह के कारण ही नक्सलियों को यहां लगभग सभी बड़े हमलों में सफलता मिल जाती हैं.

मार्च और अप्रैल पहले भी बड़े नक्सली हमलों का गवाह रहे हैं और इन हमलों में सीआरपीएफ के कई जवानों को जान से हाथ धोना पड़ा है. 11 मार्च 2014 को 15 सीआरपीएफ जवान और पुलिसकर्मी मारे गए. 24 अप्रैल को 25 सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर दी गई. 11 मार्च 2017 को 12 जवानों की मौत और 24 अप्रैल 2017 को 26 सीआरपीएफ जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया. इन हमलों के बीच कई छोटे हमलों में भी सुरक्षा बल के जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी है.

क्या बस्तर सीआरपीएफ जवानों की क्रबगाह बन गया है?

सरकार के लाख वादों और आश्वासनों के बावजूद नक्सलियों के हमले में क्यों छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा और सुकमा में लगातार सीआरपीएफ जवान मारे जा रहे हैं? ये एक बड़ा सवाल है जिसे बार-बार पूछा जा रहा है कि क्यों नक्सली हमले में हमारे सुरक्षाबल के जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है?

अब नक्सलियों का गढ़ बस्तर भी सीआरपीएफ या फिर कोबरा बटालियन के लिए नया नहीं रहा है. फिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या कहीं सुरक्षा में बार-बार चूक हो रही है या फिर लापरवाही बरती जा रही है? क्या 12 मार्च जैसी की घटना से बचाव के लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर अपनाया जा रहा है? काउंटर टेरेरिज्म विशेषज्ञ अनिल कांबोज सवाल पूछते हैं कि क्या नियमों के मुताबिक एंटी लैंडमाइन व्हीकल के आगे रोड ओपनिंग टीम चल रही थी?

कांबोज का कहना है कि हर बार नक्सलियों के बड़े हमले में जवानों को खोने के बाद सरकार और सुरक्षा ऐजेंसियां घटना का पोस्टमार्टम करती हैं लेकिन नतीजा सिफर निकलता है. कांबोज के अनुसार अगर कुछ ठोस उपायों को गंभीरता से लागू किया जाए तो इस तरह की घटनाओं में कमी लाई जा सकती है. सब जानते हैं कि मार्च-अप्रैल नक्सलियों के लिए टीसीओसी का समय होता है ऐसे में अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए.

कांबोज का मानना है कि नक्सलियों को एंटी लैंडमाइन व्हीकल के रूट और आने के समय की पूरी जानकारी थी इसी वजह से नक्सलियों ने उस गाड़ी को उड़ाने के लिए भारी मात्रा में विस्फोटकों का इस्तेमाल किया. उस इलाके में एंटी नक्सल अभियान चला चुके कांबोज का मानना है कि इस घटना के पीछे कहीं न कहीं सुरक्षा बलों से चूक हुई है.

इंटेलीजेंस ब्यूरो का कहना है कि उसने इस घटना से पहले ही सुरक्षा बलों को अलर्ट जारी कर दिया था ऐसे में सवाल उठता है कि इसके बाद भी इस चेतावनी की क्यों अनेदखी की गयी. 2017 में ऐसे ही सुरक्षा में चूक की वजह से 25 सीआरपीएफ जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.

क्या नक्सल समस्या का कोई अंत नहीं है?

यूपी के पूर्व डीजी और बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स के मुखिया रह चुके प्रकाश सिंह का मानना है कि जब तक सरकार जंगलों में रह रहे आदिवासियों की समस्या, वन अधिकार कानून और अपनी जमीन छोड़ कर रहने को मजबूर विस्थापित आदिवासियों के पुर्नस्थापन का काम नहीं करेगी तब तक नक्सल समस्या का हल नहीं निकलेगा.

प्रकाश सिंह के मुताबिक धीरे धीरे ये समस्या बड़ी होती जाएगी. सिंह के मुताबिक जब सुरक्षा बलों के ऑपरेशन के बाद क्षेत्र में नक्सली गतिविधियों पर अंकुश लग जाए तो स्थानीय प्रशासन को उस जगह पर पहुंच कर वहां के लोगों को दिल और दिमाग जीतने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. प्रकाश का दावा है कि जहां जहां पर प्रशासन ने काम किया वहां से नक्सली समस्या समाप्त हो गयी लेकिन आज भी ऐसे जगहों की संख्या नक्सल प्रभावित इलाकों के मुकाबले काफी कम है.