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डीयू कट ऑफ लिस्ट: उम्मीदों का गला घोंटती एडमिशन की बदनाम प्रक्रिया

'ये कैसे नंबर हैं, आखिर किसी कॉलेज में कट-ऑफ 100 प्रतिशत नंबर कैसे हो सकता है?'

Shantanu Guha Ray

(ये लेख दिल्ली यूनिवर्सिटी के अव्यवहारिक कट ऑफ लिस्ट पर हमारी तीन पार्ट की सीरीज का पहला लेख है )

भारत की कॉलेज एडमिशन की बदनाम प्रक्रिया सोमवार यानी 29 मई से शुरू हो गई. इस प्रक्रिया ने एक बार फिर छात्रों को याद दिला दिया कि अगर आपके नंबर 95 फीसदी से कम हैं, तो इसकी वजह से आपको चौबीसों घंटे तनाव का सामना करना पड़ेगा.


भारत की राजधानी नई दिल्ली में स्थित दिल्ली यूनिवर्सिटी और इसके टॉप के कॉलेजों में भयंकर अराजकता का माहौल है. 95 फीसद से ज्यादा नंबर वाले छात्रों को कहा गया है कि वो खास ओरिएंटेशन क्लास का इंतजार करें. मतलब दाखिले की रेस में उन्हें प्रशासन ने आगे की कतार में खड़ा किया है.

95 फीसद से कम नंबर वालों को एक बड़े से ऑडिटोरियम में जमा किया गया. वहां पर लेक्चरर और दाखिले के सलाहकार भारी शोरगुल के बीच छात्रों को कुछ समझा रहे थे, जो उनकी समझ में बिल्कुल नहीं आया. क्योंकि छात्र, उनकी बातें सुनने को राजी नहीं थे.

आखिर किसी के 95 फीसद से कम नंबर होने पर वो दिल्ली यूनिवर्सिटी या कॉलेज के बजाय कहीं और दाखिले के लिए क्यों मजबूर किया जाता है?

दूसरे कॉलेजों तक जाने के लिए मजबूर छात्र

इस ऑडिटोरियम में छात्रों को बताया गया कि कट-ऑफ लिस्ट के नंबर बहुत ज्यादा हैं. बेस ग्रेड के बारे में भी छात्रों को बताया गया. बेस ग्रेड वो ग्रेड होता है जो छात्रों को सीनियर के हाथों रैगिंग के बाद क्लास में आने से पहले दिया जाता है. भीड़ में मौजूद ज्यादातर छात्रों को पता था कि उनके हाथ कुछ नहीं आने वाला.

एक सलाहकार चीख रहा था, सारे विषयों के फॉर्म भर दो. क्या पता किसमें दाखिले का चांस मिल जाए. जो भी मिलेगा उसे बोनस समझना. भीड़ में आए कुछ छात्र खास मकसद से वहां आए थे.

दक्षिण दिल्ली के आर के पुरम स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल की छात्रा प्रीति सिंह अर्थशास्त्री बनना चाहती हैं. वो एक किसान की बेटी हैं. उनके कुल नंबर 89 फीसद ही हैं. प्रीति को पता है कि मौजूदा नंबर के आधार पर उन्हें शायद ही दाखिला मिले. फिर भी वो एक उम्मीद में यहां चली आईं.

प्रीति सिंह अर्थशास्त्र के सबसे नामी कॉलेज, श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में एडमिशन लेना चाहती हैं. लेकिन वहां पर अर्थशास्त्र और दूसरे ह्यूमैनिटीज़ के विषयों में ऑनर्स में कट ऑफ की पहली लिस्ट 100 फीसद नंबरों की है. कॉलेज ने पहली लिस्ट जारी होने के बाद ही दाखिला बंद कर दिया. जबकि दूसरे कॉलेज दाखिले के लिए दूसरी लिस्ट भी जारी करते हैं. कई तो तीसरी लिस्ट भी जारी करते हैं.

