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कठुआ-उन्नाव रेप केस: सिर्फ फांसी काफी नहीं, सियासी और धार्मिक नजरिया भी बदलना होगा

हम ऐसे माहौल में डूबे हैं, जहां महिलाओं की इज्जत नहीं होती. ऐसे में सिर्फ फांसी से बात नहीं बनेगी इसके लिए नजरिया बदलना जरूरी है

Milind Deora

जब कठुआ में बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखने वाली आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार के बाद उसकी निर्मम हत्या की खबर आई. साथ ही उन्नाव में बलात्कार के एक साल पुराने मामले ने सुर्खियां बटोरीं, जिसमें एक विधायक आरोपी है, तो देश भर में नए सिरे से दहशत, गुस्सा और विरोध-प्रदर्शन होने लगे.

पिछली बार पूरे देश की अंतरात्मा को ऐसी ही एक घटना ने बुरी तरह तब झकझोरा था, जब निर्भया कांड की बर्बरता के खिलाफ दिसंबर 2012 में लोगों का गुस्सा भड़क उठा था. उस घटना के बाद बड़े पैमाने पर आम लोगों ने घटना के खिलाफ आवाज उठाई थी. छात्रों और युवाओं की बड़ी तादाद घटना के प्रति आक्रोश जताने के लिए सड़कों पर उतर गए थे, खास तौर से दिल्ली में, जहां ये घटना हुई थी.


हालांकि ये घटना बुरी तरह हिला देने वाली थी. लेकिन, इस घटना की वजह से महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर उभर कर सामने आए थे. विरोध-प्रदर्शन और लोगों के आक्रोश को देखते हुए, सरकार ने रिकॉर्ड समय में एक न्यायिक कमेटी का गठन कर दिया था, जिसकी अगुवाई पूर्व चीफ जस्टिस वर्मा कर रहे थे.

फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा

इस कमेटी ने एक महीने के भीतर आपराधिक कानूनों में बदलाव की सिफारिशों वाली अपनी रिपोर्ट दे दी थी. तब की सरकार ने 2013 में आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश जारी किया था, जिसमें जस्टिस वर्मा कमेटी की कई सिफारिशों को शामिल किया गया था. इस अध्यादेश में यौन अपराधों के लिए कठोर कानून बनाए गए थे. इसके लिए भारतीय दंड संहिता, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर और इंडियन एविडेंस एक्ट में बदलाव किए गए थे.

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लेकिन, सरकार के फौरी कदम उठाने के बावजूद, अपराध के लिए सख्त सजा का प्रावधान करने के बावजूद, महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध केसे मुकदमों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के बाद भी हम देख रहे हैं कि यौन शोषण और बलात्कार की घटनाएं रोज हो रही हैं. ऐसी घटनाएं बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों, कस्बों और गांवो तक में हो रही हैं. हम सिर्फ अंदाजा ही लगा सकते हैं कि ऐसी न जाने कितनी घटनाओं की तो पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं लिखाई जाती. न ही वो मीडिया में सुर्खियां बनती हैं.

जैसे निर्भया केस के बाद पूरे देश में गुस्सा भड़क उठा था. ठीक उसी तरह कठुआ में आठ साल की बच्ची से बलात्कार के बाद निर्मम हत्या पर लोगों की नाराजगी भड़क उठी. हालात को इस बात ने और बिगाड़ दिया कि इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई. इनमें से एक आरोपी तो पुलिसवाला ही था, जिसके बचाव में एक राजनैतिक पार्टी के नेता उतर पड़े थे. जनता के गुस्से ने एक बार फिर सरकार को चुप्पी तोड़ने पर मजबूर किया. जनता की नाराजगी दूर करने के लिए सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर दिया. ये अध्यादेश महज लोगों की नाराजगी दूर करने के लिए सरकार की फौरी कोशिश थी, जिसमें 12 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार पर मौत की सजा का प्रावधान है.

