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IIT के 66 वर्ष: संस्थानों की बढ़ती संख्या जरूरी या क्वालिटी?

मानव-संसाधन मंत्रालय को एक बार सोचना चाहिए कि संस्थानों की संख्या जरूरी है या उनकी क्वालिटी?

Nazim Naqvi

1946 में दो शिक्षाविदों, हुमायूं कबीर और जोगेंदर सिंह ने एक कमेटी का गठन किया. इसका उद्देश्य था- भारत में दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारतीय औद्योगिक विकास के लिए एक उच्च श्रेणी के तकनीकी संस्थान की बुनियाद डालना.

इस कमेटी ने 22 सदस्यों वाली एक और कमेटी बनाई, जिसकी प्रमुख थीं नलिनी रंजन सरकार. सरकार कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा 'मैसाच्युसेट्स प्रौद्योगिक संस्थान और अरबाना, केंपेन के इलिनोइस विश्वविद्यालय की तर्ज पर भारत को भी उच्च प्रौद्योगिक संस्थानों की बेहद जरूरत है, जिनकी स्थापना देश के चारों कोनों में होनी चाहिए.'


आजादी के बाद पश्चिम-बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री बिधान चन्द्र रॉय (जनवरी 1948 से जुलाई 1962) ने इस कल्पना को अपनी भरपूर मदद दी. इस विचार को मूर्तिरूप देने के लिए पश्चिम-बंगाल ही सबसे पहले आगे आया क्योंकि उस समय तक वही सबसे अधिक औद्योगिक इकाइयों का केंद्र था. रॉय ने नेहरु को इस बात के लिए राजी करा ही लिया कि ऐसा कोई पहला संस्थान पश्चिम-बंगाल में ही खुलना चाहिए.

इस तरह मई 1950 में, पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान स्थापित किया गया. जिसे बाद में, सितंबर 1950 में, कलकत्ता से 120 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में खडगपुर, हिजली में अपने स्थाई परिसर में स्थापित कर दिया गया. ये वही हिजली है जहां ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को बंदी रखने के लिए शिविर बनाए गए थे.

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1951 में शुरू हुआ संस्थान का पहला सत्र

18 अगस्त 1951 को जब इस संस्थान का पहला सत्र शुरू हुआ तो इस संस्थान में 224 विद्यार्थी और 24 अध्यापक थे और ये संस्थान 10 विभागों पर आधारित था. यहां की प्रयोगशालाएं, कक्षाएं, प्रशासनिक कार्यालय उसी इमारत में बनाए गए जहां स्वतंत्रता सेनानियों को नजरबंद किया जाता था. इसे नाम दिया गया ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ (आईआईटी) और इसका उदघाटन मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के हाथों हुआ.

तब से लेकर 18 अगस्त 2017 तक, 66 वर्षों की हो चुकी है वो सोच जो देश में ‘प्रौद्योगिकी’ के क्षेत्र में स्वालंबन लाना चाहती थी. आज हमारे देश में 16 आईआईटी संस्थान हैं और वर्तमान सरकार ने 2015 में 6 और ऐसे ही संस्थान बनाने के लिए अपनी संस्तुति दे दी थी. अब आईआईटी आन्ध्र-प्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा, जम्मू-कश्मीर, केरल और कर्णाटक में भी खुलने के साथ हमारे देश में आईआईटी संस्थानों की कुल तादाद 22 हो जाएगी.

आईआईटी दिल्ली.

क्या हासिल किया है लक्ष्य?

लेकिन सवाल ये है कि क्या हमें इन आंकड़ों को देखकर खुश हो जाना चाहिए या संस्थान कि 66वीं सालगिरह के इस मौके पर ये पड़ताल करनी चाहिए कि हम जो सोच के चले थे क्या उसे हासिल कर पाए?

आइये एक सरसरी नजर डालते हैं आईआईटी के अब तक के सफर पर.

आईआईटी की स्थापना, राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के तौर पर की गई थी और ये सोचा गया था कि देश के बेहतरीन दिमागों को इन संस्थानों में लाकर उन्हें विश्व-स्तर की ट्रेनिंग दी जाएगी.

अलग-अलग राज्यों में आईआईटी की स्थापना क्या गलत?

हालांकि, अलग-अलग राज्यों में आईआईटी स्थापित करने का इरादा प्रशंसनीय है लेकिन प्रौद्योगिक संस्थानों में दशकों से ट्रेनिंग दे रहे अध्यापक चिंतित भी हैं क्योंकि इससे संस्थान के मानकों में गिरावट आ जाने की आशंका को बल मिलता है. और वे मिसाल के तौर पर 2008 में स्थापित हुए ऐसे संस्थानों का हवाला देते हैं जहां मानकों में गिरावट दर्ज की गई है.

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परिसर की कमी, कर्मचारियों की कमी, महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों का न हो पाना जैसी परेशानियां झेल रहे हैं ये संस्थान. और सच्चाई ये है कि पुराने आईआईटी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान बनाने में भी नाकाम रहे हैं, इनमें से कोई भी शीर्ष 100 विश्वविश्वविद्यालय रैंकिंग में नहीं है.

ऐसे परिदृश्य में, मौजूदा आईआईटी संस्थानों की पदोन्नति पर ध्यान होना चाहिए. इसमें लचीले पारिश्रमिक के माध्यम से प्रतिभावान अध्यापकों को आकर्षित करना, खाली पदों को भरना और अनुसंधान को बढ़ावा देना शामिल होना चाहिए. आईआईटी की तादाद नहीं, उनकी विशिष्टता उन्हें खास बनाती है.

आईआईटी खडगपुर.

प्लेसमेंट दरों में गिरावट है चिंता का विषय

सच्चाई ये है कि आईआईटी यानी देश के संभ्रांत इंजीनियरिंग स्कूल आज अपने स्नातकों को अच्छी नौकरी दिलवा पाने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी-मद्रास, जिसे कुछ महीने पहले ही देश के शीर्ष इंजीनियरिंग संस्थान का दर्जा मिला है, की प्लेसमेंट दर 2015-16 के 65% से घटकर 2016-17 में 62% हो गयी है. एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार के मुताबिक, देश में अन्य आईआईटी संस्थानों में भी प्लेसमेंट दरों में गिरावट दर्ज की गई है.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट में, आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि वर्तमान वर्ष में आईआईटी संस्थानों से निकले 9,104 छात्रों में से केवल 6,013 को ही नौकरियां मिलीं. हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अगर देखें तो, अमेरिकी, ताइवानी और जापानी कंपनियों के प्लेसमेंट में भी गिरावट आई है, जिसका नुकसान हमारी प्रतिभाओं को हो रहा है.

अपने 66 बरसों के इस सफर में आईआईटी संस्थानों ने पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढती प्रतिस्पर्धा का सामना करने में अपने आपको कमजोर पाया है. देश के प्रतिभाशाली स्टूडेंट्स को संस्थानों तक लाकर उन्हें सुनहरे भविष्य के सपने दिखाना कितना डरावना हो सकता है इसकी मिसाल वो आत्महत्याएं हैं जिनका सामना ये संस्थान कर रहे हैं.

हालांकि, कई तरह के दबावों के चलते आईआईटी विद्यार्थियों में पनपती आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों से निपटने के लिए मानव-संसाधन मंत्रालय कई स्तर पर प्रयास कर रहा है. लेकिन इन सबके बीच उसे फिर एक बार सोचना चाहिए कि क्या संस्थानों कि संख्या जरूरी है या उनकी क्वालिटी?