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क्या कहते हैं राजस्थान में छात्रसंघ चुनाव के नतीजे?

ऐसा लगता है जैसे बीजेपी के लिए युवा नेताओं की नई पीढ़ी को तैयार करने के बजाय एबीवीपी खुद ही उन्हें खत्म करने में लगा है.

Mahendra Saini

राजस्थान में छात्रसंघ चुनावों में सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए ही थोड़ी खुशी, थोड़ा गम भरा फैसला छात्रों ने सुनाया है. राज्य में 9 बड़े सरकारी विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से 5 में संघ के छात्र संगठन ABVP ने जीत दर्ज की है तो 4 में विपक्ष यानी 2 में NSUI और 2 में निर्दलियों ने बाजी मारी है.

यूं सतही तौर पर देखने में बीजेपी के लिए ये नतीजे बुरे नहीं कहे जा सकते. लेकिन गहराई में जाने पर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले एक गंभीर चेतावनी जरूर छिपी नजर आती है.


राज्य के सबसे बड़े विश्वविद्यालय यानी जयपुर की राजस्थान यूनिवर्सिटी में अध्यक्ष बने पवन यादव ने एबीवीपी के संजय माचेड़ी को 2656 वोट से हरा दिया. ये यहां यूनिवर्सिटी के इतिहास की सबसे बड़ी जीत है. यादव को ABVP और NSUI, दोनों को कुल मिलाकर हासिल हुए वोटों से भी 42 वोट ज्यादा मिले.

वहीं, जोधपुर की जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी में NSUI की कांता ग्वाला ने 2458 वोट से जीत दर्ज की. कांता को 4911 वोट मिले, जो एबीवीपी समेत उनके खिलाफ खड़े सारे उम्मीदवारों के कुल वोटों से भी ज्यादा हैं.

सत्ता पक्ष की जीत है छोटी!

दूसरी तरफ जिन विश्वविद्यालयों में एबीवीपी के उम्मीदवार जीते हैं, उनकी जीत बमुश्किल हुई लगती है. मिसाल के तौर पर, उदयपुर की मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी में 167, कोटा विश्वविद्यालय में 114 और महाराजा गंगासिंह यूनिवर्सिटी, बीकानेर में महज 51 वोट से एबीवीपी उम्मीदवार जीत पाए हैं.

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इन नतीजों ने एक बड़ा सवाल ये पैदा किया है कि क्या युवाओं के बीच केसरिया खेमे का प्रभाव कम हो रहा है? अगर ऐसा है तो क्या 2018 विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे का सत्ता में लौटना मुश्किल होगा? इन सवालों का जवाब जानने से पहले हमें एक नजर राजस्थान के राजनीतिक वातावरण पर डालनी होगी.

यूं तो राजनीतिक लिहाज से राजस्थान ज्यादा अफरातफरी वाले राज्यों में नहीं गिना जाता. बारी-बारी से बीजेपी और कांग्रेस सत्ता परिवर्तन करती रही हैं. यहां बीजेपी और कांग्रेस के अलावा तीसरी पार्टी की जगह भी अबतक नहीं बन पाई है. हालांकि आजादी के तुरंत बाद से ही राजस्थान संघ परिवार के लिए राजनीतिक प्रयोगशाला की प्रभावशाली भूमिका में रहा है. राजस्थान उन गिने चुने राज्यों में शुमार रहा है जहां आज़ादी के शुरुआती सालों में ही कमल ने खिलने लायक जमीन तैयार कर ली थी.

बीजेपी की नर्सरी है एबीवीपी

हिंदी बेल्ट में कांग्रेस को चुनौती दे पाने की स्थिति इसलिए बन पाई थी क्योंकि संघ परिवार के अग्रिम संगठनों ने बिल्कुल जमीनी स्तर पर लोगों के बीच जाकर काम किया था. इसमें एक बड़ी भूमिका संघ के छात्र संगठन एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की भी है.

