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45 सालों में बेरोजगारी सबसे ज्यादा, NSSO के आंकड़े प्रामाणिक या विवादास्पद?

ऐसे में अब ये बात चौंकाने वाली नहीं लगती कि छोटी-मोटी नौकरियों के लिए ग्रेजुएट ही नहीं, इंजीनियरिंग और एमबीए की पढ़ाई करने वाले भी अर्जियां दे रहे हैं.

Madan Sabnavis

भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई भी ऐसा आंकड़ा, जो रिजर्व बैंक की निगरानी के दायरे से बाहर का हो, उसमें हाल के दिनों में पारदर्शिता की भारी कमी देखी गई है. खास तौर से जीडीपी के 2011-12 की बैक सीरीज के बेस के आधार पर तैयार किए गए आंकड़ों में तो पारदर्शिता की भारी कमी देखी गई है. इस माहौल में अगर कोई आंकड़ा बेरोजगारी से जुडा है, तो वो और भी विवादित हो जाता है. क्योंकि ये आंकड़ा तो तमाम कंपनियों की सालाना रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया जाता है और कंपनियों की सालाना रिपोर्ट हकीकत से कितनी दूर होती है, इसका बस अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसे में सीएमआईई-ईपीएफओ के आंकड़े सियासी एंगल जुड़ने की वजह से और भी विवादित हो गए हैं. रोजगार तब पैदा होते हैं, जब अर्थव्यवस्था बढ़ती है. ऐसे में जब भी तरक्की की ये रफ्तार धीमी होती है, तो रोजगार पैदा होने की रफ्तार पर भी असर पड़ता है और नौकरियों की संभावनाएं कम होने लगती हैं. दिक्कत तब होती है जब सियासी तौर पर खुद को कद्दावर साबित करने के लिए ये दावे किए जाने लगते हैं कि नौकरियों के अवसर लगातार बढ़ रहे हैं. इनमें कमी नहीं आई है.

ऐसे मौके पर ईपीएफो के आंकड़ों को ही सही मानने की वकालत की जाती है. लेकिन ईपीएफओ में नए नाम जुड़ने का मतलब सिर्फ नई नौकरियां पैदा होना नहीं है. बल्कि, जीएसटी लागू होने की वजह से कानून में आया बदलाव भी है. जीएसटी की वजह से जो कारोबार असंगठित क्षेत्र के दायरे से निकलकर संगठित क्षेत्र का हिस्सा बना है, उसे नियमों का पालन करते हुए अपने कर्मचारियों को ईपीएफओ में रजिस्टर कराना जरूरी हो गया है. ऐसे में लोग निजी कंपनियों के ईपीएफओ से निकलकर राजकीय ईपीएफओ का हिस्सा बन रहे हैं. या फिर बहुत से कर्मचारी तो पहली बार ईपीएफओ का हिस्सा बने हैं. इनमें से बहुत से ऐसे हैं, जो नौकरी तो पहले से कर रहे थे. पर, ईपीएफओ में उनका रजिस्ट्रेशन पहली बार हुआ है.


आंकड़े और भी विवादास्पद

तमाम सैंपल सर्वे की बात करें, तो एनएसएसओ यानी राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन के आंकड़े ज्यादा प्रामाणिक होते हैं. लेकिन एनएसएसओ के आंकड़े और भी विवादास्पद हो गए हैं और इसी वजह से वो सार्वजनिक नहीं किए गए. क्योंकि उन्हें स्वीकारना सियासी तौर पर काफी मुश्किल है. आंकड़े सार्वजनिक न किए जाने से नाखुश कई अर्थशास्त्रियों ने राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग से इस्तीफा दे दिया था. इस विवाद के बीच बिजनेस स्टैंडर्ड ने एनएसएसओ के जो आंकड़े हासिल किए हैं और जिनका यहां जिक्र किया है, वो बहुत अहम हो जाते हैं. इन आंकड़ों से ये बात सामने आई है कि 2017-18 में बेरोजगारी की दर आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा यानी 6.1 प्रतिशत थी. बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपनी रिपोर्ट में पुरुष और महिला युवाओं की बेरोजगारी के आंकड़ों पर जोर दिया है. ये आंकड़े शहरी इलाकों के भी हैं और ग्रामीण क्षेत्र के भी. ये आंकड़े बहुत डराने वाले हैं. ऐसे में इन पर विस्तार से चर्चा जरूरी है.

रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण और शहरी इलाकों में पुरुष युवाओं के बीच बेरोजगारी की दर 17.4 और 18.7 प्रतिशत थी. वहीं युवतियों की बात करें तो 2017-18 में ग्रामीण क्षेत्र में उनकी बेरोजगारी की दर 13.6 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 27.3 फीसद थी. इन आंकड़ों से बहुत परेशानी खड़ी होती है. वो इसलिए और भी क्योंकि आज देश में डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी ज्यादा आबादी के फायदों की बड़ी बातें होती हैं. इन्हें भविष्य की पूंजी बताया जाता है. कुछ लोगों की राय ये थी कि अगर रोजगार नहीं पैदा होते तो ये आबादी देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बन जाएगी. फिर बेरोजगारी एक सामाजिक समस्या बन जाएगी. ताजा आंकड़े इसी तरफ इशारा करते हैं.

बेरोजगारी के आंकड़े बढ़ने की वजहें

बेरोजगारी के आंकड़े बढ़ने की कई वजहें हैं. पहली बात तो ये कि आज की तारीख में खेती में किसी की दिलचस्पी नहीं रह गई है. इसकी वजह मॉनसून की उठा-पटक और अनिश्चितता तो है ही, सरकार की नीतियां भी जिम्मेदार हैं. खराब मॉनसून होने का नतीजा होता है कि फसलें खराब होती हैं. इससे उपज कम होती है और किसानों की आमदनी कम होती है. वो कर्ज के फेर में फंस जाता है. इसी वजह से किसानों की खुदकुशी के मामले बढ़ते हैं. अच्छी फसल होने पर फसलों की कीमतें गिर जाती हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बेअसर हो जाता है. अच्छी फसल होने के बावजूद किसानों की आमदनी घट जाती है. वही समस्या फिर से खड़ी होती है. इसलिए किसानों के बच्चे खेती करने के बजाय शहरी इलाकों में जाकर रोजगार तलाशते हैं. तो, पहले जहां कम काश्त यानी खेती की जमीन पर ज्यादा लोग काम करते थे. इसे अर्थशास्त्री छुपी हुई बेरोजगारी कहते थे. मगर अब ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं के रोजगार की तलाश में शहर आने से ये छुपी हुई बेरोजगारी खुल कर बेरोजगारी के दायरे में आ गई है.

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दूसरी वजह ये है कि जीएसटी लागू होने के बाद से छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारी सेक्टर में बहुत उठा-पटक देखी जा रही है. इस सेक्टर में कामकाजी लोगों की सबसे ज्यादा मांग हुआ करती थी. खास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में तो ये सेक्टर रोजगार देने का बड़ा जरिया था. लेकिन, अब प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी की वजह से स्व-रोजगार करने वाले बहुत से लोग परेशान हैं. जीएसटी को नोटबंदी के बाद कुछ महीनों के भीतर लागू कर दिया गया था. इसके नतीजे में सूक्ष्म और मध्यम दर्जे के कारोबार पर सबसे ज्यादा बुरा असर पड़ा है. उनका धंधा मंदा पड़ गया है.

