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कहीं ये संस्कृत-भाषा पर सियासत तो नहीं...

संस्कृत भाषा पर अगर सरकारों को गंभीरता दिखानी है तो और प्रयास करने होंगे अन्यथा सिर्फ स्कूलों में कोर्स के तौर पर शामिल करना सियासत ही माना जाएगा

Nazim Naqvi

जब कभी संस्कृत-भाषा के प्रचार-प्रसार की बात सामने आती है तो हम जैसे अनगिनत लोगों को अंदर ही अंदर एक सुकून सा मिलता है. बिलकुल वैसे ही जैसे किसी बहुलता के बीच अल्पसंख्यक सरोकारों का दर्द समझने की कोशिश से राहत महसूस होती है.

स्वागत होना चाहिए कि राजस्थान सरकार ने चौथे दर्जे से दसवीं क्लास तक संस्कृत को तीसरी-भाषा के रूप में अनिवार्य कर दिया है. इस फैसले को शक की निगाह से देखने के कई कारण ढूंढें जा सकते हैं, और शायद ढूंढें भी जाएंगे, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि राजस्थान-सरकार के इस फैसले के पीछे जो शक्तियां हैं वह संस्कृत-भाषा से मोहित हैं, उनके लिए इसका कोई और राजनीतिक उद्देश्य नहीं है.


जब हम पढ़ते हैं कि जर्मनी की 14 विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाती है, वहां संस्कृत के बारह-सौ स्कूल हैं, तो हैरत होती है कि ये कौन लोग हैं जो हमसे ज्यादा हमारी ज़बान सीखना चाहते हैं. इसी संदर्भ में, उत्सुकतावश जब हमारी जिज्ञासा और गहरे उतरती है तो हम पाते हैं कि विदेशियों में संस्कृत सीखने की ये रूचि बहुत प्राचीन है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

पश्चिमी-दुनिया से संस्कृत का रिश्ता 17वीं शताब्दी का है. इतिहास में मिलता है कि पुर्तगालियों ने 1651 में भर्तृहरि के कुछ काव्यों का अनुवाद किया. 1785 में चार्ल्स विकिंस ने भगवद्-गीता का तो दाराशिकोह ने उपनिषद् का अनुवाद अंग्रेजी और फारसी में करवाया लेकिन ये तो अनुवाद थे, इनका उद्देश्य शायद संस्कृत में छुपे हुए हमारे प्राचीन-बोध को समझना था, संस्कृत सीखना नहीं.

सवाल तो संस्कृत-भाषा सीखने का है. जैसा कि सद्‌गुरु कहते हैं: संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है जिसकी रचना की गई हो, इस भाषा की खोज की गई है. ये महज संवाद का माध्यम नहीं है, तमिल-भाषा को छोड़कर, दूसरी भाषाओं से इसकी तुलना नहीं की जा सकती.

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संस्कृत का ताल्लुक ध्वनि से है और आधुनिक विज्ञान ये साबित कर चुका है कि पूरा अस्तित्व उर्जा की गूंज है. इसका एक मतलब यह भी है कि हमारा पूरा अस्तित्व, ध्वनि है. जब आपको यह महसूस होता है कि एक खास ध्वनि एक खास आकृति के साथ जुड़ी हुई है तो यह ध्वनि उस आकृति के लिए नाम बन जाती है.

बस यही कमाल संस्कृत ने किया है, उसने हमारे अस्तित्व की आकृतियों की ध्वनियों को खोज लिया है. इस भाषा का पूरा सार उच्चारण (ध्वनि) पर टिका हुआ है. और हमें पूरी शर्मिंदगी के साथ हैरत इस बात पर होती है कि हमसे ज्यादा इसकी समझ विदेशियों को है.

जब विदेशी अपनी खोज के बाद यह दावा करते हैं कि संस्कृत दुनिया की एक मात्र वैज्ञानिक-भाषा है तो हम चौंकते हैं और फौरन एक रटंतू-तोते की तरह चार श्लोक पढ़कर यह धौंस जमाने की कोशिश करते हैं कि ‘देखो हमें संस्कृत आती है’.

हमें याद है, बचपन में संस्कृत से हमारा रिश्ता बस इतना था कि हम इसे ‘स्कोरिंग-सब्जेक्ट’ समझते थे. रट लो और पूरे नंबर पाओ. आगे की कक्षाओं में गए तो संस्कृत की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा. तो आइए फिर उस दर्द की तरफ लौटें कि जिसकी वजह से यह लेख लिखने की हिम्मत पड़ी.

और वो दर्द ये है कि इस भाषा-ज्ञान पर काम कर रही कुछ गंभीर संस्थाओं को छोड़कर, संस्कृत में पठन-पाठन का जो रवैया अभी तक हमारे सामने है वो बहुत चिंताजनक है. वो सभी भाषाएं जिनका सरोकार हमारी रोजी-रोटी से नहीं जुड़ा है, उनका हाल बे-हाल है.

अगर सरकारी कोशिश बच्चों को संस्कृत पढ़ाने की है तो उसे यह समझना होगा कि ये वो बच्चे नहीं हैं जो टाट-पट्टी पर बैठकर, हिल-हिल कर ‘शनैः शनैः गच्छामि’ कंठस्थ कर लेंगे. इसमें रोचकता लानी होगी.

इसके लिए काबिल अध्यापकों की जरूरत होगी. पहले उन्हें पढ़ाना पड़ेगा जो पढ़ाएंगे. नाकारा किस्म के लोग जिन्हें गलती से थोड़ी-बहुत संस्कृत आती है, उन्हें संस्कृत की अध्यापिकी ऐसे मिल जाती है जैसे अंधे के हाथ बटेर.

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सिर्फ एक सरकारी आदेश से कुछ नहीं होगा. इसके लिए गंभीरता चाहिए. और अगर इस गंभीरता के दर्शन नहीं हुए तो हम इसे सरकार की सियासी चाल ही मानेंगे. क्योंकि अगर सरकार को चिंता है तो फिर ये चिंता संस्कृत में आ रही विकृतियों पर भी होनी चाहिए.

सदगुरु ( तस्वीर यूट्यूब से साभार)

जिस चिंता से हजारों सद्‌गुरु विचलित हैं, स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य करने से पहले सरकार को ऐसे संस्थान खोलने चाहिए जो संस्कृत के ऐसे अध्यापक तैयार करें, जिन्हें संस्कृत के साथ-साथ दूसरी भाषाएं भी आती हों. और बच्चों को संस्कृत पढ़ाना उनके लिए मिशन की तरह हो, न कि वह इसे कोई गया-गुजरा काम समझें.

भारतीयता और राष्ट्रीयता की बात करने वाली मोदी-सरकार, योगी, राजे, नितीश और चौहान-सरकार से अच्छा समय इसके लिए कब और क्या हो सकता है? क्या हमें अब इतनी भी समझ नहीं रह गई है कि संस्कृत की घनी छांव तभी मयस्सर होगी जब अंकुर के पास वातावरण से लड़ने की ताकत होगी.