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कोलकाता मेट्रो की घटना ने सोसायटी के फ्रस्टेशन को थोड़ा और उघाड़ दिया है

अगर हम सोसाइटी को शांतिपूर्ण बनाने या बेहतर समझ विकसित करने में योगदान नहीं दे सकते हैं हमें इसमें खलल डालने का भी कोई हक नहीं हैं

Tulika Kushwaha

कोई भी समाज हमेशा कुछ नियम-कायदों के हिसाब से चलता है. वक्त के साथ इनमें बदलाव आते हैं. लेकिन चूंकि समाज नियमों में बंधकर रहना पसंद करता है इसलिए जब इसमें किसी तरह का बदलाव आता है तो वो रक्षात्मक हो जाता है. लेकिन इन्हीं नियमों-कायदों के चलते ही कुछ ऐसी प्रवृत्तियां या आदतें भी बनती हैं जो सही-गलत के परे चली जाती हैं. मॉरल पुलिसिंग उनमें से ही एक है. हमारे देश में दूसरों को 'सभ्य सुंस्कृत' बनाने की आदत है. लेकिन वक्त-वक्त पर मॉरल पुलिसिंग की वजह से ऐसे हालात बने हैं कि इसे अपराध घोषित करने की बात की जाती है.

मॉरल पुलिसिंग भारत में कोई नई चीज नहीं है. यहां हमेशा से संस्कृति और सभ्यता दूसरों पर थोपी गई है. कहीं-कहीं तो ब्रेनवॉश तक किया गया है. जब लड़कियों के शराब पीने पर उन्हें पीट दिया जाता है. जब कश्मीरी बच्चियों के बैंड बजाने पर फतवा जारी कर दिया जाता है. लेकिन पिछले कुछ सालों में लोग मॉरल पुलिसिंग के चक्कर में अंधे बन चुके हैं. उन्होंने मान लिया है कि सामने वाले को सभ्य बनाना उनका अधिकार है. वो मानकर चलते हैं कि सामने वाला गलत है, वो सही. और वो अपनी सोच दूसरों पर थोप सकते हैं. इसके लिए वो मार-पीट तक करने में पीछे नहीं हटते. कुछ-कुछ को तो ये भी लगता है कि ऐसा करके वो समाज का भला कर रहे हैं.


कोलकाता मेट्रो स्टेशन वाली घटना इसी का उदाहरण है. मंगलवार को कोलकाता के दम-दम मेट्रो स्टेशन पर एक कपल को कुछ लोगों ने इसलिए पीट दिया क्योंकि वो एक दूसरे को हग कर रहे थे.

ये है पूरी घटना

मंगलवार शाम एक कपल कोलकाता मेट्रो में सफर कर रहा था. इस दौरान उन्होंने एक दूसरे को हग किया, जो पास बैठे एक बुजुर्ग को नागवार गुजरा. उन्होंने उन दोनों पर चिल्लाना शुरू कर दिया. जवाब में लड़के ने भी कुछ बोल दिया, जिसपर पास बैठे लोग भी उस कपल पर भड़क गए. इसके बाद उनसे ऊंटपटांग सवाल-जवाब किए गए और उन्हें शर्मिंदा किया गया. इतना ही नहीं भीड़ ने उन्हें मेट्रो से बाहर निकलने के बाद 'देख लेने' की धमकी भी दी. जब ये कपल मेट्रो से उतरा तो उनके साथ हाथापाई की गई. पिट रहे लड़के को बचाने के लिए जब बीच में लड़की आई, तो उसे भी मारा-पीटा गया. कुछ औरतों और युवाओं ने बीच-बचाव कर दोनों को बचाया.

जब जरूरत होती है तब इनके मुंह से आवाज क्यों नहीं निकलती?

इस खबर को पढ़ने के बाद सबसे पहले जो सवाल ज़ेहन में आया, वो था- क्या कोलकाता में भी? कोलकाता में कबसे? कोलकाता कल्चरली रिच है. यहां एजुकेटेडे, ओपन माइंडेड लोगों का बड़ा तबका हैं. कोलकाता का इतिहास हर पहलू में काफी अलग है. फिर वहां दिखी ये संकीर्णता किस बात की निशानी है? क्या हम इतने बदल गए हैं?

इसके बाद फिर वो सवाल आए, जो हमेशा ऐसी घटनाओं के बाद आते हैं. इन्हें ये अधिकार किसने दिया? ये हिंसा पर कैसे उतर सकते हैं? सो कॉल्ड मॉरेलिटी के शोर में एक अच्छा इंसान बनने का क्या? आखिर प्यार से इतनी नफरत क्यों है? हमारी सोसाइटी इतनी हिप्पोक्रेट क्यों है? जब जरूरत होती है, तब इनके मुंह से आवाज क्यों नहीं निकलती है?