बेरोजगारी बढ़ने की तीसरी वजह रियल स्टेट सेक्टर में आई मंदी है. पहले ग्रामीण इलाकों से पलायन कर के शहरी क्षेत्र में आने वालों को रियल एस्टेट सेक्टर में होने वाले निर्माण कार्य की वजह के काम मिल जाता था. पहले ये प्रक्रिया लगातार चल रही थी. लेकिन 2017-18 में रेरा कानून लागू किया गया. ऐसा नोटबंदी के फौरन बाद किया गया था. नोटबंदी की वजह से रियल एस्टेट सेक्टर पहले ही परेशान था. उस पर रेरा कानून लागू हुआ, तो रियल एस्टेट सेक्टर में और मंदी आ गई. कारोबारी और महंगे रिहाइशी मकानों वाले कई प्रोजेक्ट ठप पड़ गए. इससे भी तरक्की में काफी कमी आई. इसके बाद निजी क्षेत्र में बुनियादी ढांचे के विकास की रफ्तार धीमी पड़ी. नतीजा ये कि इससे भी रोजगार के मौके कम हो गए. बेहतर भविष्य की उम्मीद में ग्रामीण क्षेत्र से पलायन कर के आने वाले वालों के पास अब शहर में भी रोजगार नहीं था.

चौथी वजह ये कि आज के युवा की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. वो अच्छी डिग्री हासिल करने के बाद कम हुनर वाले काम करने को तैयार नहीं हैं. अब अर्थव्यवस्था पिछले तीन साल से अपेक्षा के मुताबिक 8 प्रतिशत सालाना की दर से तो बढ़ नहीं रही है. इसका नतीजा ये हुआ है कि हुनरमंद कामगारों जैसे इंजीनियरों, मैनेजमेंट ग्रैजुएट और दूसरे पेशेवर लोगों की मांग घट रही है. इससे रोजगार हासिल करने के लिए जरूरी बेसिक डिग्री बेकार हो गई है. वहीं स्थानीय कानून ये सुनिश्चित करते हैं कि सुपर मार्केट में रोजगार के मौके उपलब्ध हैं. वहीं गांवों से शहर आकर ई-कॉमर्स से जुड़ने वाले कामगार इस के दायरे में आते ही नहीं.

कर्मचारियों की छंटनी 

ऐसे में अब ये बात चौंकाने वाली नहीं लगती कि छोटी-मोटी नौकरियों के लिए ग्रेजुएट ही नहीं, इंजीनियरिंग और एमबीए की पढ़ाई करने वाले भी अर्जियां दे रहे हैं. ऐसा रेलवे और दूसरी छोटी सरकारी नौकरियों के साथ भी हो रहा है. हकीकत ये है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होने की वजह से नौकरियां हैं ही नहीं. साथ की सख्त श्रमिक कानूनों की वजह से आज कंपनियां इंसानों को नौकरी पर रखने के बजाय नई तकनीक के इस्तेमाल पर ज्यादा जोर दे रही हैं. अब जिस देश में बेरोजगारी का स्तर इतना ज्यादा हो, वहां तो ऐसा ही होगा. ऐसे में जब धंधा मंदा होता है, तो कंपनियो को अपने कर्मचारियों की छंटनी की चुनौती से नहीं जूझना होता. वो तकनीक की मदद से मुश्किल वक्त से पार पाती हैं.

हमें अपने देश में शिक्षा के स्तर को भी सुधारना होगा. आज सरकार स्कूलों या उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रों का रजिस्ट्रेशन बढ़ने का श्रेय भले ही लूटती हो, सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा का स्तर बहुत ही खराब है. इस व्यवस्था में पढ़ने वाले छात्रों के लिए मुश्किल होती है. खास तौर से जो छात्र क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़कर आते हैं, उनके लिए या तो स्वरोजगार का विकल्प बचता है या फिर सरकारी नौकरी. सरकार खुद ही अपने कर्मचारियों की तादाद घटाती जा रही है. यानी भविष्य में बेरोजगार लोगों की बढ़ती तादाद के लिए सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की वैसे भी कमी ही होगी.

कुल मिलाकर, देश में बेरोजगारी की समस्या बहुत भयंकर है. इससे निपटने का एक ही तरीका है कि अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार को बढ़ाया जाए. और ये काम धीरे-धीरे ही हो सकता है. ये लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक तमाम युवा व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन जाते. ये ही असल हालात हैं और हमें इनका सामना करना चाहिए. इस तल्ख हकीकत को स्वीकार करना चाहिए.