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गोरखपुर त्रासदी: अगर उसका नाम कफील है तो वो हीरो कैसे?

की-बोर्ड पर अंगुलियों की हरकत से हंगामा खड़ा करने में माहिर हिंदुत्व के लड़ाके बहुत ज्यादा असुरक्षित हैं.

Sandipan Sharma

कफील अहमद खान ने गोरखपुर के बाबा राघवदास अस्पताल में बच्चों की जिंदगी बचाने की कोशिश की और मीडिया की नजरों के चहेते बन गए. लेकिन अब उनके ऊपर लगातार निशाना साधा जा रहा है.

इससे एक बार फिर जाहिर हुआ है कि भारत का जन-मानस धर्मान्धता की आंच में सुलग रहा है. कफील खान को निशाने पर लेना इस बात का संकेत है कि मनगढ़ंत शिकायतों और सांप्रदायिक विद्वेष की भावना ने महसूस करने की हमारी ताकत को कुंद कर दिया है. हम आज उस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि कुछ लोगों के कान में किसी भारतीय मुस्लिम को लेकर प्रशंसा के दो बोल भी पड़ें तो उसे यह तनिक भी बर्दाश्त नहीं होता और वह प्रशंसा के इस बोल को बड़ी तेज आवाज में 'विश्वासघाती, चोर और अपराधी' का मंत्रजाप करते हुए ढक देना चाहता है.


क्यों लग रहे हैं आरोप?

हम इस लेख में आगे कफील खान पर लगे बेबुनियाद और मनगढ़ंत आरोप की पड़ताल करेंगे, सबूतों की रोशनी में उन्हें जांच-परखकर देखेंगे. लेकिन इससे पहले यह जानना जरूरी है कि कफील खान पर तोहमत क्यों लगाई जा रही है, उन्हें लोगों की नजरों में गिराने की कोशिशें क्यों की जा रही हैं? यह और कुछ नहीं बीमार लोगों का मनोन्माद है, वे साबित करना चाहते हैं कि भारत का धार्मिक अल्पसंख्यक इस देश का तो क्या दुनिया में कहीं का भी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक नहीं हो सकता.

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कुछ लोगों के लिए वह अहमियत नहीं रखता जो आप करते हैं, बल्कि यह अहमियत रखता है कि आप कौन हैं. देश की आजादी की सत्तरवीं वर्षगांठ पर नजर आ रहा है कि आप अपने कर्मों के कारण लोगों के नायक नहीं बनते, बल्कि आपकी धार्मिक पहचान के आधार पर नायकत्व आपके ऊपर ओढ़ा दिया जाता है या फिर आप अपनी धार्मिक पहचान के आधार पर ही उससे सिरे से वंचित कर दिए जाते हैं.

सीधा-सीधा छल

यह सीधे-सीधे छल करने का मामला है, भूल-भुलैया में फांसने की रणनीति. गोरखपुर की त्रासदी भारत के ऊपर एक धब्बा है. सत्तर से ज्यादा बच्चे एक हफ्ते के भीतर मौत (और यह सिलसिला जारी है) के शिकार हुए क्योंकि यूपी सरकार और बाबा राघवदास अस्पताल के प्रशासन ने ऑक्सीजन की आपूर्ति बहाल रखने के लिए समय पर पैसे ना चुकाकर मौत का एक अंधा कुआं तैयार किया. जमीर, नीति-बोध और कानून के राज वाला कोई और देश होता तो वहां इसे सीधे-सीधे कर्तव्य में लापरवाही के जरिए हत्या का मामला करार दिया जाता. लेकिन हमारे यहां कुछ और ही नजर आ रहा है.

प्रतापभानु मेहता के शब्दों में कहें तो हम एक राष्ट्र में तब्दील हो गए हैं जहां से सामूहिक शालीनता, सामूहिक कर्तव्य-बोध और मनुष्य होने का मूल करुणा-भाव विदा हो चला है.

सरकार का छिछला और शर्मनाक रवैया

सरकार की जो प्रतिक्रिया रही वह समझ से बाहर है और उससे भय पैदा होता है. प्रधानमंत्री दूर कहीं यूरोप में भी दुर्घटना हो तो बिना वक्त गंवाए ट्वीट करते हैं लेकिन अचरज कहिए कि गोरखपुर की त्रासदी पर उन्होंने मौन साध लिया.

साल 2016 के अप्रैल में जब कोवल्लम के मंदिर में आग लगी थी तो प्रधानमंत्री डाक्टरों के एक दल की अगुवाई करते हुए खुद वहां पहुंचे थे. लेकिन गोरखपुर की त्रासदी पर उन्होंने सहानुभूति जताते हुए एक अदना सा ट्वीट भी नहीं किया. शायद उनके मन में भावनाएं तभी उमड़ती हैं जब चुनाव होने वाले होते हैं.

