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किसका BHU पार्ट-2: शिक्षकों की राजनीति में खत्म होता विश्वविद्यालय का लोकतंत्र

BHU में छात्रसंघ चुनाव नहीं होते हैं. बावजूद इसके शिक्षकों की राजनीतिक सक्रियता जरूरत से ज्यादा है

Utpal Pathak

सिर्फ गरिमामयी इतिहास का यशगान गाने से कुछ नहीं होता और खास तौर पर तब जब यथार्थ उस इतिहास को मुंह चिढ़ा रहा हो. अब का बीएचयू एक भगवा किला है. भले ही परिसर में छात्र संघ चुनावों पर रोक है लेकिन बची खुची छात्र राजनीति में अब सिर्फ विद्यार्थी परिषद का बोलबाला है.

(20 फरवरी 1997 को परिसर भरी हिंसा और आगजनी की घटनाएं हुयी थी. शस्त्र एवं शक्ति प्रदर्शन के बीच चल रहे एक जुलूस में दौरान एक छात्र की मौत भी हुयी थी, जिसके बाद बीएचयू में छात्र संघ चुनावों पर रोक लग गयी थी. तत्कालीन कुलपति डॉ वाईसी सिमहाद्री ने फौरी कार्यवाही करते हुए छात्र संघ पर भी रोक लगाई और परिसर में हर प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों पर भी रोक लगा दी.)


लेकिन अब ऐसा नहीं है, अब विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र परिसर में छात्र संघ न होने के बावजूद संघ और बीजेपी से अपने रिश्ते बताने में नहीं हिचकते और खासतौर पर जब उनके विपक्षी छात्र संगठनों से तुलना करने पर साफ होता है कि परिषद की तुलना में एनएसयूआई एवं एसएफआई के सदस्यों की संख्या अब यहां काफी कम है. परिषद का आत्मविश्वास पिछले तीन सालों में बढ़ा है और भले ही एसएफआई ने 2011-13 के बीच कुछ मजबूती प्राप्त करने की कोशिशें की हों लेकिन 2014 में बीजेपी को मिली अभूतपूर्व जीत के बाद परिषद के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे.

भागदौड़ भरा 2014

2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान विद्यार्थी परिषद के 250 सदस्य (जो कि विश्वविद्यालय छात्र भी थे) वाराणसी लोकसभा की दो विधानसभाओं में जनसम्पर्क और अन्य कार्यों में लगे हुए थे. हालांकि उन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में अरविन्द केजरीवाल का प्रदर्शन ज्यादा अच्छा रहा था लेकिन परिषद भी नगरीय सीटों में बीजेपी के अभूतपूर्व प्रदर्शन को लेकर निश्चिंत था. इसके अलावा परिषद की एक चालीस सदस्यीय टीम भी विश्वविद्यालय परिसर के 5000 मतदाताओं के बीच जनसम्पर्क करने में लगी हुई थी.

2014 चुनावों में नरेंद्र मोदी की बनारस रैली. फोटो सोर्स- रॉयटर्स

परिसर में लगभग 35000 छात्र हैं एवं 20,000 शैक्षणिक एवं गैर-शैक्षणिक प्राध्यापक और कर्मचारी हैं. लेकिन मतदाताओं की संख्या सिर्फ 5000 ही है और इनमें से 2200 मतदाता पूर्व छात्र और गैर शैक्षणिक कर्मचारी हैं, और 700-800 शैक्षणिक स्टाफ और उनके परिवार के सदस्य हैं. बीजेपी की चुनाव इकाईयों के सदस्यों ने परिसर की 14 आवासीय कालोनियों के एक एक घर में चार से अधिक बार गये. इसके अलावा उन्होंने चुनाव आयोग से समन्वय स्थापित करके परिसर की मतदाता सूचि को भी दुरुस्त करवाया. इस तमाम चक्रानुक्रम के पीछे का विज्ञान सिर्फ इतना ही था ताकि परिसर का मत प्रतिशत 50-60 तक चला जाय. लेकिन इस मेहनत के बदले में बीजेपी और परिषद को निराशा ही हाथ लगी और हर वर्ष की भांति 2014 में भी परिसर में 20-30 प्रतिशत मतदान ही हो पाया.

