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अदालतों का 'ब्राह्मणीकरण': अंग्रेजी की हैसियत कम कर क्षेत्रीय भाषाओं को देना होगा बढ़ावा

उच्च अदालतों में अंग्रेजी को जो खास दर्जा हासिल है, उसे कम करने की जरूरत है. इस बदलाव की शुरुआत संविधान संशोधन से ही हो सकती है

Ajay Singh

'आप एक जज हैं और आप अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते हैं?आप हिंदी में अदालत की कार्यवाही चला सकते हैं. आप हिंदी में अपने फ़ैसले लिख सकते हैं. मगर जब आप सुप्रीम कोर्ट आएं, तो आप को अंग्रेजी में ही बोलना होगा' -मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की हिंदी में जिरह कर रहे एक एडिश्नल जज को सलाह.

मेरे पत्रकार साथी ताहिर अब्बास अपने पिता से जुड़ा हुआ दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं. ताहिर के पिता आजादी से पहले लखनऊ में एक बार मुहम्मद अली जिन्ना की एक रैली में गए थे. वो रैली से बहुत निराश होकर लौटे. वो इस बात से दुखी थे कि जिस जिन्ना को वो भारतीय मुसलमानों का महान नेता समझते थे, वो तो पूरी तरह से अंग्रेजीदां थे. उन्होंने अंग्रेजी में ही तकरीर की थी. पर, इस रैली में जाने वाले मौलवी जिन्ना से बहुत प्रभावित थे. उनका कहना था कि, 'मियां, अंग्रेज भी ऐसी अंग्रेजी नहीं बोल पाते.'


जिन्ना जो अंग्रेजी बोलते थे, वो उनके ज्यादातर अनुयायियों की समझ से परे थी. लेकिन, इससे आम मुसलमान हों या मौलवी, दोनों ही बहुत प्रभावित थे. इससे हमें पता चलता है कि हम अंग्रेजी को जितनी अहमियत देते हैं, उसका असर उससे कहीं ज्यादा है. इसकी ताकत का लोग सही-सही अनुमान नहीं लगा पाए.

अंग्रेजी को लेकर वो सोच आज भी बरकरार है. अफसोस की बात है कि आज अंग्रेजी के चलन को भारत का सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक अधिकार के तहत बढ़ावा देता है.

कानून की भाषा क्या होनी चाहिए?

यही वजह है कि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगई ने एक एडिश्नल जज को अंग्रेजी के बजाय हिंदी में जिरह करने पर फटकार लगाई. हमें इस पर अचरज नहीं होता. आज इस घटना का विस्तार से वर्णन करना उतनी अहमियत नहीं रखता. बल्कि इस घटना से जो दूसरा बड़ा मुद्दा उठ खड़ा हुआ है, वो है कि कानून की भाषा क्या होनी चाहिए?

वैसे, ये पहली बार नहीं था जब देश की सर्वोच्च अदालत की कार्यवाही किस भाषा में हो, इसे लेकर विवाद खड़ा हुआ. बागी तेवरों वाले नेता राज नारायण, अपने समाजवादी सहयोगी मधु लिमये से जुड़े एक मामले में दखल देना चाहते थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जजों ने राज नारायण को ये कहते हुए रोक दिया कि वो जिस भाषा में बोल रहे हैं, वो उसमें अदालत की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकते हैं.

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इस मामले में कानून चीफ जस्टिस गोगोई के साथ है. अंग्रेजी सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक भाषा है. ये अधिकार सर्वोच्च अदालत को संविधान के अनुच्छेद 348 (सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट, कानूनों और विधेयकों की भाषा के संबंध में) लिखा है कि '(a)सुप्रीम कोर्ट और सभी राज्यों के हाई कोर्ट की भाषा अंग्रेजी होगी.' जिस वक्त संविधान सभा में इस मुद्दे पर चर्चा चल रही थी, उस वक्त चुनौती अलग थी. संविधान सभा के सामने तमाम भाषाएं बोलने वाले एक देश के निर्माण की चुनौती थी.

उसके बाद से संविधान में कई बार संशोधन किए गए हैं. मगर, ये साम्राज्यवादी विरासत अब तक बदलावों से अछूती रही है. बहुत से उच्च न्यायालयों में अब क्षेत्रीय भाषाओं में काम होता है. राज्यों ने राष्ट्रपति की अनुमति से ये बदलाव किए हैं.

