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पद्मावती विवाद: इतिहास और किंवदंति के बीच एक रानी और एक कवि

हैरत इस बात पर है कि पद्मावती की कथा में छिपी सच्चाई में अपनी राजनीति के लिए संभावनाएं भांप राजनेता तो पेशकदमी कर रहे हैं लेकिन इतिहासकार पीठ मोड़कर खड़े हैं

Chandan Srivastawa

एक फिल्म को लेकर सब ही गुस्से में हैं लेकिन इस गुस्से की वजह सब अलग-अलग सुना रहे हैं. है ना अचरज की बात !

गुस्से भरा एक ऐलान एक अभिनेत्री के नाक काटना चाहता है, एक फिल्म-निर्माता की गर्दन उतारना चाहता है. इसलिए कि दोनों ने मिलकर रानी पद्मावती की कहानी फिल्मी पर्दे पर उतारी है! शूरता के इतिहास की दावेदारी करने वाले एक जाति-समुदाय के स्वघोषित नेताओं को लग रहा है कि ऐसा करना उनकी बिरादरी के 'मान-सम्मान' के साथ खिलवाड़ करना है.


गुस्से के अलग-अलग रंग

फिल्म-बिरादरी का सेक्युलर साख वाला जमावड़ा गुस्से में है. वहां अभिव्यक्ति की आजादी, कला की हिफाजत और कलाकार को हासिल पोयेटिक लाइसेंस जैसे जुमलों की दुहाइयां हैं. बीते जमाने की एक सियासत-पसंद मशहूर अभिनेत्री को लग रहा है मामला राजसत्ता बनाम कलाकार का हो चला है क्योंकि सरकार की चुप्पी के कारण फिल्म, फिल्मकार और अभिनेत्री तीनों को खतरा है सो अब वक्त हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का नहीं बल्कि गोवा में होने जा रहे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का बहिष्कार करने का है.

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गुस्से का एक रंग सेक्युलर पांत के इतिहासकारों का है. उन्हें लग रहा है कि देश में दक्षिणपंथ जोर मार रहा है, अबतक की कमाई हुई प्रगतिशीलता का सारा बारूद बगैर जले धुआं-धुआं हो रहा है. इतिहासकार अपनी अकबकाहट में राष्ट्र का सीधा-सपाट इतिहास बयान करने में लगे हैं. उनका मुंह 21वीं सदी में है और पैर 19 वीं सदी में. वे फटकर चिन्दी-चिन्दी हो चले विधेयवादी जाल को सीने पर जिरह-बख्तर की तरह चिपकाए किसी मसीहा की तरह ऐलान कर रहे हैं कि जो इतिहास की तुला पर तथ्य नहीं वह किसी समुदाय का अनुभूत सत्य भी नहीं.

सोच की इसी बांट-बटखरे से वे साबित करने पर तुले हैं कि रानी पद्मावती नाम का कोई किरदार तो था ही नहीं, खासकर उस घड़ी तो बिल्कुल ही नहीं जब अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया था. पद्मावती अगर कुछ है तो बस एक कवि मलिक मुहम्मद जायसी की कल्पना. वह किंवदंति है, इतिहास नहीं सो सारा हंगामा ही बेसबब खड़ा है.

सियासत का गुस्सा और अदालत का रुख

प्रतीकात्मक तस्वीर

फिल्म के प्रदर्शन पर रोक-छेंक की मंसूबे वाली लड़ाई अदालत के आंगन तक पहुंची है. इस लड़ाई में गुस्सा कानूनी नुक्ते की ओट करके सामने आ रहा है. दिलचस्प ये कि अदालत में चली लड़ाई का इतिहासकारों के कहे से मनमुटाव है.

अदालती कार्रवाई में दोनों पक्षों की दलील के हिसाब से तो यही लग रहा है कि वादी-प्रतिवादी दोनों मानकर चल रहे हैं कि रानी पद्मावती एक ऐतिहासिक शख्सियत हैं. उधर अदालत को वादी-प्रतिवादी दोनों का तर्क मंजूर नहीं. उसने इतिहास की इस बहस से अपने को अबतक अलग रखा है. सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की एक जनहित याचिका पर सुनवाई में कहा कि पद्मावती के बारे में सेंसर बोर्ड ही कोई फैसला करे क्योंकि वह एक संवैधानिक निकाय है और मामला उसके अधिकार-क्षेत्र में आता है.

