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अंबेडकर जयंती: भीम नाम की लूट है....लूट सके सो लूट

देश ने अपने इस नेता का सही मोल अब तक नहीं पहचाना है.

Rakesh Kayasth

मुंबई की आम ट्रैफिक में मुझे ऑफिस से घर पहुंचने में आमतौर पर सवा से डेढ़ घंटे का वक्त लगता है. लेकिन 13 अप्रैल की शाम मैं करीब तीन घंटे में घर पहुंचा.

दादर की मशहूर फूल मंडी के पास गाड़ी आधे घंटे तक रेंगती रही. कैब ड्राइवर से मैने वजह पूछी तो वह बोला- लोग अंबेडकर जयंती की शॉपिंग करने निकले हैं, ऐसी ही भीड़ आपको मुंबई के हर कोने में मिलेगी.


उसकी बात सुनकर मेरी आंखों में 14 अप्रैल का वो मंज़र तैरने लगा, जिससे मैं हर साल रू-ब-रू होता हूं.  फूलो से सजी हाइसिंग सोसाइटीज़,  होली या दिवाली की तरह घरों में तैयार होते पकवान, शोभा यात्राओं से जगह-जगह रुकी ट्रैफिक,  डीजे की धुन पर थिरकते बच्चे बूढ़े, जवान और औरतें.

भारत एक ऐसा देश है, जहां नेताओं को लेकर या तो नफरत है, या उदासीनता. लेकिन बी.आर.अंबेडकर का नाम आते ही ये थ्योरी बदल जाती है. वे इकलौते ऐसे नेता हैं, जिनकी जयंती मनाई ही नहीं जाती बल्कि उसी तरह सेलीब्रेट की जाती है,  जैसे गणेशोत्सव या जनमाष्टमी के त्यौहार.

आम नेता नहीं मुक्तिदाता

अपनी आवाम के लिए बाबासाहेब अंबेडकर महज एक राजनीतिक व्यक्तित्व ही नहीं बल्कि मुक्तिदाता हैं. दुनिया में कम ही उदाहरण ऐसे होंगे जब एक अकेला आदमी अपनी कोशिशों से इतनी बड़ी आबादी की तकदीर हमेशा के लिए बदलने में कामयाब हुआ.

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सदियों से गुलामों जैसी जिंदगी जी रहे अछूत कहे जाने वाले करोड़ो लोगो को समाज की मुख्यधारा में लाना एक ऐसी अहिंसक क्रांति थी, जिसकी कोई और मिसाल नहीं मिलती. ताज्जुब नहीं अगर सत्ता-तंत्र की लगातार उपेक्षा के बावजूद अंबेडकर करोड़ों दिलों में ना सिर्फ जिंदा हैं बल्कि उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है.

किताबों से गुम एक मसीहा

अंबेडकर ने अपने जिंदगी भर दलित, वंचित और स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया. लेकिन इतिहास के पन्नों में सही जगह पाने के लिए उन्हें अपनी मौत के बाद भी लंबा संघर्ष करना पड़ा.

कांग्रेस पार्टी ये भूल गई कि आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान नेहरू या पटेल से किसी मायने में कम नहीं था. मुझे याद है, हमारे जमाने में स्कूल की किताबों में अंबेडकर का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता था. संविधान निर्माता के रूप में एकाध जगह उनका नाम ज़रूर आ जाता था, लेकिन दलितों के लिए किये गये उनके संघर्ष कहानियां सिरे से गायब थीं.

जाति व्यवस्था को लेकर अंबेडकर और गांधी में गहरे मतभेद थे

गांधी को दलितों का मसीहा बनाने की कोशिश

महात्मा गांधी और कांग्रेस के साथ अंबेडकर के तीखे वैचारिक मतभेद थे. लेकिन ये बातें स्कूलों में ढंग से नहीं पढ़ाई जाती थीं. पूना पैक्ट का भी स्कूली इतिहास में बहुत संक्षिप्त उल्लेख हुआ करता था. कांग्रेस पार्टी ने गांधीजी को दलितों के एकमात्र मसीहा के रूप में स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की.

अंबेडकर को इतिहास के नेपथ्य में धकेले जाने जाने का मकसद बहुत साफ था. कांग्रेस से बाहर गांधी की विरासत का दावा करने वाला कोई और नहीं था.

लेकिन अगर दलितों के सशक्तिकरण में अंबेडकर की भूमिका का महिमामंडन होता तो फिर उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर भी सवाल उठते. जाहिर है, कांग्रेस ये नहीं चाहती थी कि इस देश का दलित नेतृत्व ताकतवर हो.

मौत के 34 साल बाद भारत रत्न

इतिहास के पन्नों से अंबेडकर का लंबा निर्वासन अस्सी के दशक के आखिरी दौर में खत्म हुआ. पहले महाराष्ट्र सरकार ने उनका पूरा लेखन छापा, उसके बाद केंद्र में आई वीपी सिंह की सरकार ने उन्हें भारत रत्न दिया.

