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कश्मीरी मुस्लिमों और जम्मू के हिंदुओं ने किया किनारा, क्या देश देगा बकरवालों का साथ?

इस घड़ी बकरवालों को इंसाफ और कानून के संरक्षण की जरूरत है, जिससे फिर से ऐसा ना हो, और वो खुद को बुनियादी तौर पर संरक्षित रख सकें

Anita Sharma

जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले के रसाना गांव में बकरवाल बच्ची के 10 जनवरी 2018 को अपहरण, बलात्कार और हत्या की घटना की प्रेस और सोशल मीडिया में भरपूर कवरेज मिली. इस तरह की तमाम खबरों की तरह इसकी कवरेज में भी इस समुदाय और पीड़िता के पिता की खराब दशा को एक तयशुदा तरीके से दिखाने की कोशिश की गई.

यह पहली बार है कि जम्मू कश्मीर के बकरवाल और गुज्जर देश की निगाहों के केंद्र में हैं. तकलीफों और बदकिस्मती की तमाम दास्तानों के साथ आधुनिक लोकतंत्र में नुमाइंदगी करने वाले बकरवाल लड़कर और राजनीतिक तिकड़मों से देश के अंदर अपने लिए नुमाइंदगी मांगने को मजबूर हुए, जिसने उनकी परंपरागत जीवन शैली को और नाजुक तथा दुश्वार बना दिया. इसलिए जरूरी है कि हम गंभीरता से उनकी मांगों और मामले के उन पर असर पर विचार करें, क्योंकि यही वो लम्हा है जो उनके समुदाय को निर्णायक रूप और दिशा देगा.


बकरवालों के साथ खड़े होने की जरूरत

अपने बिल्कुल रूढ़ अर्थों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व, खासकर जो इस किस्म के सामूहिक सदमे से उपजा हो, समुदाय को अप्रिय और आंखें खोलने वाली राजनीतिक हकीकतों से रूबरू कराता है. कठुआ बलात्कार कांड और उन्नाव बलात्कार कांड में निश्चित रूप से यही साम्य है. प्राइम टाइम की खबरों के कोलाहल में मैदान के लोगों और जम्मू कश्मीर के अन्य समूहों और बकरवाल के बीच पैदा होती दुविधा की स्थिति पर बहुत कम ध्यान दिया गया. चूंकि बकरवाल इस मुश्किल घड़ी में अपने हक के लिए खड़े होने का साहस दिखा रहे हैं, यह हमारी जिम्मेदारी है कि जो लोग देश में अच्छी स्थिति में पहुंच चुके हैं, वो इस मामले पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दें जो उनके लिए महत्वपूर्ण है.

यह मामला पूरी तरह देश के सामने और चर्चा में आने में कुछ समय लग गया, क्योंकि जैसा कि बकरवाल मित्र बताते हैं कि किस तरह बकरवाल एक्टिविस्टों और उनसे सहानुभूति रखने वालों को इस मुद्दे को लेकर आंदोलन का आह्वान करना पड़ा था. इनमें से कई रासना गांव में पीड़िता की लाश मिलने से एक दिन पहले 16 जनवरी को पहुंच गए थे. पीड़िता की लाश उसके गायब होने के सात दिन मिली थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसे नशा दिए जाने, बलात्कार किए जाने, अंदरूनी अंगों के फट जाने और गला घोंटने व सिर में लगी चोट से मौत होने का पता चला. कठुआ में इससे पहले कभी किसी बकरवाल के साथ ऐसी वारदात नहीं हुई थी. इस बात ने आग में घी का काम किया कि पीड़िता के मां-बाप को उसे स्थानीय कब्रिस्तान में दफनाने नहीं दिया गया, जिसके नतीजे में अब नन्ही पीड़िता गांव से चार-पांच किलोमीटर दूर जंगल में एक सुनसान पहाड़ी में दफन है.

