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IIT कानपुर में दलित प्रोफेसर का उत्पीड़न: हम आज भी जातीय भेदभाव में जकड़े हुए हैं

अपनी चिट्ठी में सदरेला ने शिकायत की है कि जब उन्हें एक फैकल्टी सेमिनार में बुलाया गया तो प्रोफेसर ईशान शर्मा समेत कई प्रोफेसरों ने उनके पूरे व्याख्यान का मजाक उड़ाया

Sandip Roy

‘घोड़े की सवारी करने पर दलित युवक की हत्या’- खबर की इस सुर्खी से जितनी क्रूरता झांकती है, वैसी हमारी इस कहानी में नहीं. मृत गाय की चमड़ी उतारने पर दलित लोगों की बेरहम पिटाई का मामला हो या फिर खुद की जान लेने के बाद अपने पीछे पांच पन्ने का सुसाइड-नोट छोड़ जाने वाले दलित छात्र के बारे में केंद्रीय मंत्री का यह कहना कि वह जातिवादी, अतिवादी और राष्ट्रविरोधी था- इन घटनाओं से जितनी क्रूरता झांकती है वैसी हमारी कहानी में शायद आपको ना मिले.

एक ऐसे वक्त में जब भारत-बंद के दौरान दलित समुदाय के प्रतिरोध की लहर ने देश के कई सूबों को अपनी चपेट में ले लिया है, एक यूनिवर्सिटी के भीतर कभी इस मेज तो कभी उस मेज के इर्द-गिर्द चलने वाली एक ऐसी बहस जिसमें फैक्ट फाइडिंग कमेटी और डायरेक्टर के नाम लिखी चिट्ठी में दर्ज औपचारिक भाषा का इस्तेमाल हो रहा है, अपने आप में ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं जान पड़ती- इतना बड़ा तो नहीं ही कि लगे अब आक्रोश में बसों को जलाया जाएगा, लोगों की हत्या की जाएगी.


लेकिन एक दलित प्रोफेसर की यह कहानी और जो कुछ उन्हें देश के एक अग्रणी शिक्षा-संस्थान में भुगतना पड़ा, आपको इतना जरूर बताती है कि भेदभाव का बर्ताव कितनी घिनौनी शक्ल अख्तियार कर सकता है.

किसी व्यक्ति ने इसपर रोक-टोक नहीं की

डॉ. सुब्रह्मण्यम सदरेला ने आईआईटी कानपुर के एयरोस्पेस डिपार्टमेंट में 1 जनवरी 2018 को पदभार संभाला. उन्हें दक्षिण कोरिया से नौकरी की पेशकश आई थी, लेकिन उन्होंने कानपुर आईआईटी मे नौकरी करने को तरजीह दी. डायरेक्टर को लिखी चिट्ठी मे सदरेला ने दर्ज किया है कि ‘मैं संस्थान में बड़े जोश और उमंग के साथ आया था.’

लेकिन खुशी देर तक कायम नहीं रही. अपनी चिट्ठी में सदरेला ने शिकायत की है कि जब उन्हें एक फैकल्टी सेमिनार (संगोष्ठी) में बुलाया गया तो प्रोफेसर ईशान शर्मा समेत कई प्रोफेसरों ने उनके पूरे व्याख्यान का मजाक उड़ाया और वहां मौजूद किसी व्यक्ति ने इसपर रोक-टोक नहीं की. प्रोफेसर सदरेला के मुताबिक उन्होंने खुद को अपमानित और पीड़ित महसूस किया, लगा उनकी गरिमा को चोट पहुंचाई गई है.

वे कहते हैं कि मैंने देखा, कुछ सीनियर फैकल्टी मेंबर्स ने तीन घंटे तक आपस में बैठक की और नियुक्ति-प्रक्रिया में नुक्स निकालने की जुगत लगाई ताकि मामला ये बनाया जा सके कि सदरेला फैकल्टी का सदस्य बन सकने लायक नहीं हैं. सदरेला का आरोप है कि अफवाह फैलाई गई, कहा गया कि सदरेला की दिमागी हालत ठीक नहीं सो वे नौकरी के काबिल नहीं. आईआईटी कानपुर के समुदाय के कई सदस्यों और सीनेटर को ईमेल भेजा गया और उसमें सदरेला की अकादमिक योग्यता पर सवाल उठाए गए. विभाग के एक गेट-टुगेदर के मौके पर उन्होंने मौजूद लोगों को व्यंग्य करते सुना. वे कह रहे थे कि नए फैकल्टी मेंबर विभाग के स्टैन्डर्ड (मानक) को नीचे गिरा रहे हैं. सदरेला के सुनने में आया कि घर पर आयोजित डिनर पार्टी में एक प्रोफेसर ने उनके बारे में अपमानजनक भाषा में बात की.

