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जम्मू-कश्मीर: सेना की गाड़ी से आदमी बांधने को सही ठहराना कितना जायज है?

हममें से जो लोग भारतीय संविधान की परवाह करते हैं उनके लिए यह चिंता की बात है.

Aakar Patel

भारत के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी को कश्मीर में सेना की एक जीप से एक आदमी को बांधकर 'इंसानी ढाल' बनाने में कोई बुराई नजर नहीं आती.

उन्होंने कहा कि सैनिकों ने गाड़ी पर पत्थर फेंकने वाले प्रदर्शनकारियों से बचने के लिए अगर उनके साथी को जीप के आगे बांध लिया तो इस पर इतनी हायतौबा क्यों मचाई जा रही है.


समाचार चैनल एनडीटीवी के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, 'हाल में पत्थरबाजी करने वाले एक आदमी को सेना की गाड़ी से बांधे जाने की रिपोर्ट आई. इससे पत्थरबाजी करने वालों को नियंत्रित करने और चुनाव अधिकारियों को बचाने में मदद मिली. तो इसपर इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है.'

उन्होंने आगे कहा, 'हर रोज लोग मर रहे हैं. वहां माहौल बहुत उत्तेजित है. सेना प्रदर्शनकारियों से नहीं बल्कि आतंकवादियों से निपट रही है इसलिए उन्हें उनसे निपटना पड़ेगा.'

उनके मुताबिक, 'जो हमारी सेना कर रही है उस पर हमें गर्व होना चाहिए वे बहुत अच्छे तरीके से अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं. एसी वाले कमरों में बैठ कर आप सेना की आलोचना नहीं कर सकते. मेहरबानी करके सेना की जगह अपने आपको रख कर देखिए.'

कानूनी विश्लेषण

रोहतगी ने जो कुछ कहा है मैं कानूनी नजरिए से उसका विश्लेषण करना चाहता हूं. नागरिक के तौर पर हमारी सरकार के साथ हमारा एक अनुबंध होता है. हम उसे हिंसा का एकाधिकार देते हैं.

यह टर्म जर्मन समाजशास्त्री मैक्स बेबर से मिली है जिन्होंने भारत और यहां के धर्म का अध्ययन किया था. एकाधिकार का मतलब यह है कि सिर्फ स्टेट के पास ही किसी को शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाने की वैध शक्ति होती है.

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अटॉर्नी जनरल के मुताबिक स्टेट अगर नागरिक को मारता है तो वो गलत नहीं है

इसीलिए हत्या, बलात्कार और अन्य अपराध स्टेट के खिलाफ होते हैं और फिर स्टेट उनके खिलाफ मुकदमा चलाता है. ऐसे मामले का कोर्ट से बाहर रजामंदी से फैसला नहीं होता.

स्टेट नागरिकों को मौत की सजा जैसी चीजों के जरिए कानूनी रूप से हिंसा करने की इच्छा को दर्शा सकता है लेकिन वह ऐसा हमेशा कानून के मुताबिक करने का वादा करता है.

सभी निर्वाचित अधिकारी जब पद की शपथ लेते हैं तो वे संविधान का उल्लंघन न करने की कसम खाते हैं. फिर स्टेट अपने इन एजेंटों के जरिए वादे के मुताबिक जहां उपयुक्त समझता है इस हिंसा का इस्तेमाल करता है.

दुनिया के जिस हिस्से में हम रहते हैं वहां भीड़ को नियंत्रित करने के लिए अक्सर सरकारी हिंसा होती है. सभी भारतीय, बांग्लादेशी और पाकिस्तानी लोग 'लाठी चार्ज' टर्म से अच्छी तरह वाकिफ हैं.

हमारी सरकारों को इस बात पर पक्का भरोसा है कि नागरिक तो बस फालतू हैं और उन्हें ताकत के दम पर ही नियंत्रित किया जाना चाहिए. हमारे स्टेट के लिए अपने ही नागरिकों पर गोली चलाना कोई अनोखी बात नहीं है.

अपनों पर ही गोली

1970 में वियतनाम युद्ध में एक अहम मोड़ उस वक्त आया जब ओहायो यूनिवर्सिटी में पुलिस ने छात्रों पर गोली चला दी जिसमें चार लोग मारे गए. यह एक बहुत बड़ी घटना बन गई क्योंकि इस बात ने अमेरिकी लोगों को हिला दिया कि उनकी अपनी सरकार ही उन्हें मार रही है.

