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खुशहाल खेती के लिए कंपोस्ट पर ही करना होगा भरोसा

रासायनिक उर्वरकों बहुत ज्यादा उपयोग होने से मिट्टी की सेहत गिरी है जिससे उत्पादकता को नुकसान पहुंचा

K Yatish Rajawat

सरकार जब चाहती है कि दवा कंपनियां शोध और विकास में निवेश करें, तब क्या वह प्रयोगशाला में उपयोग किए जाने वाले उपकरणों पर सब्सिडी देती है? ताकि इससे कंपनियों के शोध और विकास का खर्च कम हो जाए. नहीं, सरकार ऐसा नहीं करती बल्कि यह दवा कंपनियों को सीधे ही शोध और विकास में किए गए निवेश पर आयकर में भारी छूट देती है.

शोध और विकास में निवेश की यह योजना दवा कंपनियों तक पहुंचती है क्योंकि यह उनकी सहायता से ही विकसित की गई है.


चलिए अब, देखते हैं कि किसानों के लिए बनी योजना कैसे काम करती है. सरकार किसानों की उत्पादकता और पैदावार बढ़ाना चाहती है इसलिए वह  रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी देती है.

मगर दुर्भाग्य यह है कि यह सब्सिडी रासायनिक उर्वरक कंपनियों को दिया जाता है ताकि वे कम कीमत पर उर्वरक की बिक्री कर सकें.

मगर किसानों के अलावा भी अन्य कई उद्योग कम कीमत वाले उर्वरकों का लाभ उठाते हैं. दरअसल, इन उर्वरकों में इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ रसायन इनमें से कई उद्योगों में कच्चे पदार्थ के रुप में प्रयोग किए जाते हैं.

रासायनिक उर्वरकों के भारी उपयोग से गिरी उत्पादकता

 

विडंबना यह है कि रासायनिक उर्वरकों के दाम कम होने से इनका बहुत ज्यादा उपयोग हुआ है और परिणास्वरुप मिट्टी की सेहत गिरी जिससे उत्पादकता को नुकसान पहुंचा.

अब किसान को अनुदानित रासायनिक उर्वरक की अधिक से अधिक मात्रा का प्रयोग उत्पादन का पुराना स्तर प्राप्त करने के लिए करना पड़ रहा है.

खेती के लिए जिस रसायनिक अनुपात की सिफारिश की गई थी वह नाइट्रोजन (N), फास्फोरस (P) और पोटैशियम (K) के अनुपात के लिहाज से 4:2:1 है. यह अनुपात साल 2012-13 में 8.2:3.2:1 था, जिसे उद्योगों की लॉबी वाली संस्था भारतीय उर्वरक संघ ने भी मिट्टी के लिए हानिकारक बताया था.

एनपीके (NPK) अनुपात में गिरावट का अर्थ है मिट्टी के उपजाऊपन और प्राकृतिक पोषक तत्वों में बड़ी तेजी से कमी आना. वर्ष 2013 में पंजाब में एनपीके (NPK)  का अनुपात 61.7:19.2:1, हरियाणा में 61.4:18.7:1, राजस्थान में 44.9:16.5:1 और उत्तर प्रदेश में यह 25.2:8.8:1 था.

दरअसल, रासायनिक उर्वरकों की खपत और खाद्यान्न उत्पादन आपस में जुड़े हुए हैं. जैसाकि निम्नलिखित तालिका दर्शाती है.

रासायनिक उर्वरक खपत और खाद्यान्न उत्पादन

(वर्ष 2008-09 से 2012-13)

2008-092009-102010-112011-122012-13
खाद्यान्न उत्पादन(मिलियन मीट्रिक टन)2344.702181.102447.802592.902553.60*
पोषक तत्वों में उर्वरक खपत

(लाख मीट्रिक टन)

249.09264.86281.22277.90255.36

*चौथा अग्रिम अनुमान

पोषक तत्वों पर आधारित सब्सिडी नीति में बदलाव के बावजूद उर्वरक के प्रयोग का अनुपात नहीं बदला है क्योंकि किसान अभी भी यूरिया का बहुत ज्यादा मात्रा इस्तेमाल कर रहे हैं.

सब्सिडी की जगह कहीं और ध्यान दे सरकार 

हालांकि अब समय आ गया है कि संपूर्ण रासायनिक उर्वरक सब्सिडी पॉलिसी पर एक बार दोबारा विचार किया जाए. सब्सिडी की राशि पर ध्यान देने या फिर अनुदान के वितरण की स्थिति सुधारने की बजाय अब समय यह सोचने का है कि किसान को प्रोत्साहन कैसे दिया जाए. ताकि उसकी उत्पादकता और पैदावार में ही बढ़ोत्तरी न हो बल्कि उसका लाभ भी बढ़े.