फिल्म अभी प्रदर्शित नहीं हुई है, कहानी खुलकर लोगों के सामने आनी शेष है लेकिन केंद्रीय सत्ता के पक्ष और प्रतिपक्ष के नेता गुस्से में तमतमा रहे हैं. उनका गुस्सा इस बार एक-दूसरे की टांग-खिंचाई में नहीं बल्कि फिल्म बनाने वाले पर निकल रहा है.

यूपी के उपमुख्यमंत्री और राजस्थान के मुख्यमंत्री ने अगर यह कहकर अपना ऐतराज जाहिर किया है कि जबतक फिल्म का विवादित हिस्सा नहीं हटता उसे पर्दे पर नहीं चढ़ने दिया जाय तो इस ऐतराज को तनिक और हवा देते हुए एमपी के मुख्यमंत्री ने कहा कि सेंसर बोर्ड भले फिल्म को मंजूरी दे दे लेकिन हमारे सूबे में फिल्म पर्दे का मुंह ना देख पाएगी.

गजब यह कि केंद्रीय सत्तापक्ष के मुखर विरोधी पंजाब के मुख्यमंत्री ने भी पद्मावती के इतिहास-सिद्ध होने पर अपनी हामी की मोहर लगाते हुए कह दिया कि फिल्म तो इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर दिखाती है सो राजपूत समुदाय का गुस्सा जायज है.

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फिर भी केंद्रीय सत्तापक्ष और विपक्ष इस अद्भुत जुगलबंदी में कोई लय-ताल खोजना बड़ी मशक्कत का काम है क्योंकि विपक्ष का एक चेहरा सुदूर कर्नाटक में कह रहा है कि फिल्म के प्रदर्शन पर रोक की मांग दरअसल देश में बढ़ती असहिष्णुता की पहचान है तो दूसरा चेहरा बिहार में अपनी ही पिछली बात से एकदम पलटी मारते हुए कह रहा है, 'जो लोग पद्मावती फिल्म का विरोध कर रहे हैं वो सही हैं, इतिहास को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.' जबकि बीते जनवरी महीने में पद्मावती के सेट्स पर तोड़-फोड़ हुई तो इस नेता संजय लीला भंसाली को बिहार आकर फिल्म बनाने का न्यौता इस वादे के साथ दिया था कि हर तरह की मदद की जाएगी.

इतिहास और किंवदंति के बीच एक रानी और एक कवि

क्या सचमुच पद्मावती कोरी कल्पना का नाम है और कल्पना क्या इतनी ही बेदम-बेरंग होती है कि उस पर जो चाहे, जब चाहे अपनी मर्जी का रंग चढ़ा दे ? फिल्म पर उपजे विवाद के बहाने देश का मनचाहा इतिहास सुनाने की पुरानी आदत से लाचार इस बार भी इतिहासकारों ने फैसला तो सुना दिया कि पद्मावती एक कल्पना-मात्र है लेकिन फैसले का आधार अंग्रेजी या फिर फारसी की पुरानी लिखाई को बनाया. प्राचीन भारत के बारे में कुछ कहना हो तो संस्कृत के ग्रंथ देखो, मध्यकाल के भारत के लिए फारसी के और आधुनिक भारत के लिए सबसे भरोसेमंद हैं अंग्रेजी के स्रोत—भारत के इतिहासकारों की यह प्रचलित रीत है !

अगर नजर उर्दू-हिंदी जैसी देसी भाषाओं के ग्रंथों को स्रोत मानने और खंगालने पर रहती या फिर देसी भाषाओं में पद्मावती को लेकर हुए चिंतन-मनन के लिए मन में सम्मान रहता तो इतिहासकारों से यह कहते ना बनता कि पद्मावती कोरी कल्पना है सो कला की कूंची से उसपर कोई भी रंग चढ़ाया जा सकता है.

पद्मावती पर जार्ज ग्रियर्सन ने ही नहीं लिखा, कुछ हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखक रामचंद्र शुक्ल ने भी लिखा है.

देश की आजादी के पहले के सालों में हाड़-तोड़ मेहनत के साथ जायसी की रचना पद्मावत की प्रामाणिक प्रति तैयार करने के जतन के साथ कुछ माताप्रसाद गुप्त ने भी लिखा है. एक राय भारतीय संस्कृति के अध्येता वासुदेवशरण अग्रवाल की भी है और अपनी सधी हुई आधुनिकता के साथ इन सबसे दूर जाती एक खास राय विजयदेव नारायण शाही की भी है.