एबीवीपी, संघ और बीजेपी के लिए कई तरीके से काम करता है. यह कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों में 'राष्ट्रवादी हिदुत्व' विचारधारा का प्रसार करता है. युवाओं में केसरिया पैठ को मजबूत करता है. साथ ही, बीजेपी के लिए भविष्य के नेताओं की पौध भी तैयार करता है.

लेकिन राजस्थान में पिछले 7 साल के छात्रसंघ चुनावों का विश्लेषण करें तो लगता है जैसे एबीवीपी कहीं न कहीं अपने मुख्य काम में ही नाकाम हो रहा है. राजस्थान में 2010 से छात्रसंघ चुनाव दोबारा से शुरू किए गए. इसके बाद हुए 8 चुनाव में एबीवीपी को वैसी कामयाबी नहीं मिल पाई है, जैसी पहले मिलती रही है.

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कहते हैं, छात्र संघ चुनाव लोकतंत्र में संभावित परिदृश्य का आईना होते हैं. भारत जैसे विपुल युवा आबादी वाले देश में तो ये चुनाव समाज में हो रही राजनीतिक हलचल को प्रत्यक्ष बयां करने का माद्दा रखते हैं क्योंकि ये दिखाते हैं कि युवाओं के बीच सत्ता या विपक्ष में से कौन ज्यादा लोकप्रिय है. लेकिन हालात ये हैं कि 2013 में बीजेपी के 80% सीटों पर प्रचंड जीत के बाद से ही राजस्थान यूनिवर्सिटी में एबीवीपी जीत नहीं पाई है.

इससे पहले 2013 में कांग्रेस सरकार के रहते एबीवीपी की जीत को आने वाले चुनाव में कांग्रेस की हार का संकेत माना गया था. तो क्या वर्तमान नतीजों से इस बार बीजेपी की हार का अंदाज़ा लगा लिया जाए?

राजे सरकार से नाराज हैं युवा वोटर!

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजस्थान यूनिवर्सिटी में एबीवीपी की हार को राजे सरकार के खिलाफ युवाओं की नाराजगी माना जा सकता है. 2013 में बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में 15 लाख नौकरियों का वादा किया था. लेकिन धरातल पर कुछ हजार युवा ही सरकारी नौकरी पा सके हैं. इनमें भी बहुत सी वेकैंसी किसी न किसी मुद्दे पर कोर्ट-कचहरी में उलझी हैं. हां, राजे सरकार स्किल डेवलपमेंट के आंकड़ों को शामिल कर लाखों नौकरियों के सृजन का दावा जरूर करती है.

दूसरे, एबीवीपी की हार में उसकी कार्यशैली भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार है. पिछले 8 चुनाव में कम से कम 2 बार ऐसा हुआ है जब एबीवीपी को उसी के बागी ने हराया. ऐसा लगता है जैसे संगठन अपने उस कार्यकर्ता की पहचान नहीं कर पाता जो छात्रों के बीच लोकप्रिय है. 2016 में अंकित धायल का टिकट काटा गया तो उन्होंने निर्दलीय लड़कर जीत हासिल की और अब 2017 में पवन यादव ने भी बागी बनकर अपने संगठन को करारी शिकस्त दी है.

यह आत्मघाती गोल की तरह है. ऐसा लगता है जैसे बीजेपी के लिए युवा नेताओं की नई पीढ़ी को तैयार करने के बजाय एबीवीपी खुद ही उन्हें खत्म करने में लगा है. वर्तमान में बीजेपी के कई प्रभावशाली नेता एबीवीपी की नर्सरी से ही तैयार हुए हैं. केंद्रीय स्तर पर इनमें अमित शाह, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, नितिन गडकरी, धर्मेंद्र प्रधान प्रमुख हैं तो राजस्थान में कालीचरण सराफ, राजपाल सिंह शेखावत, अशोक लाहोटी और जितेंद्र मीना जैसे नेता शामिल हैं.

अगर लगातार लोकप्रिय छात्रनेता की टिकट एबीवीपी काटती रही तो बीजेपी के लिए युवा नेताओं की नई पीढ़ी तैयार होने में खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.