मॉरल पुलिसिंग हमारी सोसायटी के खून में है

मॉरल पुलिसिंग के लक्षण हमारी सोसाइटी में हमेशा से रहे हैं. लड़के-लड़कियों को संस्कृति और मर्यादा की परिभाषाएं घुट्टी में पिला दी जाती है. घर के सदस्यों के अलावा पास-पड़ोसी भी सामने वाले को उसकी लिमिट का एहसास कराना अपना धर्म समझते हैं. लड़कियों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए, कैसे चलना चाहिए, कैसे देखना चाहिए और लड़कों को कैसे बिहेव करना चाहिए, कैसे मर्दाना रुतबा बनाना चाहिए, कैसे लड़कियों जैसी हरकतें नहीं करना चाहिए, ये सब कुछ सबक शुरुआत से ही खून में घोल दिए जाते हैं.

किसी कपल का हाथ पकड़ना, एक दूसरे के गले लगना, एक दूसरे को चूमना, हमेशा से भारतीय समाज के लिए मर्यादा से बाहर की चीज रही है, इसे अपराध के तौर पर ट्रीट किया जाता है. लेकिन अब तक लोग इसकी निंदा करते थे, बुरी नजर से देखते थे, जो अब हिंसा में बदल रही है. न जाने लोगों ने कैसे मान लिया कि वो कभी भी, कहीं भी, किसी को धमका सकते हैं, हड़का सकते हैं और उसको शारीरिक रूप से हानि पहुंचा सकते हैं. क्या रोमियो स्क्वाड का कॉन्सेप्ट आम लोगों को भी उकसा रहा है?

अब वो सवाल जो मॉरल पुलिसिंग का ठेका उठा रखने वालों से पूछना चाहिए, वो ये कि जब किसी लड़की को खुलेआम छेड़ा जाता है, जब किसी औरत/आदमी को पीटा जा रहा होता है, जब जाति, धर्म के नाम पर किसी के ऊपर अत्याचार किया जा रहा होता है, जब कोई भूख-प्यास से मर रहा होता है, तब इनकी नैतिकता कहां जाती है? ये तब अपनी आवाज क्यों नहीं उठाते हैं? तब इन्हें अपने काम से काम रखने की बात क्यों याद आती है? भारत में भीड़तंत्र सिर्फ रावण क्यों पैदा करता है? राम क्यों नहीं?

हिंसा को जायज कैसे ठहराया जा सकता है?

हमारे संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात की गई है. और वैसे भी कौन सा ऐसा संविधान, धर्म या धर्मिक पुस्तक हिंसा करने की शिक्षा देती है? समाज को गंदा करने का तर्क देकर हिंसा को जायज कैसे ठहराया जा सकता है? ध्यान रखिए कि यहां अभद्रता या पब्लिक में सेक्सुअल एक्ट का प्रदर्शन करने को जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की जा रही. वैसे भी हमारे इस देश में पब्लिक में हग करने को सामान्य होने में वक्त लगेगा. ये चीजें वक्त के साथ ही बदलती हैं. आज से 30 साल पहले जिस तरीके के कपड़े पहनने का लड़कियां सोच भी नहीं सकती थीं, आज रिवीलिंग कपड़े पहनने पर भी कोई ध्यान नहीं देता. इसी तरह चीजें सामान्य हो जाती हैं. जो चीज जितनी एक्सपोज होती है, लोग उसको उतने सामान्य तरीके से लेना शुरू करते हैं. और वैसे भी याद रखिए, इसी देश में खजुराहो जैसी धरोहर है और इसी देश में कामसूत्र लिखा गया था.

कुल मिलाकर अगर हम सोसाइटी को शांतिपूर्ण बनाने या बेहतर समझ विकसित करने में योगदान नहीं दे सकते हैं हमें इसमें खलल डालने का भी कोई हक नहीं हैं. अच्छा इंसान बनने, दूसरों पर अपनी सोच न थोपने, दूसरों को स्वीकार करने से ज्यादा अच्छा क्या हो सकता है? और हां एक समाज के तौर पर हमें ये भी सोचना चाहिए कि हमारा कौन सा कदम इसे आगे ले जा सकता है और कौन सा कदम एक सुंदर सी भावी दुनिया को गर्त में भेज सकता है.