मुख्यमंत्री तो विडंबना की पूरी किताब ही कहलाएंगे. बस चंद दिन पहले उन्होंने खुद अपने निर्वाचन क्षेत्र के इस अस्पताल का दौरा किया था. लेकिन उन्हें आगे आने वाली त्रासदी की भनक नहीं लगी. जब मीडिया में मौतों की खबर आने लगी तो उन्होंने यह मानने से ही इनकार कर दिया कि ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी के कारण इस आपदा की नौबत आई है. उन्होंने साफ-सफाई की कमी और गंदगी को इस आपदा का कारण बताया और विडंबना देखिए कि यह बात वे स्वच्छ भारत के वक्त में उस इलाके के बारे में कह रहे थे जो बीते दो दशकों से उनका निर्वाचन-क्षेत्र रहा है.

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अन्य प्रतिक्रियाएं भी इसी तरह उलझाऊ और चौंकाने वाली थीं. सूबे के स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि ऐसी मौतें तो अगस्त महीने में होती ही हैं. और उनकी पार्टी के सुप्रीमो अमित शाह ने कहा कि भारत जैसे देश में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, कांग्रेस शासित राज्यों में भी ऐसी घटनाएं होती आईं हैं.

हिंदुत्व ब्रिगेड का ओछा फॉर्मूला

जब गलती पकड़ी जाए, साख को खतरा हो और हिन्दुत्व के अलंबरदार कठघरे में खड़े दिखाई दें तो लोगों का ध्यान भटकाने के लिए इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है कि मामले में नायक बने नजर आ रहे किसी मुसलमान पर निशाना साधा जाए? क्यों नहीं नविका कुमार छाप पत्रकारिता पर उतर आया जाए और गोरखपुर की त्रासदी के खलनायकों को खोजने की जगह बहस को 'असल' मुद्दे की ओर मोड़ते हुए पूछा जाए कि क्या कफील खान सचमुच हीरो है? क्यों नहीं पीपली लाइव जैसी कहानी फिर से गढ़ी जाए?

कफील खान के खिलाफ मामला एकदम छिछला है. दुर्घटना के दिन उनकी बड़ी सराहना हो रही थी कि अपनी जेब से पैसे खर्च करके उन्होंने ऑक्सीजन के सिलेंडर मंगवाए और बच्चों की जान बचाने की कोशिश की. लेकिन चंद घंटों के भीतर अफवाह फैलाने वाले, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने वाले विद्वेषी लोग सोशल मीडिया, ट्विटर और वॉट्सऐप पर निंदा-अभियान में सक्रिय हो गए.

यह सत्याभास (पोस्ट-ट्रूथ) और मायावी झूठ (पोस्ट-लाईज) का जमाना है. इस चलन की टेक पर जारी निन्दा-अभियान में बताया जा रहा है कफील खान बलात्कार के आरोपी हैं. अगर किसी व्यक्ति की नैतिकता का पैमाना उस पर लगे आरोपों को बना लिया जाए तो फिर देश के आधे राजनेताओं को सार्वजनिक जीवन से तौबा कर लेनी पड़ेगी.

क्या हैं आरोप और क्या है सच्चाई?

बीजेपी और कांग्रेस के कई धाकड़ नेताओं पर हत्या, बलात्कार, रिश्वतखोरी और अन्य गंभीर अपराधों के आरोप हैं. कुछ राजनेताओं के जेल जाने और यहां तक कि तड़ीपार करार दिए जाने का इतिहास रहा है. इसके उलट कफील खान को पुलिस ने क्लीन चिट दी है. खान के खिलाफ दर्ज एफआईआर पर गोरखपुर पुलिस ने 3 अप्रैल 2015 की अपनी अंतिम रिपोर्ट में कहा कि उनपर लगाए गए आरोप बेबुनियाद हैं.

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जांच-पड़ताल में सामने आया कि कफील खान पर साजिशन आरोप मढ़े गए. कफील खान पर बाबा राघवदास अस्पताल से ऑक्सीजन चुराने का आरोप है. लेकिन इस चोरी का सबूत क्या है? इसकी शिकायत कहां हुई है? क्या अस्पताल को चोरी का पता उस वक्त चला जब कफील खान लोगों की नजरों में हीरो बने?

सोचिए कि कोई डॉक्टर अस्पताल की नालियों में बहे लिक्विड ऑक्सीजन को कैसे चुरा सकता है? क्या जैसे नलकी का टैप खोलकर पानी भरते हैं उसी तरह कफील खान ऑक्सीजन को बोतल में भरकर अपने घर ले जाते थे? या वे पूरा का पूरा ऑक्सीजन सिलेंडर ही उठाकर 15 किलोमीटर दूर अपने घर ले जाते थे? क्या इतने दिनों से किसी ने उन्हें ऐसा करते हुए नहीं देखा? क्या चोरी की बात उसी घड़ी पता चली जब अस्पताल में दुर्घटना हुई?