पिछले कई सालों से रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में कई गुणा वृद्धि हुई है जिस कारण किसानों के लाभ में कमी आई है.

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इस वजह से अब समय आ गया है कि रासायनिक उर्वरक सब्सिडी पॉलिसी को चरणबद्ध तरीके से खत्म किया जाए और किसानों को इससे मुक्ति मिले क्योंकि भारत रासायनिक उर्वरकों की कुल मात्रा का 58 फीसदी आयात करता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार मिट्टी की सेहत में सुधार की जरुरत का जिक्र कर चुके हैं. और इसी उद्देश्य से ‘मिट्टी स्वास्थ्य जांच कार्ड योजना’ की शुरुआत की गई. लेकिन ऐसा लगता है कि रसायन और उर्वरक मंत्रालय अभी भी इस दिशा में एक बेहतर नीति निर्माण के लिए उचित योजना बनाने को लेकर दुविधा में है.

क्या इस नीति का निर्माण किसानों के खेतों की मिट्टी की उत्पादकता बनाने और उनके लाभ को लगातार बनाए रखने के लिए है? इस प्रश्न का उत्तर किसानों के नाम पर रासायनिक उर्वरक कंपनियों को दी गई 70,000 करोड़ से ज्यादा की राशि के बेहतर उपयोग से मिल सकता है.

रासयनिक उर्वरकों की जगह आर्गेनिक खादों पर मिले सब्सिडी 

यह सरकार की ओर से दी जानी वाली दूसरी सबसे बड़ी सब्सिडी राशि है और यह उस उद्देश्य को पूरा नहीं कर पा रही है जिसके लिए इसे वितरित किया जा रहा है.

जब तक सब्सिडी रासायनिक उर्वरकों से जुड़ा रहेगा तब तक डायरेक्ट कैश ट्रांजैक्शन इसका समाधान नहीं हो सकता है.

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इसके लिए डायरेक्ट कैश ट्रांजैक्शन को जैविक उर्वरक या जीवाणु खाद के प्रयोग से जोड़ना होगा, ताकि किसान को फसल चक्र बदलने में सहायता मिले और वह अधिक पानी के प्रयोग वाली फसलें लगाने के बारे में नहीं सोचेगा.

ऐसा एकदम तो नहीं होगा लेकिन अब यह बहुत जरुरी हो गया है. क्योंकि पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और यहां तक कि हरियाणा के कुछ हिस्से पानी की कमी वाले यानी डार्क जोन में बदलते जा रहे हैं. दरअसल, धान की खेती के लिए गहरे बोरवेल पंपों के प्रयोग से जमीन में जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है.

बनानी होगी दीर्घकालिक नीति 

इस नीति के निर्माण की जिम्मेदारी रसायन और उर्वरक मंत्रालय की नहीं हो सकती है, बल्कि कृषि मंत्रालय और जल संसाधन मंत्रालय को इस पर काम करना होगा.

यह नीति उस व्यवस्था द्वारा भी नहीं बनाई जा सकती है जो देश में कृषि पद्धति को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार है. और ना ही यह उसी व्यवस्था द्वारा लागू ही की जा सकती है. ऐसे में इस पर एक बार फिर से सोचना होगा.

इन लक्ष्यों को हासिल करने की समय सीमा 2025 के अंत तक रखना सही नहीं है. हालांकि नीति का निर्धारण करने वाले इसी समय सीमा के पक्ष में हैं.

लक्ष्य इस तरह से बनाए जाएं ताकि हर छह महीने में उनको मापा जा सके. दरअसल, प्रत्येक खरीफ और रबी फसलों के बाद मापा जा सके.

अगर रासायनिक उर्वरक निर्माता अपनी आमदनी गंवाना नहीं चाहते हैं तो उन्हें जैविक खाद में हाथ आजमाने चाहिए और इसे केंद्र में रखकर ही एक बिजनेस मॉडल विकसित करना चाहिए.

सरकार द्वारा ऐसी किसी भी चीज को प्रोत्साहित क्यों किया जाए जो पर्यावरण और किसानों के लिए हानिकारक हो और दीर्घकालिक ना हो. इस मॉडल को जारी रखने में पैसे की बर्बादी देशहित में बिल्कुल नहीं है.