तलवार की धार पर चलते हैं बकरवाल

खासकर गांव में दफनाने से इनकार किए जाने की घटना बेहद मार्मिक है. यह उनके बसावट वाली आबादी से कमजोर होते रिश्ते का इशारा देती है. कश्मीरी मुसलमानों और जम्मू के हिंदुओं- दोनों के लिए बकरवाल धीरे-धीरे बाहरी लोग बनते जा रहे हैं. एक खानाबदोश जाति का होने के कारण घाटी में दहशतगर्दी का नुकसान भी सबसे ज्यादा उन्हें ही उठाना पड़ा है. हालांकि बहुत से बकरवाल दहशतगर्दी की भयावह मुश्किलों के बावजूद अब भी पहाड़ों के ऊपर से नीचे का प्रवास जारी रखे हुए हैं. दहशतगर्दों द्वारा अपने कई नौजवान बच्चों को अगवा कर लिए जाने के बाद अब वे अपने बच्चों को स्थायी रूप से बस चुके अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के पास छोड़ देते हैं. लेकिन कठुआ बलात्कार कांड ने उनको झकझोर दिया है. बकरवाल आमतौर पर खबरों में नहीं रहते. वो किनाराकशी करते हैं और खामोशी से चलते रहते हैं. लेकिन अब ‘सभ्य बस्तियों’ के दलदल में घुसे बिना इस मौजूदा दौर से कैसे निपटा जाए?

बकरवाल समुदाय की एक महिला. (इमेज- रॉयटर्स)

कई कश्मीरी उन्हें भारत का समर्थक कहकर उन पर तंज करते हैं, लेकिन ज्यादातर ‘आजादी’ के लिए कश्मीरी आंदोलन में शामिल होने को रिझाते हैं, जिससे कि बकरवाल के उनके साथ होने से उनके आंदोलन को नैतिक मान्यता मिल सके. जम्मू के हिंदू, जिनके साथ बकरवाल के गर्माहट भरे रिश्ते रहे हैं, अब वो इन्हें मुस्लिम प्रवासियों के साथ मिलाकर देखते हैं, खासकर कठुआ और सांबा में, जहां बकरवाल की आबादी कम ही है. जब भी संकट की स्थिति पैदा होती है, बकरवाल के सामने तलवार की धार पर चलने के सिवा कोई चारा नहीं होता. एक बकरवाल ने हमें बताया, 'बुरहान वानी की मौत के बाद कुछ कश्मीरियों ने हमें कहा कि चूंकि हम भारत राष्ट्र के वफादार हैं, हमें मार डाला जाएगा या कश्मीर से भगा दिया जाएगा और हमारी जमीनें उनमें बांट दी जाएंगी. हमें दांत निपोर कर यह बर्दाश्त करना था.'

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एक के बाद एक सभी सरकारों ने सुविचारित ढंग से उनके वन-अधिकारों और पुनर्वास की जरूरतों की उपेक्षा की और एफआरए आज भी जम्मू कश्मीर में लागू नहीं हो सका है. प्रस्तावित कानून जो बकरवाल की पारंपरिक जीवन शैली को सुरक्षित रखने की कोशिश करता है. यह हर किसी- हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए सुविधाजनक है. जैसा कि एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले बकरवाल मित्र का कहना है, 'हमें बस जुबानी जमा-खर्च मिलता है, अगर पीडीपी वाकई हमारी मदद करना चाहती है, तो जब हमने हाल ही में इस कानून को पेश किया तो उन्होंने इसको क्यों पास नहीं किया?'

अपनी पहचान खो रहा है ये समुदाय

यह सिर्फ राजनीतिक अवसरवाद है, जिसके कारण बकरवाल मंझधार में फंसे हैं और कई बार अपने बचाव में खतरनाक व जोखिम भरे तरीके अपनाते हैं, जो उन्हें ऐसे लोगों के रहमो-करम पर निर्भर कर देते हैं, जो उन्हें निर्बल और आसानी से शोषण किए जाने लायक समझते हैं. जिन बकरवाल के पास कुछ ताकत है, उन्होंने धीरे-धीरे जमीन जुटा ली है और बस गए हैं या बसने की प्रक्रिया में हैं, वो नौकर रखकर या अनपढ़ पारिवारिक या कबीले के सदस्यों की मदद से भेड़-बकरी पालन से कमाई करते हैं. दूसरी तरफ, गरीब बकरवाल नकदी की बढ़ती मांग के चलते अपना पुश्तैनी काम छोड़कर कस्बों-शहरों में दिहाड़ी मजदूर, खेतिहार मजदूर जैसे अन्य रोजगार को अपना रहे हैं और धीरे-धीरे अपनी खास खानाबदोश पहचान खोते जा रहे हैं.