ऐसा माना जा रहा है कि इस बार दाखिले में मुकाबला और भी गलाकाट होने वाला है. क्योंकि इस बार सीबीएसई के बारहवीं के नतीजों में 95 फीसद से ज्यादा नंबर पाने वाले छात्रों की तादाद आठ फीसद ज्यादा है.

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कट-ऑफ के नंबर और बढ़ने की आशंका

श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के कार्यकारी प्रिंसिपल आर पी रुस्तगी कहते हैं कि कट ऑफ के नंबर अभी और बढ़ेंगे. क्योंकि हमारे यहां पूरे देश से छात्र दाखिले के लिए आते हैं. खालसा कॉलेज के प्रिंसिपल जसविंदर सिंह कहते हैं, दाखिले के कट ऑफ में इस बार भी किसी रियायत की उम्मीद बेमानी है. हालात पिछले साल जैसे ही रहने वाले हैं. शायद और भी बुरे हों.

दिल्ली में पिछले साल के मुकाबले 95 प्रतिशत से ज्यादा नंबर पाने वाले छात्रों की तादाद पिछले साल के 2927 से घटकर इस बार 2326 रह गई है. अब ऐसे छात्रों को देश के दूसरे हिस्सों में 95 प्रतिशत से ज्यादा नंबर हासिल करने वाले छात्रों से मुकाबला करना होगा. क्योंकि देश भर में 95 फीसद से ज्यादा नंबर पाने वाले छात्रों की तादाद 740 बढ़ गई है. देश भर में इस बार 63 हजार 247 छात्रों को 90 प्रतिशत से ज्यादा नंबर मिले हैं. पिछले बार ये तादाद 63,387 थी.

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दाखिला लेने की इच्छा रखने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी

दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंडरग्रेजुएट कोर्स की 56,000 सीटें हैं, जोकि पिछले साल के मुकाबले दो हजार ज्यादा हैं. लेकिन दाखिला लेने की चाहत रखने वालों की संख्या इसकी चार गुनी है. माना जा रहा है कि इस साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिले की दौड़ में साढ़े तीन लाख से ज्यादा सीबीएसई के छात्र शामिल हैं.

दिल्ली के ब्लूबेल्स स्कूल के प्रिंसिपल सुमन कुमार मानते हैं कि पूरा मामला लगातार बढ़ते कट-ऑफ नंबर और दाखिले के इच्छुक छात्रों की संख्या का है.

सुमन कुमार मानते हैं कि सीबीएसई को नंबर देने के अपने सिस्टम के बारे में सोचना चाहिए. छात्रों पर लगातार दबाव बढ़ रहा है. छात्रों को भी दूसरे विकल्पों के बारे में सोचना चाहिए.

उन्होंने कहा, अगर उनकी पहली पसंद का विषय या कॉलेज नहीं मिल रहा, तो उन्हें दूसरे विषयों या कॉलेज के बारे में सोचना चाहिए. प्रिंसिपल के तौर पर वो लगातार छात्रों को तनाव से गुजरते देखती रही हैं.

कड़ी मेहनत के बाद भी कट-ऑफ ने किए दरवाजे बंद

प्रीति सिंह अब पढ़ाई के लिए घंटों की मेहनत, बार-बार के टेस्ट और लगातार तनाव लेने के बारे में सोच रही हैं. उन्हें लगता है कि क्या इतना सब करने के बाद यूनिवर्सिटी आना ठीक था? क्योंकि यहां तो दरवाजे पहले ही दिन से बंद हैं.

प्रीति को अब मजबूरी में निजी कॉलेज में दाखिला लेना होगा. प्राइवेट कॉलेज में अंडरग्रेजुएट कोर्स के लिए फीस साढ़े तीन से साढ़े चार लाख के बीच होगी. प्रीति कहती हैं कि उनके मां-बाप ने पिछले दस साल से उनकी पढ़ाई पर बहुत पैसे खर्च किए हैं. अब आगे पढ़ाने के लिए उन्हें गहने बेचने होंगे या बीमा के बदले कर्ज लेना होगा.

