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सिर्फ आश्रय गृहों से खरीद कर पालतू जानवर बेचें Pet Shops

अगर हम पालतू पशु बेचने वाली दुकानों के लिए यह जरूरी कर दें कि वे सिर्फ पशु आश्रयगृह या रेस्क्यू सेंटर से आये कुत्ते-बिल्ली ही बेचें तो परित्यक्त जानवर को अपना घर भी मिलेगा और पशु आश्रयगृह की भी कुछ कमाई हो जायेगी

Maneka Gandhi

इस लेख को लिखते वक्त मुझे उन लोगों का ख्याल आ रहा है जो गलियों और सड़कों पर घूमने वाले कुत्तों के बाबत मुझे शिकायती अंदाज में संदेशा भेजते हैं. ऐसे लोग अपने ईमेल की शुरुआत हमेशा यह कहते हुए करते हैं कि यों तो वे बड़े पशुप्रेमी हैं और उन्होंने खुद भी कुत्ता पाल रखा है लेकिन हमें ‘कुत्तों के उत्पात’ से बचाव के लिए जरूर ही कुछ करना चाहिए ताकि वे, उनके बच्चे और उनके पालतू पशु इन ‘आवारा’, ‘जंगली’ और ‘मल-मूत्र’ से गंदगी फैलाने वाले कुत्तों से बचकर गुजर सकें.

यों सरकार और सभी अदालतों ने आदेश दे रखा है कि हर नगरपालिका तथा जिला-प्रशासन की ओर से कुत्तों का बंध्याकरण किया जाय मगर सच्चाई यह है कि देश के दसवें हिस्से से भी कम में इस आदेश का पालन होता है. पशु-चिकित्सकों की कमी है, पशुओं पर खर्च करने के लिए रुपये-पैसों का भी टोटा है और सबसे बड़ी बात यह कि इस विषय में किसी सोच-विचार का भी अभाव ही नजर आता है. कुत्तों के बंध्याकरण के कार्यक्रम का नियंत्रण पर्यावरण मंत्रालय करता है ना कि स्वास्थ्य मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय इस मद में सालाना बस 50 लाख रुपये देता है जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय को 300 करोड़ रुपये से भी ज्यादा मिलते हैं.


लेकिन पर्यावरण मंत्रालय कुत्तों के बंध्याकरण के कार्यक्रम को अपने हाथ से जाने नहीं देगा और स्वास्थ्य मंत्रालय अपनी तरफ से इस कार्यक्रम को हाथ में लेने के लिए ज्यादा जोर नहीं लगायेगा क्योंकि इस मंत्रालय के सचिव ने मुझसे कहा था कि हमारा काम 'कुत्तों का बंध्याकरण' करना नहीं है. चूंकि कुत्तों के बंध्याकरण का काम रैबिज (एक किस्म का रोग) निवारण के अंतर्गत आयेगा सो मैंने पूछा कि ‘आपलोग आखिर मच्छर मारने का काम क्यों करते हैं, यह तो आपका काम नहीं है’.

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मच्छर मारने का काम जरूरी है क्योंकि मलेरिया पर नियंत्रण रखने का यही एकमात्र तरीका है. बिल्कुल ठीक बात है. और, इसी टेक पर हम कह सकते हैं कि कुत्तों का बंध्याकरण तथा टीकाकरण हो तो रैबिज से 5 साल के भीतर ही निजात मिल जायेगी.

दरअसल नौकरशाह को समझाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि वे जिस ओहदे पर बैठे होते हैं वहां पहुंचकर दिलो-दिमाग में अंहकार आ जाना बिल्कुल स्वाभाविक है और वैसी ऊंची जगह पर तर्क को अपने पैर पसारने के लिए बड़ी कम जगह होती है.

खैर, सड़क पर जो कुत्ते-बिल्ली छुट्टा घूमते मिलते हैं उनसे निपटने का एक और तरीका है. गैरकानूनी ब्रीडर (पशुओं का प्रजनन कराने वाले) लाखों की तादाद में उन्नत नस्ल के कुत्ते तैयार करते हैं. ये कुत्ते सेहतमंद नहीं होते, इनमें पैदायशी दोष होता है और ये पशु पालतू जानवर बेचने वाली हर दुकान में मिल जाते हैं. फिलहाल ऐसी हर दुकान के लिए कोई भी जानवर बगैर रजिस्ट्रेशन के रखना गैरकानूनी है.