राष्ट्र बसी हुई आबादी- उदाहरण के लिए सबसे बुनियादी स्तर पर गांवों- को शक्तिसंपन्न बनाकर लोकतंत्र को सींचता है. लेकिन बकरवाल का इलाका गांवों से भी बाहर निकल जाने के बाद शुरू होता है. बकरवाल गांवों, गांवों के पुरवों और सुदूर बस्तियों की पहुंच से भी बाहर रहते हैं और इसी लिए ग्रामीण सशक्तीकरण व विकास की प्रक्रिया से बाहर हैं, जिस कारण वह एक तरह से सभ्यता के विकास से वंचित आबादी जैसे लगते हैं. उन पर चस्पा 'पिछड़ा, अशिक्षित, बेघर' का ठप्पा उनकी पुरानी भूमिका के उलट है, जब बकरवाल को ऐसे लोग माना जाता था, जिन्होंने वास्तव में बाहरी दुनिया को सुदूर बसे कश्मीरी गांवों से परिचित कराया था. हालांकि यह खानाबदोश जातियों के लिए हमेशा से रही बैर की भावना है, जिसमें साथ ही उनकी अपने बच्चों को शिक्षित करने की ख्वाहिश भी है जिसके कारण कई अर्ध-बसाहट को अपना रहे हैं या अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए नए तरीकों व संपर्कों का सहारा ले रहे हैं. पीड़िता के मां-बाप भी चाहते थे कि उनकी बेटी स्कूल जाए.

बकरवाल समुदाय शांति से जीने की चाह में अपनी पहचान खो रही है. (इमेज- रॉयटर्स)

मजहब का नहीं सियासत का मसला है

कठुआ बलात्कार कांड की व्यापक कवरेज ने कई बकरवालों को अचंभित कर दिया है. इधर हिंदुत्व की राजनीति नए किस्म की सामाजिक व्यवस्था को जन्म दे रही है. वो एक तरह से वंचित होने की भावना का दोहन कर रहे हैं और व्यामोह (नॉस्टेल्जिया) व खीझ को गुस्से व बदले की भावना में तब्दील कर नए किस्म की हिंसा को जन्म दे रहे हैं. हर नुकसान के लिए एक निशाना तय है, जिसे मार गिराना है. और यह किसी भी तरीके से करना है, चाहे वह सही हो या गलत. ऐसी अनजानी राजनीति के उदाहरण अचानक होने वाली प्रतिक्रिया और आसपास के गांवों के लोगों के द्वारा भड़काई गई घटनाओं के रूप में देखने को मिलते हैं. जैसा कि एक मित्र और बकरवाल स्टूडेंट एक्टिविस्ट ने बताया, 'पीड़िता की लाश मिलने पर गांव की कई औरतें रो रही थीं और उसको बड़े प्यार से याद कर रही थीं और उसके जो हुआ उस पर गुस्से में थीं. अब इन्हीं में से कई औरतें उस धरने में शामिल हैं, जहां सीबीआई जांच की मांग की जा रही है.'

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एक अन्य मित्र व बकरवाल एक्टिविस्ट जाहिद परवेज चौधरी ने बताया कि एक और घटना हुई, जिसने हमें अचंभित कर दिया. 'जिस दिन हमने पीड़िता को दफन किया उसके अगले दिन शुक्रवार था. गरीब पीड़िता के बारे में और लोगों को बताने के लिए हमने इलाके की अन्य मस्जिदों में जाने का फैसला लिया. हम कठुआ कस्बे में गए और कई लोगों से मिले. फिर इसके बाद हमने एक सड़क पर जाम लगाने की कोशिश की, लेकिन हम नाकाम रहे क्योंकि हमारी संख्या बहुत कम थी. वह पैंथर पार्टी थी, जिसने पीड़िता के साथ जो कुछ भी हुआ, यह जानने के बाद हमारी मदद की. हम उनकी मदद से एक सड़क पर जाम लगा सके. जनवरी में यह मामला हिंदू-मुस्लिम का नहीं था, पैंथर पार्टी में ज्यादातर हिंदू ही हैं, लेकिन उनकी हमदर्दी हमारे साथ थी और वो समझते थे कि हमारी लड़की के साथ जो कुछ भी हुआ वह मजहब से जुदा मामला था. अब हम देख रहे हैं कि पैंथर पार्टी के वही सदस्य हिंदू एकता मंच के साथ प्रदर्शन कर रहे हैं…इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि ये हिंदू-मुस्लिम विभाजन है, यह तो राजनीतिक है. अगर यह मजहब का मामला था तो हम कैसे इतने लंबे समय से सालों-साल से एक साथ अमन से रहे?'

