‘गोरखपुर में रहना होगा तो योगी-योगी कहना होगा’ यह स्लोगन गोरखपुर के बीजेपी कार्यकर्ता और हिंदु युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं की तरफ से हमेशा सुनने को मिल जाता है. लेकिन, यह स्लोगन अब कमजोर होता दिख रहा है.
नाथ संप्रदाय के गोरखनाथ मंदिर के महंथ योगी आदित्यनाथ का पूरे गोरखपुर क्षेत्र में सिक्का चलता रहा है. उनके संगठन हिंदु युवा वाहिनी का समानांतर काम संघ और बीजेपी की ताकत से अलग भी उनको मजबूत बनाता है. अपनी इसी लोकप्रियता और जमीनी ताकत के दम पर वो लगातार 1998 से अबतक लोकसभा का चुनाव जीतते आए हैं.
विपरीत परिस्थितियों में भी योगी का किला सुरक्षित रहा है. लेकिन, गोरखपुर में अब उनकी हार हो गई है. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा पर हुए उपचुनाव में हार साधारण हार नहीं है. इसे महज दो लोकसभा क्षेत्रों की हार बोलकर टाला नहीं जा सकता और न ही इस हार पर पर्दा डालकर सवालों से मुंह छुपाया जा सकता.
ये हार बहुत बड़ी है. इस हार में बड़ा संदेश छिपा है. इस हार में खतरे की घंटी भी सुनाई दे रही है. इस हार में वह मिथक भी टूट गया है जिसमें योगी अपने-आप को मोदी के बाद बड़े चेहरे के तौर पर सामने लाने में लगे हुए थे. हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय योगी की हार हुई है. मुख्यमंत्री योगी की हार हुई है. गोरखनाथ मंदिर के महंत की अपने अभेद्य किले में हार हुई है और वो भी तब जबकि वो खुद प्रदेश की कमान संभाल रहे हैं.
ये हार इसलिए भी बड़ी है क्योंकि इस वक्त केंद्र में बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने सहयोगी दलों के साथ 80 में से 73 सीटों पर एकतरफा जीत मिली थी. 2017 के विधानसभा चुनाव में 403 में से 312 सीटों पर क्लीन स्वीप कर बीजेपी यूपी में लंबे अंतराल के बाद सत्ता में आई थी.
लेकिन, मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र से योगी आदित्यनाथ के इस्तीफा देने के एक साल बाद यहां उपचुनाव हुआ, जिसमें बीजेपी को मुख्यमंत्री के घर में हार का सामना करना पड़ा.
ये हार गोरखपुर तक ही सीमित नहीं रही. बल्कि, हार फूलपुर में भी हुई है. यहां उपचुनाव प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के कारण हुआ था. आजादी के बाद पहली बार फूलपुर में कमल खिला था. लेकिन, भगवा रंग ज्यादा दिन तक रह नहीं पाया. उपमुख्यमंत्री की सीट भी बीजेपी के हाथ से फिसल गई.
गोरखपुर और फूलपुर दोनों ही क्षेत्रों में बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए प्रतिष्ठा की सीट बनी गोरखपुर में उन्होंने खूब प्रचार किया.1998 से लगातार पांच बार इस सीट से चुनाव जीत रहे योगी आदित्यनाथ को इस बार मुंहकी खानी पड़ी है. वहां इस बार एसपी के प्रवीण निषाद ने बाजी मार ली है.
योगी का करिश्मा क्यों हुआ फेल ?
बीजेपी के उपेंद्र दत्त शुक्ला को हार का सामना करना पड़ा है. हालांकि उपेंद्र शुक्ला योगी आदित्यनाथ की पसंद नहीं माने जाते हैं. उपेंद्र शुक्ला को वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ला का करीबी माना जाता है.
गोरखपुर की राजनीति को समझने वाले इस बात को मानते हैं कि शिवप्रताप शुक्ला की कभी भी योगी आदित्यनाथ से नहीं बनी. दूसरी तरफ, योगी के साथ छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले हरिशंकर तिवारी के साथ भी उपेंद्र शुक्ला के अच्छे ताल्लुकात बताए जाते हैं.
हालांकि बीजेपी के गोरखपुर के नेता-कार्यकर्ता इस हार के पीछे योगी की पसंद का उम्मीदवार नहीं होना भी बता रहे हैं. फिर भी इस सीट पर बीजेपी की हार को सीधे योगी आदित्यनाथ की हार के तौर पर ही देखा जा रहा है.
उधर फूलपुर में भी बीजेपी ने एसपी के नागेंद्र सिंह पटेल के खिलाफ कौशलेंद्र पटेल को उम्मीदवार बनाया. कौशलेंद्र वाराणसी से मेयर भी रह चुके हैं. कोशिश जातीय समीकरण को साधने की थी. लेकिन, यहां भी बीजेपी के लिए दांव उल्टा पड़ गया. अतीक अहमद ने भले ही निर्दलीय चुनाव लड़कर कुछ हद तक चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश की हो, लेकिन, अंत में वही हुआ जिसके कयास लग रहे थे.
इस हार ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की क्षमता पर सवाल खड़े कर दिए हैं. योगी आदित्यनाथ की सरकार चलाने की छवि और उनके विकास के नारे को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. प्रशासनिक अनुभव कम होने के बावजूद उन्हें प्रदेश की कमान दी गई थी. लेकिन, जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए.
दूसरी तरफ, एक फायर ब्रांड नेता और हिंदुत्व के झंडाबरदार की उनकी छवि भी कुछ खास कमाल नहीं कर पाई. हिंदुत्व के पोस्टर ब्वाय योगी आदित्यनाथ की छवि पर एसपी-बीएसपी गठबंधन और जातीय गणित हावी हो गया.
