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फोगाट बहनें गलत कारणों से सुर्खियों में रहीं हैं: नीतेश तिवारी

मैं तो ये कहता हूं कि श्रीमान फोगट पितृप्रधान समाज के नियमों को तोड़ते हैं

Anna MM Vetticad

हाल के दिनों में हरियाणा की फोगट बहनें गलत वजहों से सुर्खियों में छाईं रहीं. दरअसल, दिल्ली की छात्र गुरमेहर कौर के शांतिवादी वीडियो को लेकर सोशल मीडिया पर जारी जंग में कूदने का ये परिणाम था.

जो भी हो फोगट बहनों के सुर्खियों में छाने की वजह सकारात्मक होनी चाहिए थी. जैसे कि डायरेक्टर नीतेश तिवारी की फिल्म दंगल- जिसमें उनकी प्रेरणादायी जीवन की झलक दिखती है. जिसमें दोनों ने एक नया मुकाम हासिल किया.


फिल्म ने 2 मार्च को थियेटर में 70 दिन पूरे कर लिए. आमिर खान अभिनीत इस फिल्म की कहानी कुश्ती के कोच महावीर सिंह फोगाट की जिंदगी की असल कहानी है.

फिल्म में महावीर सिंह फोगाट का किरदार पुरुष प्रधान समाज की सीमाओं के बीच अपनी दोनों बेटियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मेडल जीतने वाली पहलवान बनाने के लिए संघर्ष करते दिखते हैं.

43 साल के तिवारी से मैंने दंगल फिल्म के बारे में बात की. मैंने उनसे उनके फिल्म के सुपरस्टार हीरो के बारे में पूछा. मैंने उनसे फिल्म की उन आलोचनाओं के बारे में पूछा कि- ये फिल्म असल में फेमिनिज़्म की आड़ में घोर पुरुषवादी समाज की गौरवगाथा को पेश करने की कोशिश है.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस जैसे खास मौके पर ये बातचीत काफी महत्वपूर्ण है.

सबसे पहले दंगल के कलेक्शन, अवार्ड और क्रिटिक्स की तारीफों को लेकर शुभकामनाएं.

दंगल फिल्म में काम करने वाली महिला कलाकार

क्या आपको कॉन्टैक्ट स्पोर्टस में रूचि थी या वाकई कहानी ने आपको इतना प्रेरित किया कि आपने ये फिल्म बनाई?

नीतेश तिवारी: पूरी तरह से ये कहानी थी. मैं मध्यप्रदेश में अखाड़ा कुश्ती जो कि कीचड़ में खेला जाता था, उसे देखकर बड़ा हुआ हूं. इसलिए मैं बचपन में ही दंगल देखा हूं. उस वक्त कुश्ती को लेकर प्यार जगा था ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. बल्कि कुश्ती को लेकर उत्सुकता जरूर पैदा हुई थी. तब मैं काफी छोटा था. लेकिन दंगल के प्रति मेरे आकर्षण बढ़ने की मुख्य वजह थी इस खेल के लिए जरूरी साहस, धैर्य, दृढ़ता, मुश्किलों से पार पाने की क्षमता और व्यक्तिगत जीत की खुशी का होना.

नीतेश आगे कहते हैं, 'सिर्फ भावनात्मक पक्ष की वजह से ही बतौर फिल्ममेकर मैं उत्साहित नहीं हुआ. बल्कि कुछ नया करने– कुश्ती जैसे विषय पर फिल्म बनाने की चुनौती वजह से मैंने इस विषय को चुना. जबकि, मैं इस विषय पर कुछ ज्यादा नहीं जानता था.

महिलाओं को लेकर फिल्म दंगल के प्रति लोगों की अलग-अलग राय है. कुछ इसे फेमिनिस्ट फिल्म मानते हैं. कुछ फेमिनिस्म की आड़ में इसे पुरुष वर्चस्व की तरह देखते हैं. आपका इस विषय पर क्या कहना है?

