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कश्मीर: हुर्रियत और हिजबुल मुजाहिदीन में टूट, ये तो होना ही था

हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर ने हुर्रियत नेताओं के सिर काटने की धमकी दी है

FP Staff

कश्मीर में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादियों की राहें आखिरकार अलग हो गई हैं.

सोशल मीडिया पर आए एक ऑडियो स्टेटमेंट में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर जाकिर मूसा ने सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व वाले कश्मीरी अलगाववादियों को धमकाया है कि अगर कश्मीर के मामले को धार्मिक के बजाय राजनीतिक बनाया गया तो उन्हें भी हिंसा का शिकार होना होगा.


मूसा ने इस वीडियो में कहा, ‘कुछ दिन पहले संयुक्त प्रतिरोध के नेताओं ने एक बयान में कहा कि कश्मीर की लड़ाई राजनीतिक है और इसका मजहब से लेना-देना नहीं है.… हम हुर्रियत के लोगों चेतावनी दे रहे हैं कि हमारे मामले में दखल न दें और अपनी गंदी सियासत पर ही ध्यान दें, नहीं तो उनके सिर काटकर लाल चौक पर टांग देंगे.’

उसके इस बयान से कश्मीर की आजादी ब्रिगेड में हलचल मच गई है.

इसमें कोई अचरज नहीं होगा, अगर आने वाले कुछ दिनों में कई कश्मीरी और आजादी समर्थक इस वीडियो की सत्यता पर सवाल खड़े करेंगे या फिर इसे डोवाल एंड कंपनी का कश्मीरियों को तोड़ने का एजेंडा घोषित कर देंगे.

जो भी आरोप लगें लेकिन इतना तो साफ है कि हुर्रियत और हिजबुल का यह ब्रेकअप तय था. इसकी जिम्मेदारी हुर्रियत पर ही है.

इसकी शुरुआत तब हुई जब गिलानी ने 9/11 हमलों के बाद ओसामा बिन लादेन को मुस्लिम उम्मा का नेता घोषित किया था. उन्होंने अल कायदा से बार-बार कश्मीरियों की समस्या को भी अपने एजेंडे में शामिल करने को कहा था. गिलानी ने अल कायदा से अमेरिका और इजरायल के साथ-साथ भारत को भी अपने दुश्मनों की लिस्ट शामिल करने को कहा था.

हुर्रियत की मंशा अपनी इमेज सुधारने और अपनी सार्थकता बनाए रखने की थी क्योंकि उस समय कश्मीरी कॉन्फ्रेंस के पल-पल बदलने के इतिहास से नाराज थे और घाटी में मुख्यधारा की राजनीति जड़ें मजबूत कर रही थी. लेकिन हुर्रियत को एहसास नहीं था कि वह ऐसी आग से खेल रहा है जो उसे ही जला डालेगी.

अल कायदा जब दुनिया के जिहादी आंदोलन में बड़ा नाम था, उसी समय अबू मुसाब अल-जरकावी के नेतृत्व में इराक में एक और संगठन खड़ा हो रहा था जो क्रूरता और हिंसा में अल कायदा से आगे था. जल्द ही इस्लामिक स्टेट के नाम से दुनिया भर में जाना गया यह समूह अल कायदा से आगे निकल गया.

कश्मीर में राजनीतिक चर्चा और सड़कों पर हो रहे विरोध-प्रदर्शनों से कोई नतीजा न निकलते देख परेशान स्थानीय युवाओं ने इस संगठन को अपना लिया. घाटी में सऊदी से आए पैसों पर चल रही वहाबी मस्जिदों में सिखाए जा रही कट्टरता ने इस आग को और हवा दी.

इनमें से कई युवाओं ने हिजबुल का दामन थामा. हिजबुल का सितारा उस समय डूब रहा था और वह ताकत में लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों से पीछे था. इन युवाओं ने हिजबुल को कश्मीर में हिंसक उग्रवाद का लीडर बना दिया.

यह सबकुछ 2001 से 2015 के बीच हुआ. बुरहान वानी की पिछले साल मुठभेड़ में मौत इसी घटनाक्रम का एक अहम मोड़ थी. मूसा अब इसी को आगे बढ़ा रहा है. वानी के बाद कश्मीर में विरोध-प्रदर्शन का दौर चला. हुर्रियत इसका नेतृत्व करना चाहता था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. गिलानी ने ये भी दावा किया कि वानी ने उन्हें फोन किया था और उनके नेतृत्व को स्वीकार किया था. लेकिन प्रदर्शनकारी तब तक अपनी राह पकड़ चुके थे.

हुर्रियत की यह हालत कश्मीर के इतिहास और इस क्षेत्र में इस्लाम के स्वरूप को समझे बिना अल कायदा और फिर इस्लामिक स्टेट जैसे संगठनों की जी-हुजूरी का नतीजा है.

नतीजे सबके सामने हैं- उम्मीद है हुर्रियत अपनी गलती को जल्द समझेगी और इसे सुधारने के लिए भारत के साथ काम करेगी. इसमें जितनी देर होगी कश्मीर में उतना ही निर्दोषों का खून बहेगा.