भाषाई लोकतांत्रिकरण की बात क्यों नहीं उठी है?

मुद्दा ये नहीं है कि ये भाषाई रंगभेद कैसे संविधान का हिस्सा बना. विषय ये है कि कैसे ये बात हमारे संविधान में 70 साल से भी ज्यादा समय से बनी हुई है. कभी भी सुप्रीम कोर्ट के भाषाई लोकतांत्रिकरण की चर्चा क्यों नहीं हुई, ताकि सर्वोच्च अदालत देश में आ रहे बदलावों के साथ कदमताल मिलाकर चले?

हमारे लोकतंत्र के दो दूसरे स्तंभों, विधायिका और कार्यपालिका को भी आजादी के बाद के शुरुआती दिनों में ये भाषाई भेदभाव चलाने की इजाजत थी. लेकिन दोनों ने खुद को इस साम्राज्यवादी विरासत के पंजे से आजाद करा लिया. हालांकि संविधान का अनुच्छेद ये भी कहता है कि सभी विधेयक/केंद्र और राज्य सरकारों के सभी कानून और अध्यादेश अंग्रेजी भाषा में होने चाहिए. फिर भी विधायिकाएं आज न केवल तमाम भाषाओं में कार्यवाही चलाती हैं, बल्कि तमाम विधेयक और संसद के कानून अंग्रेजी के साथ हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी प्रकाशित किए जाते हैं.

अगर संसद और राज्य की विधायिकाओं ने भी सुप्रीम कोर्ट की तरह अंग्रेजी भाषा को तरजीह दी होती, तो इसका मतलब तो यही होता न कि कानून से ज्यादा एक खास भाषा में बर्ताव को तवज्जो दी गई. ऐसे में तो नेहरू का भारत आराम से लालबहादुर शास्त्री के भारत में तब्दील नहीं हो पाता. ब्रिटिश राज की विरासत इतनी ताकतवर थी कि कई दशकों तक प्रशासन के अंग उसकी आदतों और मिजाज के चोले को उतार नहीं पाए. लेकिन, देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लोकतांत्रिकरण से ये मुमकिन हुआ कि आज हमारे देश की संसद और राज्य की विधानसभाओं में तमाम भाषाओं में खुलकर बहस और चर्चाएं होती हैं. ये हमारे समाज की बहुलता का प्रतीक है.

सुप्रीम कोर्ट ने खुद को इससे कैसे अछूता रखा है?

लेकिन देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने खुद को देश में आए इस बदलाव से पुरजोर तरीके से अछूता रखा है. खुद को बड़े ही शानदार तरीके से देश के बाकी संस्थाओं में आए बदलाव से अलग रखने को न्यायपालिका वाजिब भी ठहराती रही है. इसके पीछे सोच यही है कि कि कानून की बारीकियों और पेचीदगियों का ज्ञान और इसकी समझ, किसी को अंग्रेजी आने और अदालत में अंग्रेजी बोलने से ही होती है. ऐसी ही सोच की बुनियाद पर 2008 में भारत के न्यायिक आयोग ने अपनी 216वीं रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था, 'सुप्रीम कोर्ट में हिंदी को अनिवार्य बनाने की व्यवहारता न होना' सौंपी थी.

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उस वक्त संसद की आधिकारिक भाषा कमेटी ने प्रस्ताव दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही केवल अंग्रेजी में चलाने की बाध्यता को खत्म किया जाए. इस प्रस्ताव को विचार के लिए लॉ कमीशन के पास भेजा गया. आयोग ने इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीशों, वरिष्ठ वकीलों और तमाम राज्यों की बार एसोसिएशन्स से सलाह-मशविरा किया. कानूनी जानकारों की राय के आधार पर लॉ कमीशन ने सुप्रीम कोर्ट में हिंदी भाषा लागू न करने की सिफारिश की.

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में तमाम और बातों के अलावा ये भी लिखा कि, 'किसी भी सूरत में सुप्रीम कोर्ट पर कोई भी भाषा नहीं थोपी जानी चाहिए. माननीय अदालत को अपने फैसले अपनी पसंद की भाषा में देने की आजादी होनी चाहिए. यहां ये याद रखना जरूरी है कि हर नागरिक, हर अदालत को ये अधिकार है कि वो सुप्रीम कोर्ट के तय किए हुए कानून को समझे. और हमें ये समझना होगा कि इस वक्त ऐसी इकलौती भाषा केवल अंग्रेजी है' (रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया था.)

