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पद्मावती विवाद: माफ करें दीपिका, 'देश पीछे जा रहा है' वाला आपका बयान बेतुका है

जिस तरीके से ‘पीछे जाने वाला’ बताकर पूरे देश की छवि तार-तार की गई है वह अनुचित और बेतुका है. हालांकि उन्होंने जो कहा है वह उससे भी आगे जाकर देश का नुकसान करता है

Sreemoy Talukdar

बॉलीवुड सुपरस्टार दीपिका पादुकोण ने कहा है कि एक देश के रूप में भारत ‘पीछे की ओर’ कदम बढ़ा रहा है. माना जा रहा है कि संजय भंसाली की फिल्म पद्मावती पर जारी विवाद की पृष्ठभूमि में उनकी यह प्रतिक्रिया है. इस फिल्म में उन्होंने चित्तौड़ की रानी पद्मिनी की मुख्य भूमिका निभाई है.

न्यूज एजेंसी आईएएनएस को मंगलवार को दिए एक इंटरव्यू में इस अभिनेत्री ने कहा, 'यह भयावह है. यह बिल्कुल भयावह है. क्या हमने खुद को मिटा दिया है? और एक देश के रूप में हम कहां पहुंच गए हैं? हम पीछे लौट रहे हैं.'


हालांकि, ऐसा लगता है कि उनकी प्रतिक्रिया फिल्म के विरोध में प्रदर्शनों को देखते हुए है, जिसने शूटिंग और प्रमोशन से जुड़े अलग-अलग मौकों पर इस तरह बर्बरता दिखलाई है कि दीपिका का आरोप पूरे देश के लिए हो गया है और जरूरत इस बात की है कि इसे नजदीक से परखा जाए. सवाल ये है कि फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन से ये पता चलता है कि भारत एक देश के रूप में ‘पीछे जा रहा’ है?

क्या देरी के पीछे सीबीएफसी है? नहीं

31 साल की यह कलाकार बॉलीवुड उद्योग के लिए अजनबी नहीं है और जिस नियम व कानून पर यह फिल्मी जगत चलता है उसके मुताबिक हर फिल्म को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) से हरी झंडी लेनी पड़ती है. सीबीएफसी वैधानिक संस्था है जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत आती है. यह सिनेमाटोग्राफ एक्ट 1952 के प्रावधानों के तहत फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन को नियंत्रित करता है. इसलिए सीबीएफसी एक सरकारी संस्थान है हालांकि यह निर्णय लेने के मामले में अपनी स्वायत्तता का खुले तौर पर आनंद लेती है.

क्या सीबीएफसी ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाया है या इसे प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया है? क्या कभी इसने फिल्म रिलीज करने के लिए निर्माता से किसी हिस्से को हटाने की पूर्व शर्त रखी है? लिखे जाने वक्त तक इसका उत्तर ‘नहीं’ में है. जिस फिल्म को 1 दिसम्बर को रिलीज होना है उसे अब भी सर्टिफिकेट मिलने का इंतजार है. तत्काल सवाल उठता है कि प्रमाणपत्र देने में देरी क्यों की गई है? क्या सीबीएफसी फैसला लेने से पीछे हट रहा है?

निर्माताओं की है गलती

यह गौर करना दिलचस्प है कि देरी फिल्म निर्माताओं की ओर से हुई है जो फिल्म के रिलीज होने से कम से कम 68 दिन पहले प्रमाणपत्र के लिए आवेदन देने से चूक गए. सीबीएफसी के एक प्रवक्ता ने डेडलाइन पूरा नहीं करने पर परोक्ष रूप से निर्माता की आलोचना करते हुए ध्यान दिलाया कि विलम्ब से यह भ्रम पैदा होता है कि 'सीबीएफसी बेवजह दबाव बना रहा है और गलत तरीके से फिल्म की निन्दा कर रहा है.'

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एएनआई की ओर से 9 नवंबर को दाखिल की गयी रिपोर्ट के अनुसार ऐसा लगता है कि प्रमाणपत्र के लिए फिल्म अंतिम रूप से शुक्रवार को सुपुर्द की गई. Viacom18 मोशन पिक्चर्स के सीओओ ने पीटीआई को बताया कि निर्माता सीबीएफसी की ओर से किसी देरी की स्थिति में सहयोग नहीं करते. भंसाली प्रोडक्शन ने पिछले शुक्रवार को आवेदन दिया था. हम स्क्रीनिंग बोर्ड के फैसले को सुनने का इंतजार कर रहे थे. यह हमारी पहली प्राथमिकता है. मैं भविष्य में कोई समस्या नहीं देख रहा हूं. सेंसर बोर्ड के इतिहास में किसी फिल्म के प्रदर्शन में देरी नहीं हुई है. ऐसा विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि फिल्म देर से रिलीज होगी. हमें चिंता करने की कोई बात नहीं है.