दरअसल, यूपी में सरकार बनने के वक्त से ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच अंदरूनी खींचतान चलती रही है. बीजेपी सूत्रों के मुताबिक, इस खींचतान के चलते भी सरकार ठीक से डिलीवरी नहीं कर पा रही है.
एसपी-बीएसपी का गठबंधन पड़ा भारी
इन चुनाव में एसपी दोनों सीटों पर चुनाव मैदान में थी. लेकिन, एसपी को दोनों सीटों पर बीएसपी का समर्थन मिल गया. बीएसपी के चुनाव मैदान से हटने के बाद जातीय समीकरण को साध कर बीजेपी को रोकने में बड़ी कामयाबी मिलती दिख रही है. बिहार में आरजेडी-जेडीयू की सफलता के बाद से ही (हालांकि बाद में जेडीयू अलग हो गई) यूपी में एसपी-बीएसपी के साथ आने को लेकर कयास लग रहे थे.
मोदी के खिलाफ महागठबंधन बनाने को लेकर तैयारी चल रही थी, इस बार उपचुनाव को इस महागठबंधन से पहले ट्रायल के तौर पर देखा जा रहा था. अब ट्रायल सफल होने के बाद अगले लोकसभा चुनाव के वक्त भी एसपी-बीएसपी के और करीब आने की गुंजाइश बढ़ गई है. इसमें कांग्रेस और आरएलडी भी साथ आ सकते हैं.
क्या से क्या हो गया एक साल में !
पांच दिन बाद 19 मार्च को योगी आदित्यनाथ अपनी सरकार के कार्यकाल की पहली वर्षगांठ मना रहे होंगे, लेकिन, शायद अब एक साल का जश्न न मना पाएं. क्योंकि एक साल बाद हालात ऐसे हैं कि अब वो अपनी सीट भी नहीं बचा पा रहे हैं.
तो क्या योगी सरकार से जनता का मोह भंग हो चुका है या फिर यह मोदी सरकार के खिलाफ नाराजगी है जो लोकसभा के उपचुनावों में सामने आ रही है. उपचुनावों के परिणाम को फिलहाल मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के काम और उनकी हार के तौर पर ही देखा जाना चाहिए.
क्योंकि उनके पद संभालने के एक साल बाद चुनाव हुआ है. इसका मतलब साफ है कि गोरखपुर और फूलपुर की जनता को अपने नुमाइंदाओं से प्रदेश की कमान मिलने के बाद जो उम्मीद थी उन उम्मीदों पर वो खरे नहीं उतरे.
इस बार मतदान प्रतिशत का कम होना इस बात का संकेत है कि बीजेपी के समर्थकों ने इस बार ज्यादा रुचि नहीं दिखाई. उनकी उदासीनता का ही नतीजा है कि गोरखपुर में 49 प्रतिशत वोटिंग हुई जो कि पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में पांच से आठ प्रतिशत कम थी. जबकि फूलपुर में मतदाताओं की उदासीनता तो और ज्यादा थी. यहां उपचुनाव में 38 फीसदी ही वोटिंग हुई जो कि पिछली सरकार की तुलना में 15 फीसदी कम थी.
यूपी के अलावा बिहार में भी हार
यह हार केवल यूपी की इन दो सीटों तक ही सीमित नहीं है. यह हार बिहार के अररिया लोकसभा में भी हुई है. हालाकि अररिया सीट पहले भी आरजेडी के पास ही थी, लेकिन, बिहार में जेडीयू के साथ फिर से गठबंधन होने के बाद यह पहला बड़ा चुनाव था.
इसके अलावा बिहार की जहानाबाद विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी की सहयोगी जेडीयू की हार हुई है. यहां से भी आरजेडी ने एनडीए को हराया है. बीजेपी को महज भभुआ विधानसभा सीट से ही संतोष करना पड़ा है.यानी 14 मार्च को मुकाबला 4-1 से बीजेपी हार चुकी है.
उपचुनावों में हार का सिलसिला जारी है. बीजेपी के लिए लोकसभा की तीनों सीटों पर उपचुनाव इसलिए चिंता का कारण है क्योंकि अभी थोडे़ ही दिन पहले हुए राजस्थान की लोकसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी को बड़ी हार मिली थी. यह दोनों सीटें पहले बीजेपी के ही पास थीं. लेकिन, कांग्रेस ने यहां बीजेपी को पटखनी दी थी.
मध्यप्रदेश की भी विधानसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव में भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था.
2019 के लिए यूपी सबसे अहम
बीजेपी की लगातार उपचुनावों में हो रही हार को लेकर चर्चा हो रही है. क्या मोदी लहर अब काफी कम हो चुका है. क्या इन उपचुनावों के नतीजो को सीधे मोदी सरकार के कामकाज से जोड़ा जाना चाहिए. ये चंद सवाल हैं जिन्हें विपक्ष की तरफ से सरकार को घेरने के लिए जोर-शोर से उठाया जा रहा है.
विपक्ष इसे सरकार की उल्टी गिनती के तौर पर प्रचारित करने में लगा है. लेकिन, बीजेपी को भी अब सचेत होने की जरूरत है. लोकसभा चुनाव में महज एक साल का ही वक्त बचा है. ऐसे में बीजेपी को अपने मजबूत किले में हो रही हार को गंभीरता से लेने की जरूरत है.
वामपंथी किले त्रिपुरा को ध्वस्त कर नॉर्थ-ईस्ट के तीन राज्यों में मिली हाल की जीत ने बीजेपी का ग्राफ काफी बढ़ा दिया था. लेकिन, गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव के नतीजे को हल्के में नहीं लिया जा सकता. ये नतीजे बीजेपी के लिए 2019 के पहले खतरे की घंटी बजाने वाले हैं.
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