क्रॉसबाई, स्टिल्स, नाष और यंग जैसे पॉपुलर म्यूजिक ग्रुप ने इस घटना पर गीत बनाए. दुनिया के जिस हिस्से में हम रहते हैं, वहां सरकार की गोली से अपने ही नागरिकों का मरना कोई नई बात नहीं है.

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प्रदर्शन कर रहा कश्मीरी नागरिक (फोटो: पीटीआई)

मैं आपको एक मिसाल देता हूं. दरअसल यह एक खबर है अक्टूबर 2016 की है जिसमें लिखा गया था, 'आज सुबह झारखंड में हजारीबाग के निकट चिरुढीह गांव में पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोली चलाई जिसमें चार लोग मारे गए और लगभग 40 लोग घायल हो गए. पुलिस सूत्रों के अनुसार ये लोग अपनी जमीन के अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे. उनकी जमीन का अधिग्रहण एनटीपीसी (राष्ट्रीय थर्मल पॉवर कारपोरेशन) ने कोयले की खदान के लिए किया था. सरकारी क्षेत्र की इस कंपनी ने झारखंड के पूर्वी जिले सिंहभूम में करनपुरा घाटी के 47 वर्ग किलोमीटर के इलाके में कोयले का खनन शुरू करने का प्रस्ताव रखा है.'

मुझे नहीं पता कि इस लेख को पढ़ने वाले कितने लोगों को हजारीबाग में हुई मौतों के बारे में जानकारी होगी क्योंकि इस तरह की घटनाएं अक्सर भारत में होती रहती हैं.

अगर यह अमीर शहरी लोगों पर कोई आतंकवादी हमला होता तो पाठकों ने जरूर यह खबर अखबारों और टीवी पर देखी होती, लेकिन अपनी जमीन के जबरन कब्जा का विरोध करने वाले नागरिकों की स्टेट की तरफ से की गई हत्या कोई बड़ा मुद्दा नहीं है.

भारत और पाकिस्तान की सेनाएं जितने लोगों को मारती हैं उनमें से ज्यादातर उनके अपने नागरिक होते हैं. भारत में ऐसी मौतें पूर्वोत्तर, जम्मू कश्मीर और कोयले से मालामाल आदिवासी इलाकों में होती हैं.

खतरनाक दौर

रोहतगी पर ही लौटते हैं. उन्होंने मुख्य रूप से दो बातें कही हैं. पहली ये कि पत्थर फेंकने वालों समेत सभी प्रदर्शनकारी आतंकवादी होते हैं. दूसरी, चूंकि वे आतंकवादी हैं इसलिए अगर उनसे निपटते वक्त सेना कानून भी तोड़ती है तो उसमें कोई बुराई नहीं है. भारतीय स्टेट बार-बार अपनी जनता को किया गया वादा तोड़ता है

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भारतीय सेना ने कानून तो तोड़ा ही है साथ ही अपने नागरिकों और दुनिया से की गई सरकार की वचनबद्धताओं को भी तोड़ा है.

सरकार के कानूनी सलाहकार यानी अटॉर्नी जनरल के मुताबिक कानून का यह उल्लंघन सही है. वह यह भी कहना चाहते हैं कि जो लोग एयर कंडीशन कमरों में बैठे हैं, उन्हें इस मसले पर कुछ बोलने का अधिकार नहीं है.

उनकी इस बात से तो यही लगता है कि रोहतगी खुद एयर कंडीशन का इस्तेमाल नहीं करते हैं और इसीलिए उन्हें जो वो चाहे वह कहने का अधिकार है.

मुझे ऐसे मसखरे आदमी को अटॉर्नी जनरल बनाए जाने पर हैरानी होती है. उन्होंने बीजेपी के सहयोग से चल रही जम्मू कश्मीर सरकार और रिटायर्ड जनरलों की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया है.

उनका कहना है कि इस भयंकर घटना का हमें उल्टा नतीजा भुगतना पड़ेगा. मुझे लगता है कि उनकी बात सही है. भारतीय स्टेट अपने नागरिकों से किए अपने अनुबंध को बार-बार तोड़ता है और इसमें कुछ भी नया नहीं है.

लेकिन नया यह है कि इस अनुबंध को तोड़ने के लिए कट्टरपंथ और अधपके तर्कों को आधार बनाया जा रहा है. हम अंधकारमय और खतरनाक दौर में रह रहे हैं. हममें से जो लोग भारतीय संविधान की परवाह करते हैं उनके लिए यह चिंता की बात है.