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आईआईटी कानपुर के सीनेटर्स को प्रोफेसर राजीव शेखर ने जो ईमेल भेजा उसकी भाषा खुद ही इसकी मिसाल पेश करती है. इस ईमेल का शीर्षक है- ‘हर दस साल पर आने वाले अभिशाप ने फिर दबोचा’. ईमेल में सदरेला की नियुक्ति का जिक्र करते हुए कहा गया है कि इस घटना से आईआईटी कानपुर की अकादमिक दुनिया की बुनियाद हिल गई है. प्रोफेसर राजीव शेखर ने नियुक्ति के लिए अपनाई गई प्रक्रिया, सदरेला को मिले ग्रेड तथा उनके सेमिनार-परफोर्मेंस के बारे में शिकायत की है. उन्होंने ईमेल में सवाल पूछा है कि ‘आखिर उम्मीदवार (सदरेला) किन वजहों से हमारी पकड़ में नहीं आया?’.

नौकरी पर रखे जाने से पहले किसी उम्मीदवार की अकादमिक योग्यता या नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर चिंता जताना एक अलग बात है. लेकिन नव-नियुक्त फैकल्टी मेंबर को लेकर इस किस्म की बातें कहना महीन किस्म की रैगिंग का ही एक रूप माना जाएगा, लेकिन सवाल जाति का भी है, जाति के बारे में क्या?

प्रोफेसर सदरेला का चयन आरक्षित वर्ग के लिए चले एक विशेष अभियान के तहत हुआ था

आईआईटी कानपुर ने आरोप की सच्चाई की जांच के लिए डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ के वीसी विनय पाठक की अध्यक्षता में एक फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी बनाई.

इस समिति को आश्चर्यजनक प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. प्रोफेसर ईशान शर्मा ने कहा कि उन्होंने प्रोफेसर सदरेला का कोई मजाक नहीं उड़ाया और फिर उन्हें किसी भी सेमिनार में जाने तथा अपनी मर्जी का सवाल पूछने का अधिकार है. डिपार्टमेंट के प्रोफेसर पीएम मोहिते ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि इस मामले का जाति से कोई रिश्ता है. उनकी चिंता उम्मीदवार के चयन के लिए अपनाई प्रक्रिया को लेकर थी. प्रोफेसर सदरेला ने अपनी शिकायत में प्रोफेसर संजय मित्तल का नाम दर्ज करते हुए लिखा है कि उन्होंने डिपार्टमेंट के गेट-टुगेदर में नव-नियुक्त फैकल्टी के कारण अकादमिक स्तर के नीचे गिरने का ताना कसा था. लेकिन प्रोफेसर संजय मित्तल ने इसे नकारते हुए कहा कि उन्हें तो यह भी नहीं पता कि प्रोफेसर सदरेला एससी/एसटी समुदाय से आते हैं.

अब यह बात गले उतरने लायक नहीं क्योंकि प्रोफेसर सदरेला का चयन आरक्षित वर्ग के लिए चले एक विशेष अभियान के तहत हुआ था और यही बात बहुतों को नागवार गुजरी जान पड़ती है. फैक्ट फाइडिंग कमेटी ने साफ लफ्जों में कहा है कि डॉ. शर्मा को नियुक्ति के लिए चले विशेष अभियान को लेकर मलाल है और डॉ. सदरेला को लेकर उनके मन में विशेष रूप से खोट है.’

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आईआईटी कानपुर के सभी सीनेटर्स को ‘अभिशाप का कहर’ शीर्षक ईमेल भेजने वाले प्रोफेसर आर. शेखर ने साफ नकार दिया कि उनके मन में नियुक्ति के लिए चले विशेष अभियान को लेकर कोई खोट है. प्रो.शेखर को अब आईआईटी धनबाद का डायरेक्टर बना दिया गया है. खुद को आईआईटी कानपुर का महारथी बताते हुए बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को ईमेल भेजने वाले प्रोफेसर सीएस उपाध्याय ने पूरा जोर के साथ कहा कि डॉ. सदरेला का अकादमिक पर्फार्मेंस ठीक नहीं है. ध्यान रहे कि सदरेला की सीपीआई (अंकमान) 7.25 है जबकि आईआईटी कानपुर सीपीआई (अंकमान) 7.0 को प्रथम श्रेणी के तुल्य माना जाता है.

ऐसा नहीं है कि सदरेला का कोई मददगार ही ना हो. विभागाध्यक्ष एके घोष ने फैक्ट फाइडिंग कमेटी को बताया कि कुछ प्रोफेसर सदरेला को परेशान करने के लिए एकजुट हो गए थे. प्रोफेसर घोष का कहना था कि अगर मौका दिया जाए तो प्रोफेसर सदरेला ‘देश में फ्लाइट मैकेनिक्स की दुनिया का सबसे बड़ा नाम साबित हो सकते हैं.’ प्रोफेसर आशीष तिवारी ने कहा कि भेदभाव के आरोप को गंभीरता से लेने की जरूरत है. जिस समिति ने प्रोफेसर सदरेला का चयन किया था उसका कहना था कि चयन के वक्त किसी भी सदस्य ने विपरीत राय नहीं रखी और सारी प्रक्रियाओं का विधिवत पालन हुआ.

