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IAS लैटरल एंट्री: ब्रिटिश राज के ढर्रे पर चली आ रही अफसरशाही क्यों घबराई हुई है

अफसरशाही में सीधी भर्ती के जरिए पूरा देश एक ही मकसद के लिए एक-साथ आगे बढ़ने की शुरुआत करेगा, इससे प्रशासन में नई संस्कृति पैदा होगी, जो ब्रिटिश राज की अफसरशाही के मिजाज से अलग होगी

Ajay Singh

सरकारी तंत्र में विशेषज्ञों की सीधी भर्ती की मोदी सरकार की पहली कोशिश का बेहद कड़ा विरोध हुआ. अगर आप इसकी वजह समझना चाहते हैं, तो भारत की अफसरशाही के बारे में बरसों पुराना ये किस्सा काफी मददगार होगा.

किस्सा कुछ यूं है कि...


एक रिसर्च स्कॉलर ब्रिटिश राज में ब्यूरोक्रेसी पर रिसर्च कर रहे थे. इस दौरान उनके हाथ एक अफसर की फाइल नोटिंग लगी. ये नोट उस अधिकारी ने अपने बाद आने वाले अधिकारी के लिए सलाह के तौर पर लिखा था. इसमें सीनियर अफसर ने अपने जूनियर को एक बिगड़ैल जमींदार से निपटने का तरीका सुझाया था. उस अधिकारी ने लिखा था कि 'उसे कुचल दो'. कुछ दिन बाद उस अधिकारी के बाद आए अधिकारी ने फाइल में लिखा, 'उसे कुचल दिया'. उसके बाद आए अधिकारी ने उसी फाइल पर लिखा, 'उसे कुचला हुआ पाया'.

जब देश आजाद हुआ तो, ब्रिटिश राज की अफसरशाही अपने उसी मिजाज के साथ विरासत में आजाद मुल्क को मिली. आज भी भारत में ब्यूरोक्रेसी अपना वो मिजाज और चाल-ढाल छोड़ने को तैयार नहीं है. दशकों तक समाज से अलग-थलग रह कर भारत की अफसरशाही आज देश का सबसे ताकतवर विशिष्ट क्लब बन गई है. इनके आगे बड़े से बड़ा राजनेता भी फेल है.

यही वजह है कि जब भी अफसरशाही में सुधार की चर्चा होती है, तो पहले कदम से इसका विरोध होने लगता है. सरकार में विशेषज्ञों की संयुक्त सचिव पद पर सीधी भर्ती की मोदी सरकार की कोशिश का जिस तरह से रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट और मौजूदा अफसरों ने विरोध किया, उससे साफ है कि ये अफसर सिर्फ अपनी जमीन बचाना चाहते हैं.

इस फैसले से ब्यूरोक्रेसी विकास से खुद को सीधे तौर पर जोड़ सकेगी

मौजूदा सरकार ने कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे विकास की नई अवधारणा से ब्यूरोक्रेसी खुद को सीधे तौर पर जोड़ सके. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री अकादेमी में सिविल सेवा के ट्रेनी अधिकारियों के साथ पूरा दिन गुजारा था. इसका मकसद सरकार की विकास योजनाओं के साथ इन नए अधिकारियों को जोड़ना था. शायद ये पहली बार था कि किसी प्रधानमंत्री ने प्रशिक्षु अफसरों से कहा कि वो जिस राज्य में नियुक्त किए जाने वाले हैं, वहां क्या काम करना चाहेंगे, इस बात का विस्तार से प्रेजेंटेशन बनाएं.

ये प्रयोग कई तरह से अनूठा था. एक ही झटके में ट्रेनी अफसरों को सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे शख्स से सीधे संवाद का मौका मिला. उन्हें सरकार की प्राथमिकताएं पता चलीं. जिन लोगों ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया था, उन्होंने बताया कि नए अधिकारियों को सीनियर ब्यूरोक्रेट्स ने सलाह-मशविरा दिया था. ये सीनियर अधिकारी भारत सरकार के तमाम विभागों में सचिव थे, जिन्होंने ट्रेनी अधिकारियों को प्रेजेंटेशन तैयार करने में मदद की. ताकि, वो प्रधानमंत्री की दी हुई चुनौती का सामना कर सकें.

इस फैसले का विरोध करने वाले सरकार को राजनैतिक दल समझ रहे हैं

इस प्रयोग का मकसद सीनियर और जूनियर अधिकारियों के बीच के फासले को पाटना और ब्यूरोक्रेसी की दो धुरियों की एक-दूसरे के प्रति समझ बढ़ाना था. प्रधानमंत्री ने खुद इन अधिकारियों के तैयार किए हुए प्रेजेंटेशन देखे और उन्हें रेटिंग दी. इससे साफ है कि सरकार किस तरह से ब्यूरोक्रेसी को विकास की अपनी प्राथमिकताओं के साथ जोड़ना चाहती है. आखिर इसमें कोई कैसे कमी निकाल सकता है? क्या अफसरशाही को अपनी अलग ही दुनिया में रहने और सरकार के हितों और प्राथमिकताओं के खिलाफ काम करने देना चाहिए?