इसलिए हम दोबारा तथ्यों को देखें. निर्माता की ओर से देरी के कारण फिल्म अब भी सीबीएफसी सर्टिफिकेशन का इंतजार कर रही है. सेंसर बोर्ड ने अब तक ये नहीं कहा है कि वे किसी हिस्से को संपादन के बाद हटा लें. इसने कोई पैमाना नहीं अपनाया है जिसे बचाव के तौर पर लिया जा सके. केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री के सामने विभिन्न विरोध समूहों की ओर से फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जा रही है.

सरकार की ओर से है समर्थन

अलग-अलग विरोध समूहों की ओर से केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री को लगातार फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जा रही है. मुंबई से एक बीजेपी नेता ने यहां तक कि स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिख दी है और उनसे फिल्म के रिलीज को रोकने के लिए हस्तक्षेप की मांग की है. अमरजीत मिश्रा के मुताबिक यह फिल्म इतिहास को तोड़ता-मरोड़ता है, रानी पद्मिनी को खराब रोशनी में दिखाता है और हिन्दुओं की भावनाओं पर आघात पहुंचाता है.

अब तक ईरानी ने प्रदर्शनकारियों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी है. वास्तव में हाल में एक समारोह में स्मृति ईरानी, सूचना व प्रसारण मंत्री भी फिल्म के समर्थन में आ खड़ी हुईं और निर्माताओं को भरोसा दिलाया कि अराजक लोगों को इसकी स्क्रीनिंग रोकने की अनुमति नहीं वे देंगी. केन्द्रीय मंत्री ने हाल में एक समारोह के दौरान अलग से कहा है कि 'मुझे उम्मीद है कि कानून और प्रशासनिक नियंत्रण बना रहेगा. राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करेगी कि कोई उपद्रवी किसी भी तरह से फ़िल्म के प्रदर्शन या उससे जुड़ी गतिविधियों में बाधा न डाल पाएं. मुझे नहीं लगता कि कोई समस्या होगी. अगर कोई चुनौती आती है तो उससे राज्य सरकार निपेटगी.'

यह भी नोट किया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म के रिलीज पर रोक लगाने से मना कर दिया है. अदालत ने ऐसी याचिका खारिज कर दी है और सही निर्णय लेने में सीबीएफसी की मदद की है. यूट्यूब पर रिलीज हुई फिल्म के ट्रेलर को आम जनता की ओर से जबर्दस्त समर्थन मिला है जिससे कलाकार अपनी खुशी का खुलकर इजहार कर रहे हैं.

अपार समर्थन के बावजूद ऐसा बयान क्यों?

इसलिए अब दीपिका से सवाल है कि किन पैमानों पर उन्होंने यह आंक लिया कि एक देश के रूप में भारत पीछे जा रहा है? जबकि सरकार की ताकत न्यायपालिका और यहां तक कि आम लोग भी फिल्म के समर्थन में सामने आए हैं? या क्या वह मानती हैं कि वह धड़ा जिसने फिल्म का विरोध किया है, केवल वही देश का प्रतिनिधित्व करते हैं? इस तर्क को आगे बढ़ाने पर यह हमें ये मानने को मजबूर कर देता है कि बॉलीवुड कलाकारों को भारतीय प्रजातंत्र के अलग-अलग प्रतिमानों में विश्वास नहीं है और ‘देश’ को समझने के मामले में उनकी सोच बहुत छोटी है.

इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण है दीपिका की प्रतिक्रिया जिसमें वह कहती हैं कि 'यह पद्मावती के बारे में नहीं है...हम और भी बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं.' यह बताता है कि अभिव्यक्ति की आजादी को बिल्कुल ही गलत संदर्भ में लिया गया है जिस वजह से उनकी तरह कई लोग इससे पीड़ित होंगे. बॉलीवुड कलाकार को यह समझने की जरूरत है कि अभिव्यक्ति की आजादी वन-वे रास्ता नहीं है और न ही यह केवल एक छोर तक पहुंचने के लिए सटीक है. खासकर ऐसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में, जिसमें हम जी रहे हैं.

जिस तरीके से फिल्म उद्योग और उससे जुड़े लोग अपनी रचनात्मक आजादी का आनंद उठा रहे हैं, उसी तरीके से उन लोगों को भी अपनी राय और असंतोष रखने का हक है जो उनकी रचनात्मकता का लाभ उठाते रहे हैं. वे एक जगह इकट्ठा और फिल्म के विरोध करने का अधिकार भी रखते हैं. भारत के पीछे लौटने का प्रतीक होने के बजाए यह हमारे लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण है.