फैक्ट-फाइडिंग कमेटी ने प्रोफेसर सदरेला के आरोपों से सहमति जताई और आईआईटी कानपुर के मैनेजमेंट को सिफारिश करते हुए लिखा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 के आलोक में उचित कदम उठाए जाएं. इसी अधिनियम को लेकर फिलहाल देश में बवाल मचा हुआ है. एक आरोपपत्र तैयार किया जा रहा है. उम्मीद है कि आरोपपत्र के तैयार कर लिए जाने के बाद एक जांच समिति बनेगी.

लेकिन आईआईटी कानपुर में मौजूद सूत्रों का कहना है कि पूरे प्रकरण को कुछ ऐसा रूप देने की कोशिश हो रही हो मानो यह आपसी गलतफहमी का मामला हो. एक माफीनामा लिखा गया है जिसमें कहा गया है कि ‘संस्था की अकादमिक प्रक्रिया को बनाए रखने की हमारी कोशिशों को समझने में गलतफहमी हुई और उसे सही अर्थों में नहीं देखा गया’. माफीनामे में कहा गया है कि जिन लोगों पर आरोप लगाए गए हैं उन्हें इस पूरे प्रकरण से बहुत तकलीफ पहुंची है. भारी निराशा हुई है. ऐसा लगता है, मानो माफीनामे में आरोपी खुद ही को पीड़ित बताकर पेश कर रहे हैं. संस्थान के भविष्य को बचाने के नाम पर एक हस्ताक्षर अभियान भी चलाया गया है ताकि मामले को दोनों पक्षों के बीच बातचीत के जरिए निपटा लिया जाए.

बात चाहे भलमनसाहत भरी जान पड़े लेकिन उससे यह जरा भी नहीं झलकता कि संस्थान में शक्ति-संतुलन का पलड़ा एक तरफ बड़े पक्षपाती अंदाज में झुका हुआ है. एक असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति को पूरे आईआईटी की प्रतिष्ठा पर आई आंच का सवाल बनाकर पेश किया जा रहा है, उसके आरोपों को यह कहकर नकारा जा रहा है कि अपने वजूद के इतने सालों तक यूनिवर्सिटी और इसके फैकल्टी दायित्व-निर्वाह की जिस राह पर चलते रहे हैं, ये आरोप उसके मिजाज से जरा भी मेल नहीं खाते. मामले को यों रंग दिया जा रहा है जैसे बात यूनिवर्सिटी की प्रतिष्ठा बचाने की हो, उसकी भलाई का सवाल हो. और, ध्यान रहे कि पूरे प्रकरण से जाहिर होते जाति के सवाल को एकदम से नजरों से ओझल कर दिया गया है. ऐसे में पूछा जा सकता है कि क्या जातिगत भेदभाव का होना सिर्फ तभी सच माना जाएगा जब चारो तरफ से जातिसूचक नाम लेकर किसी को अपशब्द कहा जाए.

हर तीन दलित पेशेवर व्यक्तियों में से दो के साथ कार्यस्थल पर भेदभाव भरा बर्ताव किया गया

अनुसूचित जाति आयोग ने मामले का अब संज्ञान लिया है. आयोग ने मामले से जुड़े तमाम पक्ष को 10 अप्रैल को दिल्ली बुलाया है. अब दिल्ली में चाहे जो हो लेकिन एक बात बड़ी जाहिर है. हममें से बहुत से लोग इस भुलावे में रहते हैं कि जातिगत भेदभाव अब नहीं होता, पेशेवर दुनिया में रहने वाले बहुतों को ऐसा ही लगता है क्योंकि यह भुलावा उन्हें मनमाफिक लगता है. लेकिन अमेरिका में जाति के मुद्दे पर हुए हाल के एक सर्वेक्षण में सामने आया है कि हर तीन दलित विद्यार्थियों में एक के साथ उसकी पढ़ाई-लिखाई के दौरान भेदभाव हुआ और हर तीन दलित पेशेवर व्यक्तियों में से दो के साथ कार्यस्थल पर भेदभाव भरा बर्ताव किया गया. डॉ. सुब्रह्मण्यम सदरेला की कहानी हमें याद दिलाती है कि जातिगत भेदभाव की जड़े बहुत गहरी हैं और हममें से ज्यादातर लोग समस्या की इस गहराई को मानने के लिए तैयार नहीं.

प्रोफेसर सदरेला ने तो कम से कम औपचारिक रूप से विरोध जताया लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो चुपचाप अपमान का घूंट पी लेते हैं लेकिन व्यवस्था से टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. शायद यही ख्याल रहा होगा जो प्रोफेसर सदरेला ने डायरेक्टर को अपनी चिट्ठी में लिखा कि, ‘आपसे मेरा निवेदन है कि उचित कदम उठाया जाए ताकि भविष्य में किसी और को ऐसी परेशानी भरी और अपमानजनक स्थिति का सामना नहीं करना पड़े.’