अगर सरकार वाकई ऐसे मामलों में अपनी संजीदगी जताना चाहती थी, तो सबसे पहले तो उसे हर उस सियासी लीडर या पार्टी के कार्यकर्ता को बाहर कर देना चाहिए था, जो बलात्कारी के समर्थन में आवाज उठा रहा हो. बलात्कारियों के समर्थन में सियासी दलों से उठी आवाज ने हमारे सिस्टम में आ गई सड़न को ही उजागर किया है. और ये बात हर पार्टी पर लागू होती है. मगर, सरकार ने अध्यादेश जारी करके एक गंभीर मसले से सतही तौर पर निपटने की कोशिश की.

यहां सवाल ये है कि जब हमने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए कानून में बदलाव करके उन्हें सख्त बनाया है, जैसे कि 2013 में किए गए बदलाव, तो भी महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने में हम क्यों नाकाम रहे हैं? ऐसे कानूनी बदलावों से यौन अपराध खत्म होने तो दूर, कम भी नहीं हुए हैं. ऐसे में शायद अब वक्त ये आ गया है कि हमें यौन अपराधों से निपटने के तरीके पर गौर करना होगा. हमें ये पता लगाना होगा कि क्या सख्त कानून वाकई ऐसे अपराधियों के दिल में डर पैदा करते हैं? हमें ये भी समझना होगा कि ऐसे अपराधों की वजह हमारे समाज की सोच है. जिसके असर की वजह से ही यौन अपराधों से निपटने के लिए बनाए गए सख्त कानून बेअसर साबित हुए हैं.

पिछड़ी सोच से बाहर निकलने की जरूरत

महिलाएं लंबे समय से जुल्मो-सितम और हिंसा की शिकार होती रही हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारा मर्दवादी समाज है, जो औरतों को दोयम दर्जा देता है. सोसाइटी में महिलाओं के बारे में ये सोच आम है कि उन्हें तो बस मर्दों के बनाए दायरे में रहना है. उनके हुक्म की तामील करनी है, और मर्दों की सेवा करनी है. अफसोस की बात ये है कि ऐसे विचार हमारे देश में आम हैं, अपवाद नहीं. जबकि हम ये समझते हैं कि तेजी से तरक्की करते हमारे शहरों में लोगों की सोच में भी खुलापन आया है. सच तो ये है कि देश के बड़े हिस्से में आज भी औरतों को दोयम दर्जे का इंसान माना जाता है. और इस सोच की वजह से महिलाएं हर तरह के जुल्मो-सितम की शिकार होती हैं.

सवाल ये है कि आखिर हम क्यों इस तरह की घटिया सोच को जड़ से नहीं उखाड़ पाए हैं? इस सवाल के जवाब में हमें ये देखना होगा कि हमारे देश में सियासी, धार्मिक और सामुदायिक नेताओं का आम लोगों पर कितना गहरा असर है. ये नेता फिर चाहे वो सियासी हों, या धार्मिक, वो ये बयान देते हैं कि महिलाओं के छोटे कपड़ों की वजह से वो बलात्कार की शिकार बनती हैं. वहीं किसी को महिलाओं के रात में घर से निकलने में बलात्कार की वजह नजर आती है.

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हम ऐसे माहौल में आकंठ डूबे हुए हैं, जहां महिलाओं की इज्जत नहीं होती. उनके प्रति अच्छी सोच नहीं रखी जाती. और ऐसे बयानों से महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराधों को जायज ठहराया जाता है. अब जब समाज में यही सोच हावी हो, तो हम केवल कानून बनाकर तो इस सोच को नहीं मिटा सकते.

हमारे लिए ये समझना भी अहम है कि यौन अपराधों में सत्ता और ताकत के समीकरण कैसा रोल निभाते हैं. महिलाओं के प्रति यौन अपराध केवल काम भावना की वजह से नहीं होते. अक्सर ये जुर्म लोग अपनी ताकत दिखाने और खुद को महिलाओं से ऊंचे दर्जे का होने का दम भरने के लिए करते हैं. सदियों से महिलाओं के शरीर को हासिल करना विजेता अपना हक समझता रहा है.