जमीनी हकीकत लॉर्ड मैकाले की सोच वाले इस तर्क के बिल्कुल उलट है. लॉ कमीशन का ये मानना तारीफ के काबिल है कि हर नागरिक को सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को समझने का अधिकार है. लेकिन, इस मकसद के लिए अंग्रेजी भाषा का चुनाव सबसे अनुचित है. 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में केवल 2,26,449 लोगों की पहली जबान अंग्रेजी है, यानी कुल आबादी का महज 0.02 फीसद. वहीं, जिन लोगों ने अपनी दूसरी या तीसरी भाषा अंग्रेजी बताई, उन्हें भी जोड़ दें, तो ये तादाद कुल आबादी की 12.18 प्रतिशत होती है. जबकि हिंदी को देश की 53.16 प्रतिशत आबादी बोलती-समझती है.

दुनिया की तमाम भाषाओं की बात करें, तो चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी है. अफसोस की बात ये है कि अपने ही घर में हिंदी को हाशिए पर रखा गया है. हम ये नहीं कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में हिंदी में ही काम-काज होना चाहिए. बल्कि, इसके लिए किसी भी भारतीय भाषा को चुना जा सकता है.

अंग्रेजी से हुआ है ऊंची अदालतों का ब्राह्मणीकरण

इसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी में काम-काज को जरूरी बनाने के मिथक को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि ऊंची अदालतें उन चुनिंदा लोगों का गढ़ बन गई हैं, जो वो जबान बोलते हैं, जिसे जनता समझती ही नहीं. ये ठीक उसी तरह है जैसे हिंदू धर्म में संस्कृत भाषा. हिंदू कर्मकांड संस्कृत में कराए जाते हैं. ये पूजा-पाठ पेशेवर पंडित ही करा सकते हैं. उनके जजमानों को ये पता ही नहीं होता कि पंडित जी उनकी तरफ से क्या बोल रहे हैं, क्या कर रहे हैं. इसी तरह अंग्रेजी से ऊंची अदालतों का ब्राह्मणीकरण हो गया है.

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धार्मिक मामलों से इतर अदालतों में इस भाषाई बैरियर के बुरे नतीजे होते हैं. पहली बात तो ये कि इससे इंसाफ इतना महंगा हो गया है कि ठीक-ठाक पैसे वाले लोगों के लिए भी इंसाफ मांगना बहुत महंगा सौदा हो गया है. दूसरी बात ये है कि इससे उन लोगों की तादाद बहुत सीमित हो गई है, जिनसे हमारे वकील और जज आते हैं. क्योंकि इसके लिए अंग्रेजों वाली अंग्रेजी आना अनिवार्य बना हुआ है. नतीजा ये कि आज अदालतों में लंबित मुकदमों का पहाड़ खड़ा हो गया है. इंसाफ में देरी हो रही है. न्याय में देरी, न्याय न मिलने जैसी है.

आप को इस मौके पर भारत सरकार के एक पूर्व सचिव एच सी गुप्ता का किस्सा याद करना चाहिए. गुप्ता ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़कर खुद को बेकसूर ठहराने के लिए महंगा वकील करने के बजाय जेल जाना बेहतर समझा था. गुप्ता ने कहा था कि, 'मैं वकीलों की महंगी फीस नहीं भर सकता. तो मुझे जेल भेज दिया जाए, ताकि मैं इस दुरूह और तकलीफदेह कानूनी प्रक्रिया से बच सकूं.' एचसी गुप्ता की छवि एक ईमानदार अधिकारी की रही थी. मगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई सीबीआई जांच में उन्हें आरोपी बना दिया गया.

अकेले एचसी गुप्ता ही इस भाषाई रंगभेद के शिकार नहीं हुए. बड़े औद्योगिक घरानों, दागी छवि वाले अधिकारियों और पैसे वाले राजनेताओं को छोड़ दें, तो आम जनता के लिए इंसाफ मांगने सुप्रीम कोर्ट आना बहुत महंगा सौदा है.