इस वक्त भारत में लोगों ने 15 हजार करोड़ रुपए एजुकेशन लोन के तौर पर ले रखे हैं. इस साल ये रकम 17 हजार करोड़ के पार जाने की उम्मीद है. क्योंकि बहुत से मां-बाप ऐसे हैं जिन्हें अपने बच्चों को मजबूरी में निजी कॉलेज में पढ़ाना पड़ेगा. एजुकेशन लोन के बाजार में स्टेट बैंक की हिस्सेदारी 23 प्रतिशत की है.

औसतन एक छात्र पर चार लाख रुपए का एजुकेशन लोन है. विदेश में पढ़ाई के लिए ये औसत 50-60 लाख है.

बच्चों के साथ नंबर के लिए भेदभाव नस्लवाद जैसा है

शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े जानकार बताते हैं कि भारत में छात्र लगातार तनाव झेलते हैं. वो पढ़ाई पर ध्यान नहीं लगा पाते. कई बार तो उन्हें सोने और खाने का वक्त भी नहीं मिलता. बहुत से छात्रों को इस बात का पछतावा होता है कि उनकी वजह से उनके मां-बाप पर इतना बोझ पड़ रहा है.

मां-बाप की उम्मीदों का बोझ भी छात्र ढोते हैं. काउंसलर स्वाति सोढ़ी कहती हैं कि अक्सर मां-बाप अपनी अधूरी ख्वाहिशों का बोझ अपने बच्चों पर डाल देते हैं.

आज बच्चों पर 95 फीसद नहीं, 98-99 फीसद नंबर लाने का दबाव है. क्योंकि इसी तरह वो मनपसंद विषय में दाखिला हासिल कर सकते हैं.

स्वाति सोढ़ी कहती हैं कि, 'सभी ये कहते हैं कि ये बात बेहद अफसोस की है. लेकिन यही लोग सोशल मीडिया पर, बच्चों के नंबरों की नुमाइश करते हैं. बच्चों के नंबर हिंदुस्तान में मां-बाप के लिए गुरूर का विषय बन जाते हैं. ये नस्लवाद जैसा लगता है. अच्छे नंबर वाले अलग नजरिए से देखे जाते हैं. बाकियों के साथ गरीबों जैसा बर्ताव किया जाता है'.

तस्वीर: दिल्ली यूनिवर्सिटी न्यूज़ से

अभाव का ये बाजार बहुत बड़ा है

इंजीनियर से फिल्मकार बने सौरभ कुमार कहते हैं कि भारत में छात्रों की उम्मीदों और रोजगार के बाजार के बीच बड़ा फासला है. इसके बावजूद कोटा जैसे शहरों में तैयारी के नाम पर कोचिंग का 28 हजार करोड़ रुपयों का धंधा चल रहा है. सौरभ कहते हैं कि ये सोचकर ही हंसी आती है कि दस हजार सीटों के लिए पंद्रह लाख लोग इम्तिहान में बैठते हैं.

सौरभ कहते हैं कि छात्रों के मां-बाप उन्हें चेतावनी देते रहते हैं कि पढ़ोगे नहीं तो पीछे ही रह जाओगे. देश के मंदिरों में छात्रों की दुआएं लिखी रहती हैं. लोग दाखिले के लिए भगवान के दर पर माथा टेकते दिखाई दे जाते हैं.

हर साल छात्र देश के टॉप कॉलेज के बारे में अखबारों और पत्रिकाओं में पढ़ते हैं. फिर वो सोचते हैं कि काश कोई और कोर्स वो कर पाते. किसी घटिया से कॉलेज में सही दाखिला तो मिल जाता. मगर उनकी उम्मीदें कौन पूरी करे.