वीपी सिंह की सरकार ने पिछड़ों के आरक्षण के लिए मंडल आयोग भी लागू किया, जिसके बाद देश की राजनीति बदल गई. अंबेडकर अचानक समाजिक न्याय के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में स्थापित हो गये.

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इसी दौर में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ,  जो खुद को अंबेडकर की राजनीतिक विरासत की असली हकदार बताती थी और बेहद आक्रामक तरीके से दलित अस्मिता की राजनीति करती थी. देखते-देखते बीएसपी उत्तर प्रदेश में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप  में स्थापित हो गई.

अपने राजनीतिक गुरू कांशीराम के बाद मायावती ने बीएसपी की राजनीति को बदला. बीएसपी का पूरा फोकस अलग-अलग जातीय और धार्मिक समूहों के साथ गठजोड़ बनाकर सत्ता हासिल करने पर केंद्रित हो गया. इस रणनीति से मायावती को कामयाबी तो मिली लेकिन बीएसपी अपना पैनापन और कोर दलित वोटरों के बीच साख खो बैठी.

खुद को अंबेडकर का वारिस कहने वालीं मायावती भी बाद में ब्राह्मणों के साथ हो गईं

जय ब्राहणवाद-जय अंबेडकरवाद

बाबा साहेब अंबेडकर की पूरी राजनीतिक विचारधारा ब्राहणवाद विरोधी थी. वे हिंदुओ को मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार समाज कहा करते थे और हिंदु ग्रंथों को दलितों के शोषण का आधार.

अंबेडकर के मनुस्मृति दहन आंदोलन को दलित राजनीति के इतिहास की सबसे क्रांतिकारी घटना माना जाता है. उन्होंने जीवन के आखिरी दिनों में हिंदु धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया था.

जाहिर है, हिंदुओं के अतीत पर गर्व करने वाला आरएसएस और अंबेडकरवाद कभी भी विचारधारा के एक स्तर पर नहीं हो सकते हैं. इसके बावजूद आरएसएस ने पिछले कुछ बरसों में अंबेडकर को अपना बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

संघ बकायदा अंबेडकर जयंती मनाता है. कुछ जगहों पर हिंदू कर्मकांडों के साथ अंबेडकर की शोभायात्रा निकालने जाने और कलश स्थापना जैसी खबरें भी आ रही हैं.

इन कोशिशों के पीछे संघ की मंशा बहुत साफ है. अंबेडकर मानते थे कि दलित परंपरागत रूप से कभी हिंदू समाज का हिस्सा नहीं रहे. उनका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है. लेकिन संघ अंबेडकर का इस्तेमाल हिंदू समाज को एकजुट रखने के लिए करना चाहता है.

दिशाहीन दलित राजनीति को अपनी एक धारा बनाने के लिए बीजेपी भी लगातार काम कर रही है. भीम ऐप लांच करने से लेकर दिल्ली में अंबेडकर मेमोरियल बनाने तक तमाम घोषणाएं इन्ही कोशिशों का हिस्सा हैं.

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मौजूदा समय में सिर्फ दलित ही अंबेडकर के काम के महत्व को समझते हैं

अंबेडरकर सिर्फ दलितों के नेता क्यों?

बीजेपी और आरएसएस अपनी कोशिशों में किस हद कामयाब हो पाएंगे,  ये कहना अभी जल्दबाजी होगी. लेकिन एक बात बहुत साफ समझ में आती है और वो यह कि देश ने अपने इस नेता का असली मोल अब तक ठीक से नहीं पहचाना है. उन्हें सिर्फ दलितों का नेता माना गया और हम ये भूल गये कि अंबेडकर 20वीं सदी के सबसे मौलिक और विलक्षण चिंतकों में थे.

अगर अंबेडकर नहीं होते तो हिंदू कोड बिल नहीं होता. अगर हिंदू कोड बिल नहीं होता तो महिलाओं की वो स्थिति नहीं होती जो आज है. क्या इस देश की महिलाएं कभी ये सोचती भी है कि अंबेडकर ने उनके लिए कितनी मुश्किल लड़ाई लड़ी?

ताजा-ताजा बंटे और अंर्तविरोधों से भरे एक देश को एक ऐसा संविधान देना जो अपने मूल स्वरूप में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को बढ़ाने वाला हो, कोई आसान काम नहीं था.

यह संविधान देश के हर नागरिक से यह अपेक्षा रखता है कि वह वैज्ञानिक नजरिया अपनाएगा और मौलिक अधिकारों के उपभोग के साथ अपने मौलिक कर्तव्यों का भी ध्यान रखेगा. लेकिन अंबेडकर के इस देश में आखिर कितने लोगों ने संविधान ठीक से पढ़ने की तकलीफ उठाई है?