इसकी तुलना हम देश की कार्यपालिका और विधायिकाओं में आए बदलाव से करें, तो आप को तस्वीर और साफ नजर आएगी. हमारे गणतंत्र के शुरुआती दिनों में संसद में समाज के ऊंचे तबके के लोग पहुंचते थे. यही हाल अधिकारी वर्ग का भी था. उनके लिए किसी भारतीय भाषा के मुकाबले अंग्रेजी में काम करना आसान था. लेकिन, बाद में हिंदी और दूसरी भाषाओं ने भी उस जगह पर अपनी दावेदारी ठोकी. इससे हमें भारतीय भाषाओं में बोलने वालों के विचार भी सुनवे को मिले. परिचर्चाओं का स्तर और भी बढ़ा.

राजनीति और विधायिका में आए भाषाई लोकतंत्र ने बदले हैं हालात

राजनीति और विधायिका में आए भाषा के इस लोकतंत्र का ही नतीजा था कि ताकतवर क्षेत्रीय नेताओं ने भारतीय राजनीति की तस्वीर बदल दी. राज नारायण, चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, एनटी रामाराव, एम करुणानिधि जैसे नेता इस बात की मिसाल हैं. इसी तरह भारत की अफसरशाही में भी बहुत तब्दीली आई है. खास तौर से तब से तो हालात पूरी तरह बदल गए, जब से अभ्यर्थियों को क्षेत्रीय भाषाओं के चुनाव की आजादी दी गई.

विधायिका और कार्यपालिका में समाज के निचले वर्ग की ताकत बढ़ने से समाज के परंपरागत आला लोग अक्सर नाखुशी जताते रहे हैं. यही वजह है कि जो लोग शशि थरूर या मणिशंकर अय्यर जैसी अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं, उनका मजाक उड़ाया जाता है. लेकिन, इससे क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वालों की राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता. इन जमीनी नेताओं को अपनी ताकत और पहचान के लिए अंग्रेजीदां लोगों के सर्टिफिकेट की जरूरत ही नहीं महसूस हुई. मजे की बात ये है कि समाज के ऊंचे तबके से ताल्लुक रखने वाले नवीन पटनायक ने अपने आप को इस दर्जे से जुदा करके खुद को ओडिशा की राजनीति में मजबूती से स्थापित करने में कामयाबी हासिल की. इसी तरह, राजधानी में कई ऐसे अफसर हैं, जिनके बारे में सबको पता है कि वो अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते. फिर भी वो कामयाब हैं.

ऊंची अदालतें अभी निचले तबके से अछूती

मगर, देश की ऊंची अदालतें, समाज के निचले तबके की तरक्की से अछूती रही हैं. सर्वोच्च न्यायालय, सामाजिक तौर पर पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण का भी विरोध करता रहा है. जबकि हमारे लोकतंत्र में ब्यूरोक्रेसी में भी आरक्षण है. यही वजह है कि कानून मंत्रालय अक्सर उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं और समाज के दूसरे तबकों की कम नुमाइंदगी पर विचार करता रहा है. इसी तरह, सूचना के अधिकार का कानून प्रशासन के सभी अंगों पर लागू होता है. लेकिन, ऊंची अदालतों में ये अधिकार पूरी तरह से लागू नहीं है.

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कुल मिलाकर कहें तो, भारत में न्यायपालिका हुकूमत के दूसरे अंगों पर उंगली उठाते रहने की सबसे बड़ी मिसाल है. अदालतें अक्सर विधायिकाओं और कार्यपालिका को निशाने पर लेती रही हैं, ताकि अपने आप को महफूज रख सकें.

उच्च अदालतों में अंग्रेजी को जो खास दर्जा हासिल है, उसे कम करने की जरूरत है. ताकि न्याय के मंदिरों तक उन लोगों की पहुंच भी हो सके, जो विदेशों में पढ़कर आने वाले, कड़क-शानदार अंग्रेजी बोलने वाले महंगे वकीलों से अलग जबान बोलते हैं. ऊंची अदालतों में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रवेश काफी वक्त से लंबित है. अब ये जरूरी हो गया है. चूंकि, इस बदलाव की शुरुआत संविधान संशोधन से ही हो सकती है, तो अदालतों की भाषा क्या हो, इस पर कानून से जुड़े लोगों और समाज के दूसरे तबकों के बीच नए सिरे से चर्चा शुरू करने की जरूरत है.