यह कानून बहुत सख्त है लेकिन हम जमीनी मामलों में इतने कच्चे हैं और रिश्वतखोरी का चलन इतना ज्यादा है कि इस कानून को लागू करने में अमलों को कितना वक्त लगेगा यह बता पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. तो फिर ऐसी स्थिति में क्या किया जाय ? कुछ उपाय हैं.

अमेरिका में पशुओं के आश्रय-गृह में एक ‘किल पॉलिसी’ पर अमल होता है. परित्यक्त पशुओं को 28 दिन तक जीवित रहने दिया जाता है और अगर इस अवधि में उन्हें कोई गोद नहीं लेता तो फिर उन्हें मार दिया जाता है. वक्त गुजरने के साथ ‘नो किल’ यानि पशुओं को जान से ना मारने की नीति अपनाने वाले पशु-आश्रयगृह भी बने हैं. लेकिन इन आश्रयगृहों में कुत्तों को सारी जिंदगी पिंजरे में गुजारनी होती है, बशर्ते कि उन्हें कोई गोद ना ले ले.

साल 2017 में कैलिफोर्निया ने एक कानून पारित किया. यह ए.बी.485 कहलाता है. इस कानून में कहा गया है कि पालतू पशु बेचने वाली दुकानें सिर्फ पशु-आश्रय गृह या रेस्क्यू सेंटर से आए खरगोश, कुत्ते या बिल्लियं के बच्चे बेच सकेंगे. इस कानून का उल्लंघन करने पर 500 डॉलर का जुर्माना लगेगा और दुकान बंद कर दी जायेगी. इस कानून के कारण व्यावसायिक एनिमल-ब्रीडर तथा बिचौलियों तथा पालतू पशुओं की अवैध ब्रीडिंग पर कारगर अंकुश लगा.

अभी हाल ही में हमने ठाणे के एक डॉक्टर के घर के पिछवाड़े से 11 कुत्तों को मुक्त कराया. बेचारगी की हालत में पड़े ये पशु भुखमरी की दशा में मरने के कगार पर पहुंच गये थे और उन्हें अपने मल-मूत्र से भूख मिटानी पड़ रही थी. लेकिन इन कुत्तों ने बच्चे जने थे और डाक्टर ने इस आशय का जाली प्रमाणपत्र बनवाकर कि पप्पीज उन्नत विदेशी नस्ल के हैं, उन्हें बेचा था.

अमेरिका में पालतू पशुओं के व्यापारियों ने विरोध जताया और तर्क दिया कि इससे ‘नौकरियों पर चोट पड़ेगी’ (हालांकि इस दलील को नकार दिया गया). लेकिन भारत में पालतू पशुओं के व्यापार में किसी को नौकरी पर नहीं रखा जाता. यह एक अवैध व्यापार है. इसमें बस कुछ उन्नत नस्ल के कुत्तों को जुटाकर उन्हें बांध लेना भर होता है. उनसे हर छह महीने पर जबरिया बच्चे जनवाये जाते हैं और फिर पालतू पशु बेचने वाली अवैध दुकानों में इन नन्हें पप्पीज को रख दिया जाता है. अब भला ऐसा करने पर किसकी नौकरी खतरे में पड़ेगी.

तो फिर आखिर भारत में ऐसा कानून क्यों नहीं बनाया जाय. आज हर शहर में पशु-कल्याण से संबंधित कोई ना कोई समूह मौजूद है. इनमें से कई समूहों के पास पशु-आश्रयगृह भी हैं. दिल्ली स्थित संजय गांधी एनिमल केयर सेंटर नाम के मेरे पशु-आश्रयगृह में प्रतिदिन कम से कम दस परित्यक्त जानवर पहुंचते हैं. उन्नत नस्ल के कुत्ते पालने वाले लोग उन्हें बहुत बुरे सलूक के साथ रखते हैं, ऐसे में कुत्ते बीमार पड़ जाते हैं. कुत्तों को पूरे दिन जंजीर से बांधकर रखा जाता.