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इनमें से किसी ने नहीं कहा कि जायसी के पद्मावत की रानी पद्मिनी ऐतिहासिक है लेकिन ये जरूर कहा है कि कल्पना-प्रसूत यह पद्मावती बिना-हाथ पांव के नहीं है, उसके खड़े हो सकने की एक जमीन है. सो, उसे हवा-हवाई बताकर ना तो परंपरा ने कभी खारिज किया ना ही राष्ट्र बने रहने की जरूरत के नाते आगे के दिनों में कभी नकारा जा सकेगा.

पद्मावती के पांव तले की जमीन

ऐसा बिल्कुल नहीं कि कल्पना एकदम ही हवा-हवाई चीज हो, उसके हाथ-पांव ही ना हों जो वह जमीन पर टिक सके. भरोसेमंद होने से ही कल्पना का स्वीकार होता है और कल्पना भरोसेमंद होती है किसी गहरी जरूरत को पूरा करने के नाते. यह जरूरत क्या रही जो इतिहास की नजर आती चीजों से ज्यादा सच्ची कवि द्वारा रचित रानी पद्मावती लगती है?

रानी पद्मावती की कथा देश की एक विशाल आबादी की कौन-सी जरूरत को पूरा करती है, वह मध्यकालीन इतिहास की किस कड़वी सच्चाई को दर्ज करती है जिसे गंगा-जमुनी तहजीब की चाशनी तैयार करने की सियासी जरूरत के फेर में भुला दिया गया ?

प्रतीकात्मक तस्वीर

मुस्लिम आक्रांताओं का भय, उनसे संघर्ष और इस संघर्ष के क्रम में धन-धर्म और परिवार बचाने की चिंता हिन्दू-मानस की एक कड़वी सच्चाई है. इस सच्चाई को चाहे इतिहासकार ना दर्ज करें लेकिन लोकधारणाओं, कथा-कहानियों और कभी-कभार देसी भाषा के महाकाव्यों जैसे पद्मावत ने जरूर दर्ज किया है.

मिसाल के लिए, मुस्लिम आक्रांताओं की क्रूरता को लेकर एक किस्सा अवध प्रांत में कुसमा देवी के नाम से चलता है. इसका जिक्र समाजशास्त्री बद्रीनारायण ने अपनी हाल की एक किताब ‘हिन्दुत्व का मोहिनी-मंत्र’ में किया है. इस लोककथा के मुताबिक ‘कुसुमा देवी का एक विलासी मुगल ने अपहरण कर लिया था, जो उसके साथ विवाह करना चाहता था.

उसने उसके पिता और भाई को भी बंदी बना. लेकिन कुसमा देवी अपनी चतुराई से दोनों को छुड़ाने में सफल रही. इसके बाद अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए उसने जल-समाधि ले ली. मिर्जा ने उसे बचाने के लिए जाल फेंका लेकिन वह जल की अटल गहराइयों में विलीन हो चुकी थी. मिर्जा के जाल में सिर्फ घोंघा और सिवार ही फंस सके. यह कथा एक गीत के रूप में सुनाई देती है’ :

घोड़वा चढ़ल आवई एक रे तुरुकवा / गोरिया के रुपवा लोभइले हो राम

बहियां पकड़ी तुरुकवा घोड़वा चढ़ावई / टप-टप चुवई अंसूआ हो राम

जो तूही मिरजा हो हम पर लोभाया / बाबा तई हथिया बिसाहा हो राम

भईया तई घोड़वा बिसाहा हो राम/ जो तुहो मिरजा हो हम पई लोभाया

इनो के बंदी छुड़ावा हो राम / रोई रोई मिरजा हो जालवा लगवई / बांझी आवे घोंघवा सेवरवा हो राम

इतिहासकार चाहे ना कहें लेकिन मलिक मोहम्मद जायसी जैसा साहित्यकार अपनी करुणा भरी आंख से देख सकता था कि अवध प्रांत की कुसुमा देवी और मिर्जा की कहानी राजस्थान की जमीन पर रतनसेन की पद्मावती और उसपर लुभाने वाले अलाउद्दीन खिलजी की कहानी में तब्दील हो सकती है. साहित्य की जमीन पर पद्मावती और कुसुमा देवी में कोई भेद नहीं है, अलाउद्दीन खिलजी और मिर्जा में कोई भेद नहीं है और भेद तो मिर्जा या फिर अलाउद्दीन के आखिरी हासिल में भी नहीं है.