खान पर एक आरोप यह है कि वे प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं. इस आरोप पर बस हंसा जा सकता है. भारत में तकरीबन हर सरकारी डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करता है. और देश का कानून इसकी इजाजत भी देता है. साल 2011 के अगस्त महीने में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि सरकारी डाक्टर का प्राइवेट प्रैक्टिस करना अपराध नहीं है. कोर्ट ने कहा कि अगर कोई सरकारी डॉक्टर निजी प्रैक्टिस पर लगे रोक का उल्लंघन करते हुए अपनी नौकरी के वक्त के बाद के घंटों में मरीज से क्लीनिक में उपचार का शुल्क लेता है तो इसे ना तो किसी व्यापार-कार्य में लिप्त होना माना जाएगा और ना ही ऐसे डॉक्टर पर भ्रष्टाचार-रोधी कानूनों के तहत कोई मामला बनेगा.

ऐसे में, अगर डाक्टर खान ने निजी प्रैक्टिस की भी है तो आखिर उनका अपराध क्या है ? इसके अलावे कफील खान की छवि खराब करने की नीयत से अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़कर उनपर कुछ और आरोप लगाए गए हैं. इनमें एक विचित्र आरोप यह भी है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार को बदनाम करने की साजिश की जा रही है और कफील खान उस साजिश का हिस्सा थे. इस तरह की बेसिर-पैर की बात सिर्फ कोई धर्मान्ध ही सोच सकता है.

चश्मदीदों का कुछ और ही है मानना

चलो मान लिया कि कफील खान का अतीत दागदार रहा है, तो भी क्या जो कुछ उन्होंने घटना के दिन किया उसकी कोई अहमियत नहीं? क्या कभी पापी रह चुका कोई शख्स किसी रोज हीरो नहीं हो सकता? सम्राट अशोक से जुड़ी कथा या फिर अंगुलिमाल की कहानी क्या हमसे यह नहीं कहती कि करुणा में हम सबको बदल डालने की ताकत है?

न्यूज18.कॉम की रिपोर्ट में एक चश्मदीद का बयान है कि कफील खान ने सचमुच अस्पताल के लिए सिलेंडर जुटाने में जी-जान लगा दी थी. डॉ. खान के खिलाफ हुई सरकारी कार्रवाई पर सवाल उठाने के लिए न्यूज 18 के पास पर्याप्त सबूत हैं. ये सबूत सशस्त्र सीमा बल से हासिल हुए हैं, जो केंद्रीय सुरक्षा बल है.

सीमा सुरक्षा बल के जनसंपर्क अधिकारी ओपी साहू के मुताबिक, 'बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में 10 अगस्त को अप्रत्याशित आपदा की हालत थी. डॉ. खान सीमा सुरक्षा बल के डीआईजी के पास पहुंचे और उन्होंने एक ट्रक देने की गुजारिश की ताकि अलग-अलग जगहों से सिलेंडर जुटाकर मेडिकल कॉलेज पहुंचाया जा सके.'

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साहू का कहना है कि 'डीआईजी ने बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज के कर्मचारियों की सहायता के लिए मेडिकल विंग के 11 जवान भी भेजे. घंटों हमारा ट्रक खलीलाबाद के गोदाम सहित कई और जगहों से सिलेंडर इकट्ठा करता और उन्हें मेडिकल कॉलेज पहुंचाता रहा जहां बड़े संकट के हालात थे.'

डॉक्टर खान पर कीचड़ उछाला जा रहा है, उनकी छवि खराब की जा रही है और बड़े शर्म की बात है. किसी भी दूसरे देश में उन्हें एक रोल मॉडल माना जाता. डॉक्टर खान पर हो रहे हमले से पता चलता है कि की-बोर्ड पर अंगुलियों की हरकत से हंगामा खड़ा करने में माहिर हिंदुत्व के लड़ाके मन ही मन बहुत ज्यादा असुरक्षित हैं. वे इस सच्चाई का सामना करने को तैयार नहीं कि उनके अपने हीरो जब कर्तव्य निर्वाह में धड़ाम हो गए तो एक मुसलमान ने साबित किया कि वह सबसे पहले एक डॉक्टर और एक भारतीय है.

किसी समाज की परीक्षा इस बात से भी होती है कि उसका बच्चों को लेकर क्या रवैया है, बच्चों के बारे में उसने क्या आदर्श निर्धारित कर रखे हैं. गोरखपुर के वाकये ने हमें आईना दिखा दिया है.