2014 के उपरान्त बीएचयू और राजनीति शास्त्र की राजनीति

आम चुनावों में मिली भारी जीत के बाद विश्वविद्यालय परिसर संघ की बड़ी गतिविधियों का केंद्रबिंदु बन गया और कई विभागों के विभागाध्यक्ष इस विचारधारा के ध्वजवाहक बन बैठे हैं. सामाजिक विज्ञान संकाय से सम्बद्ध राजनीति शास्त्र विभाग इस सूचि में अव्वल नम्बर पर है. विभाग के प्रमुख डॉ कौशल किशोर मिश्र बीजेपी और संघ से अपने सबंधों को सार्वजनिक रूप से उजागर करने से नहीं डरते. 2014 के लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने खुलकर प्रधानमंत्री के लिए जनसम्पर्क और चुनाव प्रचार किया और उस दौरान उन्होंने मीडिया के समक्ष क़ुबूल भी किया कि उन्होंने चुनावों में "वीआईपी प्रत्याशियों" के चुनाव पर शोध करने के लिए बाकायदा औपचारिक छुट्टी ली है.

इन्ही चुनावों के दौरान जब अस्सी घाट पर आप नेता सोमनाथ भारती पर कुछ लोगों ने हमला किया तब उस हमले के बाद दर्ज़ हुयी एफआईआर में डॉ मिश्र का भी नाम था. हालांकि उस मामले में उसके बाद कोई कार्यवाही किसी पर भी नहीं हुयी. डॉ मिश्र वाराणसी के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं और उनका नाम कई बार कुछ गतिविधियों के बीच सामने आता है लेकिन हर बार वे साक्ष्यों के अभाव एवं अपने संघीय प्रभाव के चलते दोषमुक्त साबित हो जाते हैं. बार बार फोन करने पर भी उन्होंने जवाब नहीं दिया. उनसे सबंधित लोगों ने बताया कि वे जाने पहचाने फोन ही उठाते हैं.

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस विश्वविद्यालय ने लोकतांत्रिक स्वरुप में नाना प्रकार की विचारधाराओं को परिसर में पल्लवित और पोषित किया उसी परिसर में अब एक सार्थक बहस भी मुश्किल है. सोच में इतना संक्रमण और संकुचन है कि साफ सुथरी बातचीत भी विरोध के रूप में देखी और समझी जाती है. और ऐसा 2014 से पहले शुरू हो गया था और इसका पहला स्वरुप तब दिखा जब चुनाव प्रचार के दौरान रघु राम और गुल पनाग पर परिसर में बांस की बल्लियों से हमला किया गया.

उसके बाद कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री ने भी आरोप लगाया कि छात्र संघ बहाली के मांग कर रहे छात्रों के साथ 20-21 नवम्बर 2014 को परिसर में हुयी हिंसा के पीछे संघ का हाथ था. उनका इशारा परिसर के सुरक्षाकर्मियों और छात्रों के बीच हुयी दो दिनों तक हुयी लगातार झड़प को लेकर था जिसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने तीन दर्ज़न छात्रों को गिरफ्तार किया था और परिसर के पांच छात्रावासों को खाली करवा दिया गया था.

ज्ञान शील एकता बनाम परिषद की विशेषता

ऐसे ही एक अन्य मामले में विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने एक कार्यक्रम में व्यवधान डालने की कोशिश की. यह संगोष्ठी कला संकाय द्वारा आयोजित थी और डॉ बद्री नारायण "मातहत समाज और विकासशील भारत" पर मुख्य वक्ता के रूप में बोल चुके थे. उनके उद्बोधन के बाद प्रख्यात कथाकार श्री काशीनाथ सिंह का उद्बोधन चल रहा था तभी भारत का झण्डा लिए परिषद के कुछ सदस्य सभागार में घुसे और नारे लगाने लगे. उनमे से कुछ ने भगवा गमछा और हाथ में तख्तियां ले रखी थी. उनमे से एक तख्ती में जेएनयू को राष्ट्र विरोधी संस्थान होने की संज्ञा दी गयी थी और कुछ तख्तियों में सियाचीन में मारे गये सैनिकों के छायाचित्र थे.