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कुसमादेवी अपनी चतुराई से बाप-भाई को छुड़ा लेती है तो पद्मावती अलाउद्दीन की जेल में कैद अपने प्रिय रतनसेन को. कुसुमा देवी अपनी पवित्रता की रक्षा में जल में समाधि लेती है, पद्मावती अपने सतीत्व की रक्षा में अग्निकुंड में कूद जाती है. मिर्जा के जाल में घोंघा और सेवार फंसते हैं आखिर को, कुसुमादेवी नहीं. और, अलाउद्दीन के हाथ में लगती है आखिर को एक मुट्ठी राख !

याद कीजिए पद्मावत का आखिरी दृश्य :

ओई सहगवन भई जब ताई- पातसाहि गढ़ छेंका आई।

तब लगि सो ओसर होई बीता- भये अलोप राम और सीता।

आई साहि सब सुना अखारा- होई गा राति दिवस जो बारा।

छार उठाइ लीन्ह एक मूठी-दीन्ह उड़ाई पिरथिमी झूठी।

जौं लगि ऊपर छार ना परई- तब लगि नाहि जो तिस्ना मरई।

जौहर भईं इस्तिरीं पुरुख भये संग्राम ।

पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम ।।

(जबतक रानियां पति के साथ चिता में सती हुई कि तबतक बादशाह अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ को घेर लिया किन्तु रानी पद्मावती को हथियाने का मौका निकल चुका था. राम और सीता अर्थात रत्नसेन और पद्मावती परलोक सिधार चुके थे. शाह ने आकर उस सारे वीर कृत्य(जौहर) के विषय में जाना. मानो दिन-रात में परिणत हो गया कि जिस निराशाजनक नतीजे को उसने अबतक रोक रखा था वह आखिरकार होकर ही रहा. शाह ने एक मुट्ठी चिता की राख ली और यह कहते हुए उड़ा दी कि यह दुनिया झूठी है.कविवर जायसी कहते हैं कि जबतक मनुष्य के ऊपर मिट्टी नहीं गिरती(मौत नहीं आती) तबतक उसकी वासना ही मरती. चित्तौड़ की स्त्रियों ने जौहर किया और उनके पुरुष यु्द्ध करते खेत रहे. शाह ने गढ़ ध्वस्त किया और चित्तौड़ इस्लाम के अधिकार में हो गया)

गौर कीजिए, आखिर के दोहे पर. इस्लाम का एक अर्थ शांति भी होता है और मलिक मोहम्मद जायसी जैसे संत कवि ने राजनीतिक इस्लाम पर कितना धारदार व्यंग्य किया है !

और आखिर में एक उधेड़-बुन...

जायसी कि इस कथा में काल्पनिक क्या है ? क्या चित्तौड़गढ़ पर अलाउद्दीन का आक्रमण ? क्या राजस्थान की क्षत्राणियों का जौहर ? क्या राजस्थान के वीर राजपूतों का संग्राम में खेत रहना ? और, क्या भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रवादी जरूरतों के तहत यही जौहर करने वाली स्त्री(चाहे उसका नाम पद्मावती हो या कुसुमा देवी या कुछ और) भारतीय स्त्री का आदर्श कहकर नहीं बताई-सिखायी गई ? आखिर इतिहासकार की आंख से यह सच कैसे छुप गया कि पद्मावत या फिर कुसुमा देवी की कथा में अलाउद्दीन या मिर्जा किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि एक प्रवृत्ति का नाम है?

रणथंभौर में राजपूत महिलाओं के जौहर की काल्पनिक पेंटिंग. ये पेंटिंग साल 1825 की है. (तस्वीर विकीपीडिया से साभार )

इतिहास एक याद के रूप में किसी एक पात्र और समय के एक बिंदु तक सीमित नहीं- वह युग की चेतना और चिंता का भी नाम है. ये ठीक है कि राजस्थान के रजवाड़ों ने अपने आत्म-पहचान की जरुरत के मद्देनजर जायसी की कथा में वर्णित पद्मावती को नहीं बल्कि कर्नल टाड के ब्यौरे में आई पद्मावती को सच माना लेकिन फिर यह याद रखना होगा कि कर्नल टाड का ब्यौरा चारणों के बीच चली आ रही कथाओं पर आधारित है और इन कथाओं में भारत के क्षत्रियों के मन का आस-निरास और संकल्प दर्ज है. हैरत इस बात पर है कि पद्मावती की कथा में छिपी सच्चाई में अपनी राजनीति के लिए संभावनाएं भांप राजनेता तो पेशकदमी कर रहे हैं लेकिन इतिहासकार पीठ मोड़कर खड़े हैं.