हिंसक प्रदर्शन पर भी रोक जरूरी

इसी तरह प्रदर्शन के नाम पर किसी को हिंसा और बर्बरता की इजाजत नहीं दी जा सकती और यह राज्य सरकार को चाहिए कि वह कानून और व्यवस्था को बरकरार रखे. फिल्म के खिलाफ लगातार जिस तरह की बर्बरता दिखाई जा रही थी उसे लेकर दीपिका की ओर से गुस्से का इजहार करना सही था. जयपुर में फ़िल्म के सेट पर बर्बरता दिखलायी गई, कॉस्ट्यूम्स जला दिए गए. ‘करनी सेना’ की ओर से मंगलवार को भेजे गए कुछ गुंडों ने कोटा के एक थिएटर हॉल में तोड़फोड़ की और हिंदुत्व के नाम पर एक मॉल में उत्पात मचाया. इसे निश्चित रूप से वसुंधरा राजे सरकार की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिए जो अब तक अक्षम प्रशासक के तौर पर दिखी है.

समुदायों में हो विश्वास

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है कि जिस तरीके से ‘पीछे जाने वाला’ बताकर पूरे देश की छवि तार-तार की गई है वह अनुचित और बेतुका है. हालांकि उन्होंने जो कहा है वह उससे भी आगे जाकर देश का नुकसान करता है. इससे पता चलता है कि लोकतांत्रिक विविधता से भरपूर हमारे ढांचे के प्रति वह कितनी असंवेदनशील है जहां विवादास्पद और दूसरे समुदायों के विश्वास से जुड़े मामलों पर सावधानी से बातें रखने का हमारा स्वभाव रहा है. ऐसे मामलों में हमें लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.

ईरानी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे पत्र में उदयपुर-मेवाड़ राज परिवार के एक सदस्य ने आरोप लगाया है कि फ़िल्म एक ऐसे स्रोत पर आधारित है जो तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है. एमके विश्वराज सिंह के अनुसार सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’, जिस पर फिल्म जाहिर तौर पर पूरी तरह से निर्भर दिखती है वह अतिशयोक्तिपूर्ण है और यह 'न तो यह दावा करता है और न ही यह ऐतिहासिक रूप से सही माना जाता है.'

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सिंह आगे लिखते हैं कि 'अगर यह फिल्म इतिहास होने का दावा करता है और इसके निर्माता इस दावे के लिए इतिहास का सहारा लेते हैं कि उन्होंने सांस्कृतिक संवेदनाओं को ध्यान में रखा है तब यह फ़िल्म में सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से एक रानी को गलत तरीके से और एक गुड़िया की तरह चित्रित करने की धोखाधड़ी होगी.'

सवाल आखिरकार उदारवाद के मूल्यों को कमतर करने का है जो सांस्कृतिक संवेदनशीलता पर हावी दिखती है. हालांकि किंवदंतियों, मिथक और सांस्कृतिक संवेदनशीलताओं को लेकर निस्संदेह यह उदार विचार है और यह निर्भर करता है कि रचनात्मक रूप से इसका कितना इस्तेमाल होता है. ऐसी कोशिशों में निश्चित रूप से पूरी सतर्कता जरूरी है.

1988 में नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता वीएस नायपॉल ने हिन्दू अखबार से भारत पर इस्लामिक आक्रमण पर कहा था: 'मैं समझता हूं कि जब आप 10वीं सदी या इससे पहले के कई हिन्दू मंदिरों को देखते हैं तो आप भ्रमित हो जाते हैं. आपको महसूस होता है कि कुछ भयानक हुआ है. मैं महसूस करता हूं कि दुनिया की नजर से दूर रही तत्कालीन सभ्यता को इन आक्रमणकारियों ने बहुत नुकसान पहुंचाया....पुरानी दुनिया नष्ट कर दी गयीं. उसे समझने की जरूरत है. प्राचीन हिन्दुओं के भारत को नष्ट कर दिया गया.'

इस्लामी विजेताओं द्वारा भारत पर आक्रमण विवादास्पद विषय रहा है जो इतिहास में गलत तरीके से दर्ज हो सकते हैं लेकिन अब भी हमारी प्रतिक्रियाओं को मूर्त रूप देते हैं. चित्तौड़ किले पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण और रानी पद्मिनी के जौहर उन लोगों को झकझोरते हैं जो अब भी सो रहे हैं और उस समय की भयावहता का स्मरण कराते हैं. बात समझ में आती है कि विरोध प्रदर्शन होंगे. इन प्रदर्शनों और तर्कों के जरिए तर्कपूर्ण लोकतंत्र आगे बढ़ता है. इस पैमाने पर ‘पीछे हटने’ जैसी बात से कुल मिलाकर बात नहीं बनती.