डॉ बद्रीनारायण को गालियां दी गयीं और उन्हें पत्थर मारने की धमकी दी गयी, कुछ छात्रों ने मंच पर चढ़ने की कोशिश भी की लेकिन उनका प्रयास विफल रहा. वे लगातार आयोजकों पर दबाव बना रहे थे कि डॉ बद्रीनारायण को परिसर से बाहर निकाला जाय और कन्हैया कुमार को देशद्रोही करार दिया जाय.

घटना के बाद इस बाबत जब हमने डॉ बद्री नारायण से संपर्क साधा तो उन्होंने बताया कि "वे बेचारे छात्र यह भी नहीं जानते थे की बद्री नारायण कौन है और उसने क्या किया है और क्या नहीं किया है, दरअसल विद्यार्थी परिषद के पीछे का चेहरा संघ है. जब से यह सरकार आयी है तब से शैक्षणिक संस्थाओं को भगवा केंद्रों में परिवर्तित करने की एक अघोषित मुहिम देश भर में चलायी जा रही है, मुझे यकीन है की आने वाले वर्षों इसका स्वरुप खुल कर सामने आयेगा."

ऐसे हे एक अन्य मामले में जब छात्रों के समूह ने कन्हैया कुमार के समर्थन में जुलूस निकालने की कोशिश की तो उन्हें मारा पीटा गया और उग्र परिषद सदस्यों ने सिंह द्वार पर खड़ी कुछ मोटरसाइकिलों समेत लंका क्षेत्र की कुछ दुकानों में आग लगा दी.

चंदा वसूली

पिछले दिनों एक नयी परंपरा अचानक से परिसर में शुरू हुयी जहां त्योहारों के नाम पर परिसर के दुकानदारों से ज़बरन चंदा वसूला जा रहा है. पहले यह चंदा सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा के नाम पर लिया जा रहा था मगर पिछले वर्ष से एक नया चंदा जुड़ा है जो होली मिलन के नाम पर लिया जा रहा है. होली मिलन की चंदा वसूली ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए और मोटरसाइकिलों पर सवार कुछ उत्साही युवक परिसर के दुकानदारों से चंदा वसूलने में कामयाब हो गये. कुछ फल विक्रेताओं से पैसे के अलावा उनका सामान भी छीन लिया गया. या सब कुछ ऐन होली की पूर्वसंध्या पर किया गया और कहीं से किसी ने विरोध नहीं किया.

परिसर में फल की दूकान चलाने वाले दुकानदार ने बताया, "भइया पहले सरस्वती पूजा का चंदा लेते थे बस, फिर दुर्गा पूजा का लेने लगे, दिक्कत नहीं था ज्यादा. कुछ नया लोग आया है वो होली का चंदा भी ले रहा है और सामान भी ले जाता है, मना करने पर मारता है. देना तो पड़ेगा ही.पहले का लड़का सब ऐसा नहीं था, उधार ले जाता तो भी वापस आकर पैसा दे जाता था. अब सब बदल गया है.

हमने विश्वविद्यालय के अतिथि गृहों में पिछले दो साल में आये हुए अतिथियों के बाबत जानकारी मांगने के कोशिश भी की लेकिन सबंधित अधिकारी ने कुछ भी बताने से इंकार किया और कहा कि ऐसी किसी भी जानकारी के लिए आरटीआई का सहारा लेना होगा.

इस लेख का पहला भाग यहां पढ़ें

किसका BHU पार्ट-1: क्या एक संगठन की जागीर है विश्वविद्यालय!