हम किसी भी धारणा को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं. अगर लोग फिल्म के बारे में चर्चा कर रहे हैं तो इसका मतलब ये हुआ कि असल जिंदगी में ऐसा कुछ हुआ था. लोग फिल्म को लेकर अपनी राय कायम करने के लिए स्वतंत्र हैं. लेकिन हमने पूरी ईमानदारी के साथ वही फिल्म में वही दिखाया है जो असल जिंदगी में हुआ था.

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नीतेश के मुताबिक, 'मैं खुद इस बात पर यकीन करता हूं कि फिल्म पुरुष समाज के वर्चस्व को नहीं दिखाता.'

लेकिन इसे लेकर आप क्या कहना चाहेंगे कि गाहे बहागे फिल्म में पितृप्रधान समाज की गौरवगाथा को दिखाया गया है. क्योंकि महावीर पुरुष शासित समाज का हिस्सा हैं. हालांकि, उन्होंने कई सीमाओं को तोड़ा है बावजूद पितृप्रधान समाज की कई बंदिशों के प्रति उनकी आस्था भी बरकरार है?

नीतेश के अनुसार, 'मैं पूरी तरह इस बात से सहमत नहीं हूं, कुछ लोगों को ऐसा लग सकता है. लेकिन फिल्म को गहराई से देखने पर पता लगेगा कि वो सिर्फ उन स्थितियों को जांच रहे हैं. ताकि, जिन चीजों पर उनका यकीन है क्या वो चीजें उनकी बेटियां पूरी कर पाएंगी. वो अपनी राय किसी पर थोपने की कोशिश नहीं कर रहे हैं.'

वे आगे कहते हैं, 'फोगाट के लिए उनकी पत्नी की राय भी अहमियत रखती है. वो ऐसा नहीं कहते हैं कि, 'ये मैं कर रहा हूं और तुम चुप रहो.' उनकी पत्नी को तर्क का हर अधिकार है. वो अपनी बात रख सकती हैं.

दंगल की शूटिंग के दौरान आराम करते कलाकार

लेकिन, अंतिम फैसला तो उन्हीं का मान्य है?

हां, लेकिन उनकी पत्नी भी तब सहमत होती हैं जब वो कहते हैं कि मुझे एक साल (ये देखने के लिए कि क्या उनकी बेटियां पहलवान के तौर पर खुद को तैयार कर पाएंगी या नहीं) दे दो. वो ये नहीं कहते हैं, 'ये मेरा तय किया हुआ रास्ता है जिसे मानना ही होगा.'

ठीक है. लेकिन ये ऐसा भी नहीं है कि एक साल मांगने के एवज में उन्होंने उनके सामने कोई विकल्प भी छोड़ा हो?

नीतेश कहते हैं, 'उनकी पत्नी ने महावीर की बात तो सुनी. किसी भी बहस में किसी एक की तो जीत होती ही है. हम नहीं कह सकते कि जो बहस में जीतेगा वही नियमों को परिभाषित करेगा. अगर मैं अपनी पत्नी के साथ किसी बात पर बहस करता हूं, ऐसे में या तो वो मुझे समझा सकने में सफल रहेगी या फिर मैं उसे समझाने में कामयाब रहूंगा. इस मामले में महावीर सिंह अपनी पत्नी को समझा लेने में कामयाब रहते हैं.'

वे आगे कहते हैं, 'इसे छोड़ दिया जाए कि सच में ये बहस ऐसे संदर्भ में हो रहा है जहां पुरुषों का दुनिया भर में वर्चस्व है और खासकर जिस आयाम में आपने अपनी फिल्म बनाई है. इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि किसी भी बहस में किसी एक का जीतना जरूरी है. हमेशा एक संदर्भ होता है.'

नीतेश कहते हैं, 'ऐसे सवाल सिर्फ महावीर सिंह के संदर्भ को लेकर ही नहीं उठेंगे. बल्कि ऐसी हर चीज जो पहली बार हो रही है उसे लेकर ये सवाल पैदा होंगे, यहां तक कि समाज का दृष्टिकोण भी इसे लेकर अलग होगा.'