कुत्ते भयावह हो उठते हैं. इसके बाद लोग कुत्ते को लेकर अस्पताल पहुंचते हैं, यह जताते हैं कि अस्पताल में वे बेचारे जानवर का उपचार कराने आये हैं, फिर जब लगता है कि आस-पास कोई देख नहीं रहा तो कुत्ते को बेसहारा, बीमार तथा वैरभाव से भरे माहौल में छोड़कर चलते बनते हैं. हम हर परित्यक्त पशु के लिए 15 हजार रुपये लेते हैं लेकिन इस रकम को बचाने के गरज से ये ही लोग जिन्होंने कुत्तों की खरीद पर इससे कहीं ज्यादा खर्चा किया होता है, गेट पर जंजीर से जकड़कर रखते हैं या फिर दीवार के उस पार फेंक कर निजात पा लेते हैं.

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बेसहारा छोड़ दिये गये ज्यादातर कुत्ते पोमेरेनियन या फिर स्पित्ज नस्ल के होते हैं. कुछ लैब्रेडोर नस्ल के होते हैं या फिर खूब झबरीले जान पड़ने वाले स्विस नस्ल के जो तस्करी के जरिये भारत पहुंचे होते हैं. ऐसे परित्यक्त कुत्तों में कुछ वोडाफोन पग्स भी होते हैं. हम कुत्तों को एक खास घेरेबंदी में रखते हैं ताकि उन्हें आश्रयगृह पहुंचने वाला हर कोई देखे और मन में आये तो उन्हें गोद ले ले. कुछ कुत्तों को लोग गोद ले लेते हैं जबकि बहुत से अन्य यों ही टूटे दिल के साथ अपने घेरे में बंधे रह जाते हैं.

उन्हें एक परेशानी भरी घेरेबंदी में पचास अन्य कुत्तों के साथ रहना होता है और बाकी की जिन्दगी आखिरी सांस तक ऐसे ही गुजारनी होती है. सबसे ज्यादा चोट खाये कुत्तों को मेरी बहन अपने घर ले जाती है और उसके छोटे से घर में 17 कुत्ते हैं. मेरे घर में 24 हैं. कुत्तों की सेहत एक बार सुधर जाती है और वे तंदरुस्त हो जाते हैं तो हम उनके लिए घर तलाशने के जुगत में लगते हैं.

अगर हम पालतू पशु बेचने वाली दुकानों के लिए यह जरूरी कर दें कि वे सिर्फ पशु आश्रयगृह या रेस्क्यू सेंटर से आये कुत्ते-बिल्ली ही बेचें तो हम ऐसा करके दो चीज हासिल करेंगे: एक तो परित्यक्त जानवर को अपना घर मिल जायेगा और पशु आश्रयगृह की भी कुछ कमाई हो जायेगी. ब्रीडर के पास से आने वाले उन्नत नस्ल के कुत्ते/बिल्लियों के उलट, इन कुत्ते/बिल्लियों का बेचे जाने से पहले बंध्याकरण और टीकाकरण किया जा सकता है. इन कुत्तों को बिना टीकाकरण के ही बेचा जाता है और इनमें से ज्यादातर पार्वो या फिर डिस्टेम्पर के रोग से मर जाते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर

एक और बात यह होगी कि पालतू पशु बेचने वाली दुकानों में पशु-आश्रयगृह से आये भारतीय नस्ल के खूबसूरत पप्पीज की बिक्री शुरू हो जायेगी. किसी भी पशु-आश्रयगृह में विदेशी नस्ल के कुत्ते का प्रजनन नहीं होगा और उनके लिए खुदरा दुकानों की कमी होने की वजह से विदेशी नस्ल के कुत्तों का प्रजनन कम होता जायेगा. जो लोग कुत्ता खरीदना चाहेंगे उन्हें भारतीय नस्ल के कुत्ते मिला करेंगे. जो लोग खरीदना चाहेंगे वे उन्हें दुकानों से खरीदेंगे ही. कृपया अपने राज्य में इसके लिए अभियान चलाइए. हम अच्छी चीजों के लिए दबाव बनायें तो यह दुनिया कहीं ज्यादा भली जगह बन सकती है.