लड़ाई चाहे दो समुदायों के बीच की हो, दो संप्रदायों के बीच की, या फिर दो शासकों के बीच की. जंग में जीतने वाला हमेशा दुश्मन की औरतों को शिकार बनाता रहा है. साम्राज्य के विस्तार के दौरान महिलाओं का यौन शोषण एक आम बात हुआ करती थी. ऐसे में अचरज की बात नहीं कि उस मध्यकालीन सोच को हम केवल कानून में बदलाव के जरिए नहीं खत्म कर सकते.

कई बार लड़कियों से यौन हिंसा उसे सबक सिखाने के लिए भी की जाती है. जब कोई लड़की समाज के बनाए कायदे और दायरे तोड़ती है. उन्हें मानने से इनकार करती है, तो उसे सबक सिखाने के लिए उसका यौन शोषण किया जाता है. फिर उसके साथ हुए जुल्म को उसकी गलतियों का नतीजा बताकर जायज ठहराया जाता है. कहा जाता है कि लड़की ने ठीक ढंग से कपड़े नहीं पहने थे, या फिर वो देर रात घर से बाहर निकली थी. इस संदर्भ में तरक्कीपसंद सोच औरत-मर्द के बीच सेहतमंद रिश्ते की बात करती है.

सेक्स को किसी भी शख्स का बुनियादी हक समझती है. इसके मुकाबले, रूढ़िवादी सोच सेक्स को लेकर बंद दरवाजे वाली होती है. जिसको लगता है कि यौन संबंध की बात करना या अपनी सेक्स अपील को जाहिर करना बुरी बात है. समाज में ऐसे तबके के लोग हैं जिनके लिए वैलेंटाइन्स डे बुरी बात है. जो प्रेम संबंधों को लेकर प्रेमी जोड़ों को निशाना बनाते हैं. उन्हें क्लब या पार्क में बैठा देखकर पिटाई करते हैं. ऐसी हरकतें करने वाले ये समझते हैं कि प्रेमी जोड़े, मोहब्बत करके भारतीय समाज के मूल्यों से खिलवाड़ कर रहे हैं.

महिलाओं के प्रति सोच बदलने की जरूरत है

नीति के नजरिए से देखें तो हमें अपने स्कूलों और शिक्षण संस्थाओं में बच्चों को सेक्स एजुकेशन देनी चाहिए. दुनिया के तमाम देशों में ऐसा हो रहा है. इसमें बहुत कामयाबी भी मिल रही है. जरूरत है कि हम सेक्स को लेकर बुरे खयालात बदलने की कोशिश करें. इस बारे में युवाओं से खुलकर ईमानदारी से चर्चा करें. उन्हें सेक्स और यौन संबंधों को लेकर जागरूक करें. उन्हें सेक्स में आपसी सहमति और रजामंदी की अहमियत बताएं.

हमारे समाज में भी महिलाओं के प्रति सोच बदलने की जरूरत है. फिल्मों, टीवी शो और खेलों के जरिए हम महिलाओं की भागीदारी और उनकी अहमियत को लोगों को समझा सकते हैं.

हालांकि ये बहुत मुश्किल और लंबा सफर होगा, मगर हमें अपने सामाजिक मूल्यों में बदलाव के लिए काम करने की जरूरत है. ताकि हम लोगों की विचारधारा में तब्दीली ला सकें. हम अपने घरों, आस-पड़ोस और मोहल्लों में जुल्मो-सितम की घटनाओं के विरोध से इसकी शुरुआत कर सकते हैं, हम अपने दोस्तों और परिजनों के बीच महिलाओं से बुरे बर्ताव के प्रति विरोध जता सकते हैं.

लंबे वक्त से हमने अपने सियासी और धार्मिक नेताओं को हमारी संस्कृति की दश-दिशा तय करने का जिम्मा दे रखा है. इस में कोई शक नहीं कि इन लोगों ने हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को हड़प लिया है. अब वो अपने खयालात को नियम बनाकर हम पर थोप रहे हैं. वक्त आ गया है कि हम नागरिक के तौर पर ऐसी 'मोरल पुलिसिंग' या पुरातनपंथी नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों के खिलाफ आवाज उठाएं और इसके नाम पर अन्याय और हिंसा करने वालों का विरोध करें. समाज की दशा-दिशा तय करने का हक हम वापस छीनें.

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