एक और क्षेत्रीय तथ्य जिस पर विचार किया जाना चाहिए, वह यह है कि राजौरी, पुंछ और रियासी जिलों, जहां गुज्जरों और बकरवालों की बड़ी आबादी है और उनका राजनीतिक प्रभाव है, उसकी तुलना में कठुआ और सांबा में इनकी आबादी काफी कम है. कठुआ और सांबा में अपनी कम आबादी और विभाजनकारी राजनीति के चलते ये खानाबदोश आसान निशाना बन जाते हैं.

लाचारी और सरकारी निर्भरता में खो गए हैं बकरवाल

उनकी लाचारी, कई तरह से इस मामले में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात है. बकरवाल हमेशा कमजोर नहीं रहे हैं. यह ऐसा समुदाय है, जिसके मर्द और औरतें हिमालय तथा पीर पंजाल की सबसे मुश्किल चढ़ाई और दर्रों को पार करते हैं. उनमें ज्ञान की परंपरा रही है और उन्हें अपने काम में महारत हासिल है. वह ऊंचे पहाड़ों के दर्रों के रास्तों को जानते हैं, जिन पर पूरी ट्रैकिंग इंडस्ट्री निर्भर करती है, यहां तक कि वन विभाग के अफसर भी अनमने भाव से ही सही उनकी श्रेष्ठ जानकारी को स्वीकार करते हैं. बकरवाल औरतें अपनी हिफाजत करने में मजबूत और ज्यादा खुदमुख्तार होती हैं. शायद यही खुदमुख्तारी की उग्र प्रवृत्ति हमें उनको समझ पाने में रुकावट है, लेकिन इसी के चलते उन्हें ‘पिछड़े’ का तमगा दे दिया गया है. बीते 28 सालों में उनका इतिहास बढ़ती लाचारी, और सरकार पर निर्भरता का रहा है, और ऐसे हालात में इंसान का आसानी से शोषण किया जा सकता है.

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इस घड़ी बकरवालों को इंसाफ और कानून के संरक्षण की जरूरत है, जिससे फिर से ऐसा ना हो, और वो खुद को बुनियादी तौर पर संरक्षित रख सकें. लेकिन खुद को पीड़ित दिखाने और इंसाफ मांगने के लिए यह बहुत बड़ी कीमत है. उम्मीद करते हैं कि पहले भी मान-सम्मान की कीमत पर उनसे किए गए इंसाफ के अनगिनत झूठे वादों की तरह उनकी मुश्किलों के प्रति शुरुआती चिंता के बाद यह जज्बा तेजी से खत्म नहीं हो जाएगा.

पीड़िता के पिता और परिवार पीर पंजाल के सनासर को जाने के लिए अब कठुआ छोड़ चुके हैं, शायद इसलिए क्योंकि व्यवस्थित जीवन की अनजानी साजिशों से दूर दुनिया की सबसे ऊंची पहाड़ियों पर जीवन को वो बहुत बेहतर तरीके समझते हैं और जिसकी उनको अपना दर्द भुलाने के लिए जरूरत भी है.

(अनीता शर्मा खानाबदोशों की समाजविज्ञानी हैं और दिल्ली में रहती हैं. उन्होंने बकरवाल ऑफ जम्मू कश्मीर नाम की किताब लिखी है, और उन्होंने बकरवालों पर एक दशक से ज्यादा समय तक अध्ययन किया है.)