एमएम एडवाइजरी सर्विस की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल भारत से करीब तीन लाख छात्र पढ़ने के लिए विदेश जाते हैं. इनमें से एक तिहाई छात्र अपना घर गिरवी रखकर विदेश में पढ़ने के लिए पैसा जुटाते हैं. ये आंकड़ा हर साल 15-20 फीसद की दर से बढ़ रहा है. लोग घर और गहने गिरवी रखकर पढ़ाई का खर्च जुटा रहे हैं.

अनुभवी पत्रकार अरिंदम मुखर्जी कहते हैं कि भारत में दाखिले की प्रक्रिया बेहद मुश्किल है. बड़े और नामी कॉलेज में सीट नहीं हैं. वहीं निजी कॉलेज में मोटी फीस लगती है. इसके बावजूद प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाई का स्तर घटिया ही है.

अरिंदम पुडुचेरी के जेआईपीएमईआर (JIPMER) मेडिकल कॉलेज की मिसाल देते हैं. ये देश के बेहतरीन मेडिकल कॉलेजों में से एक है. यहां पांच साल के MBBS कोर्स की फीस बीस हजार रुपए सालाना है.

वहीं कोच्चि स्थित अमृता स्कूल ऑफ मेडिसिन इसी कोर्स के लिए 35 लाख रुपए लेता है. बहुत से कॉलेज पिछले कुछ सालों में बंद हुए हैं. 2016 में 200 कॉलेज बंद हो गए. इसके अलावा 55 इंजीनियरिंग कॉलेज पिछले साल बंद हुए. इन कॉलेजों में 30 हजार छात्रों के पढ़ने की व्यवस्था थी, मगर सिर्फ 100 छात्रों ने दाखिला लिया.

अरिंदम मुखर्जी कहते हैं कि 95 फीसद नंबर बहुत अहम हैं. इसकी मदद से आपको अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल सकता है. इन कॉलेजों में फीस कम लगती है. या तो फिर आप निजी कॉलेजों में बच्चों को दाखिला दिलाएं और मोटी रकम का इंतजाम करें.

कुछ लोग कहते हैं कि स्कूलों का बैच सिस्टम छात्रों के तनाव के लिए जिम्मेदार है. अगर दो महीने बाद होने वाले इम्तिहान में किसी छात्र के नंबर कम हैं, तो उसे कम नंबर वाले छात्रों के साथ रख दिया जाता है. उसे पढ़ाने वाले टीचर भी औसत दर्जे के ही होते हैं.

दाखिले का सीजन बुरे ख्वाब जैसा

इंद्रप्रस्थ कॉलेज के सामने खड़ी प्रीति सिंह को समझ में नहीं आ रहा कि वो अपनी हालत के लिए किसे दोष दें. एक भी अध्यापक उनसे आंख नहीं मिला रहा.

प्रीति सिंह अकेली नहीं हैं. मुंबई में लेखिका शोभा डे कहती हैं वो हर साल इस वक्त ऐसा ही महसूस करती हैं. वो एक लेख लिख रही हैं जिसमें भारत की शिक्षा व्यवस्था में इंकलाब की जरूरत बताई गई है. खास तौर से दाखिले की प्रक्रिया में बदलाव की सख्त जरूरत है.

डे कहती हैं कि दाखिले के सीजन में उन्हें बुरे ख्वाब आते हैं. ये कैसे नंबर हैं. वो पूछती हैं कि आखिर किसी कॉलेज में कट ऑफ 100 प्रतिशत नंबर कैसे हो सकता है?

इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. कॉलेजों के बाहर उम्मीदों की भीड़ बढ़ती जा रही है. सब नाउम्मीद हैं. फिर भी दिल के किसी कोने में उम्मीद का दिया जलाए हुए हैं. शायद कट ऑफ कुछ कम हो जाए.