जो लोग अफसरशाही की स्वायत्तता में दखलंदाजी के आरोप लगा रहे हैं, वो शायद सरकार को एक राजनैतिक दल समझ रहे हैं.

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अगर सरकार प्रशासन में ब्यूरोक्रेसी के बनाए हुए मकड़जाल को साफ कर के काम करने की प्रक्रिया को सरल बनाना चाहती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. निजी क्षेत्र से अधिकारियों की सीधी भर्ती ऐसा ही एक कदम है. निजी क्षेत्र में काबिलियत और पारदर्शिता की मदद से ही कोई कामयाब हो सकता है. हालांकि सरकारी सिस्टम के लिए ये शर्त जरूरी नहीं. ऐसे में ब्यूरोक्रेसी में जो लोग निजी क्षेत्र से सीधी भर्ती के जरिए आएंगे, वो हो सकता है कि शुरुआत में लालफीताशाही के जाल और फाइलों की भूलभुलैया में गुम हो जाएं. लेकिन आखिर में ये उम्मीद की जा सकती है कि वो अपना रास्ता बना ही लेंगे.

नेताओं से ज्यादा ब्यूरोक्रेसी ने किया जनता से दगा

ये कहना बेवकूफी है कि ऐसी भर्ती से आए अधिकारी जनता के बजाय कॉरपोरेट के हितों को तरजीह देंगे. हकीकत तो है कि आज की तारीख में इसका उल्टा ही हो रहा है. सरकारी नौकरी से रिटायर होकर कॉरपोरेट नौकरी करने वाले ब्यूरोक्रेट इसकी मिसाल हैं. माना जाता है कि अपने सरकारी नौकरी के कार्यकाल के आखिरी दिनों में सीनियर अधिकारी, कॉरपोरेट दुनिया में अपने लिए नौकरी की जमीन तैयार करते हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर ये अधिकारी किसके हित साधने के लिए काम करते हैं. तो, इस मामले में जितना कम कहा जाए, उतना बेहतर होगा.

ये कहना बिल्कुल सटीक होगा कि आजाद भारत में जितना नेताओं ने जनता से दगा किया है, उससे कहीं ज्यादा ब्यूरोक्रेसी ने किया है. राजनेता-अपराधी-अफसरों के गठजोड़ ने देश में ताकतवर अंडरवर्ल्ड को जन्म दिया है. इस अंडरवर्ल्ड ने अनगिनत बार देश में कानून के राज को चुनौती दी है और नीचा दिखाया है. मुख्यमंत्रियों के अपने पसंदीदा अधिकारियों की मदद से अरबों की संपत्ति जुटाने की कई कहानियां हम जानते हैं. ये कहानियां काल्पनिक नहीं हैं.

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आज की तारीख में देश की अफसरशाही में बदलाव और सुधार की सख्त जरूरत है. इसमें पहले ही काफी देर हो चुकी है. आज अफसरशाही को क्रांतिकारी दिशा-निर्देशों की जरूरत है, जिससे वो चुनी हुई सरकार की विकास की प्राथमिकताओं से खुद को जोड़ सकें. इसका सबसे अच्छा तरीका यही हो सकता है कि निजी क्षेत्र से सरकारी सिस्टम में सीधी भर्तियां की जाएं. ये भी किया जा सकता है कि सरकारी अधिकारियों को निजी क्षेत्र में काम करने के लिए भेजा जाए, ताकि वो प्राइवेट सेक्टर के काम-काज के तरीके को समझ सकें.

उदार अर्थव्यवस्था में समाजवादी विरासत को ढोते रहना बेवकूफी होगी. हमेशा निजी क्षेत्र पर शक करना अपने मकसद से भटकना है. ये सोच ही गलत है कि सरकारी क्षेत्र और निजी सेक्टर एक दूसरे के खिलाफ काम करते हैं, विपरीत दिशा में चलते हैं, या दोनों के मकसद अलग हैं.

अफसरशाही में सीधी भर्ती के जरिए पूरा देश एक ही मकसद के लिए एक-साथ आगे बढ़ने की शुरुआत करेगा. इससे प्रशासन में नई संस्कृति पैदा होगी, जो ब्रिटिश राज की अफसरशाही के मिजाज से अलग होगी. वो मिजाज को कुचल दो, कुचल दिया और कुचला हुआ पाया की मानसिकता से प्रशासन चलाती थी.