शूटिंग के दौरान आमिर खान के साथ नीतेश तिवारी

मैं आपको एक काल्पनिक उदाहरण पेश करता हूं- 'अगर गीता और बबीता ने जो उपलब्धि हासिल की है वो नहीं की होतीं तो ये इन बातों पर आज कोई चर्चा नहीं कर रहा होता. चूंकि, उन्होंने अपनी बेटियों को उस मुकाम को हासिल करने में भूमिका अदा की जिसकी वो हकदार थीं. तो अब उस बात की खाल उधेड़ी जा रही है.'

नीतेश जोड़ते हैं, 'जो लोग इस पर सवाल खड़े कर रहे हैं क्या वो इन लड़कियों से ये कहना चाहते हैं कि वो घरेलू महिला बन जातीं. 'देखो तुमलोग पहलवान तो बन सकते थे लेकिन तुम्हारे पिता तुमलोगों पर भरोसा नहीं करते हैं.' मैं समझता हूं ये नहीं हो सकता.'

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वो आगे कहते हैं, 'सैकड़ों ऐसी गीता और बबीता होंगी जो आखिरकार गीता और बबीता नहीं बन पाई. क्यों नहीं लोग उनके बारे में बातें करते हैं? और अगर कोई कुछ अलग करने की कोशिश करता है तो उस बात पर चर्चा शुरू हो जाती है?

निश्चित तौर पर यह एक चर्चा का विषय है क्योंकि वो हाई-प्रोफाइल हैं. और उनकी बेटियों ने जीत का परचम लहराया है. लिहाजा, नकारात्मक और सकारात्मक बातों पर चर्चा होगी.'

नीतेश पूछते हैं, क्या ये कहना जायज होगा कि कोई इस बात पर चर्चा नहीं करता अगर उनमें किसी भी तरह की काबिलियत होने के बावजूद वो घरेलू महिला की भूमिका में रहतीं. खासकर, तब जबकि दंगल को लेकर उन्हीं लोगों ने अपनी राय जाहिर की है जो हमेशा से हरियाणा समेत पूरे देश में पितृप्रधान समाज के संबंध में लिखा और बोला करते हैं?लेकिन, क्या भारत में मानसिकता में बदलाव नहीं हुआ है? हरियाणा में भी मानसिकता बदली है. 

आपकी फिल्म की गहराइयों को लेकर ये बड़ा ही सीमित दृष्टिकोण होगा?

'पिछले 15 साल की कुश्ती के रिकॉर्ड को देखिए तो पता चलेगा कि हरियाणा की लड़कियों ने ही यहां अपना झंडा गाड़ा है. ये काफी असाधारण उपलब्धि है. एक शख्स ने राज्य की परंपरागत विचारधारा को बदलने की कोशिश की है.'

'बलाली गांव में एक बड़ा सा गेट है जिसपर लिखा हुआ है, गीता, बबीता,रितु और विनेश का गांव. हरियाणा जैसी जगह में इस तरह का बदलाव काफी सुखद कहा जा सकता है.'

मैंने पहले ही कहा कि, 'मैं उन लोगों के साथ सहमत नहीं हूं जो दंगल के बारे में ये कहते हैं कि ये फिल्म पितृप्रधान समाज को फेमिनिज्म की आड़ में गौरवान्वित करता है. बल्कि, मैं तो ये कहता हूं कि श्रीमान फोगट पितृप्रधान समाज के नियमों को तोड़ते हैं.'

'वो अपनी मानसिकता से पितृप्रधान समाज का प्रतिनिधित्व तो करते हैं लेकिन वो कई क्रांतिकारी कदम भी उठाते हैं. क्या आप इन दोनों धारणाओं से असहमत हैं?

मैं दूसरी बात से ज्यादा सहमत हूं.