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बस्तर पार्ट 3: माओवाद के गढ़ से एजुकेशन हब बन रहे दंतेवाड़ा के कई इलाके

पिछले 5 साल में गीदम में जबरदस्त बदलाव देखने को मिला है. इसके शिक्षा का हब बनने के कारण गांव में सकारात्मक माहौल दिख रहा है

Debobrat Ghose

(एडिटर्स नोट: इस साल अप्रैल में, गृह मंत्रालय ने वामपंथी अतिवाद से ग्रस्त जिलों में से 44 जिलों के नाम हटा लिए थे. ये इस बात का इशारा था कि देश में माओवादी प्रभाव कम हुआ है. ये एक ऐसी बहुआयामी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत आक्रामक सुरक्षा और लगातार विकास के जरिए स्थानीय लोगों को माओवादी विचारधारा से दूर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, ये नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के कब्जे का अंत नहीं है. खतरा अब भी जंगलों में छुपा हुआ है- हारा हुआ, घायल और पलटकर वार करने के लिए बेताब. माओवादियों के गढ़ में घुसकर अतिवादियों की नाक के ठीक नीचे विकास कार्यों को बढ़ाना प्रशासन के सामने असली चुनौती है. तो फिर जमीन पर असल स्थिति क्या है? फ़र्स्टपोस्ट के रिपोर्टर देवव्रत घोष छत्तीसगढ़ में माओवादियों के गढ़ बस्तर में यही देखने जा रहे हैं. बस्तर वामपंथी अतिवाद से सबसे ज्यादा बुरी तरह जकड़ा हुआ है और यहीं माओवादियों ने अपने सबसे बड़े हमलों को अंजाम दिया है. इस सीरीज में हम देखेंगे कि यहां गांवों में कैसे बदलाव आए हैं, गांव वाले इन बदलावों को लेकर कितने उत्सुक हैं और ये भी कि खत्म होने का नाम नहीं लेने वाले माओवादियों के बीच में विकास कार्यों को बढ़ाने की मुहिम में प्रशासन और सुरक्षा बल कितने खतरों का सामना करते हैं.)

पालनार के उन्मुक्त भरे माहौल की ताजगी से दूर अब मैं और मेरे ड्राइवर गीदम में प्रवेश कर चुके थे, जो बस्तर इलाके का एक और 'गुमनाम' गांव है. यह गांव छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले (बस्तर डिवीजन) में पड़ता है. कुछ साल पहले तक बस्तर इलाके की पहचान सिर्फ माओवादियों के आतंक के गढ़ के रूप में थी.


इस इलाके में तैनात सुरक्षाकर्मियों पर कई हमले हुए हैं.

13 अगस्त, 2003 को हुआ ऐसा ही हमला माओवादी हिंसा की प्रकृति को सटीक तरीके से बयां करता है. उस दिन माओवादियों ने न सिर्फ गीदम नामक गांव में मौजूद पुलिस थाने को उड़ा दिया, बल्कि कुछ पुलिसकर्मियों की हत्या करने के बाद हथियार भी लूटकर ले गए. यहां तक उन्होंने एक हेड कॉन्स्टेबल का सिर काट लेने जैसा दुस्साहस भी किया. इसी इलाके में माओवादियों का एक और बड़ा हमला 27 दिसंबर 2011 को हुआ, जब हथियारों से लैस तकरीबन 50 माओवादियों ने निर्माणाधीन दो मंजिला इमारत को निशाना बनाया. इस बिल्डिंग में पुलिस स्टेशन शिफ्ट होना था, जिसे माओवादियों ने ध्वस्त कर दिया. हालांकि, यह नई बिल्डिंग तत्कालीन पुलिस स्टेशन से महज एक किलोमीटर की दूरी पर थी, लेकिन ब्लास्ट के तीन घंटे बाद भी किसी पुलिसकर्मी ने घटनास्थल पर पहुंचने की हिम्मत नहीं की.

माओवादियों का आतंक इस कदर था कि गांव वालों ने इन गुरिल्लाओं से दुश्मनी मोल लिए बगैर सिर्फ अपनी जिंदगी बचाने पर फोकस किया. हालांकि, पिछले 5 साल में चीजें बदलनी शुरू हो गई हैं. दरअसल, सरकारी बलों ने पहले छोटे इलाकों को नियंत्रित करने और सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने पर ध्यान केंद्रित किया, ताकि विकास से जुड़ी बुनियादी सुविधाओं को स्थापित किया जा सके.

गीदम 2003 तक ग्राम पंचायत के प्रशासन के तहत था. बस्तर इलाके का यह गांव सिर्फ आबादी में बढ़ोतरी के कारण धीरे-धीरे छोटे शहर (नगर पंचायत) में बदल गया. गीदम की जनजातीय आबादी को नक्सल खतरे के शिकंजे से निकलने और राहत भरे माहौल में सांस लेने में लंबा वक्त लगा. आज गीदम की आबादी 7,440 (2011 की जनगणना के मुताबिक) है और यहां का बाजार भी काफी तेजी से फल-फूल रहा है. यहां का बाजार दंतेवाड़ा शहर और जिला मुख्यालयों समेत आसपास के तमाम इलाकों को आकर्षित करता है.

बहु-आयामी रणनीति

यह सिर्फ पालनार या गीदम या वैसे कुछ अन्य गांवों का मामला नहीं है, जहां मैंने दौरा करने का प्लान बनाया. वैसे सभी जनजातीय गांव जो नक्सल प्रभावित हुआ करते थे और जहां (इस तरह के गांवों में) विकास हुआ, उस गांव ने इसी बहु-आयामी रणनीति का मॉडल अपनाया है. माओवादियों के प्रभुत्व वाले इलाकों को सुरक्षा संबंधी आक्रामक रणनीति के जरिये खाली कराने के बाद वहां पर सड़क, बिजली आदि के मामले में धीरे-धीरे विकास हो रहा है और उसके बाद शिक्षा के जरिये इन इलाकों के लोगों की सोच में बदलाव हो रहा है. गीदम इलाके में जवंगा इस रणनीति की बेहतर मिसाल है.

जवंगा गांव अब एजुकेशन हब बन चुका है (फोटो: देवव्रत घोष)

सुरक्षा के मोर्चे पर बात करें, तो इन इलाकों में पिछले 6 साल में हर 5 से 10 किलोमीटर की दूरी पर सीआरपीएफ पोस्ट बनाए गए हैं. राज्य की पुलिस फोर्स को हाल में गठित डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड से सहयोग मिल रहा है. डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड के तहत प्रशिक्षित स्थानीय युवा पुलिस टीम का हिस्सा हैं. ऐसे कई मोर्चों पर चरमपंथियों के खिलाफ आक्रामक तरीके से अभियानों को अंजाम दिया जाता है.

गीदम का हाट-बाजार

अपने आसपास के इलाकों में गीदम अपने साप्ताहिक बाजार के लिए मशहूर है, जिसे हाट-बाजार कहा जाता है. गीदम की तरफ जाते हुए रास्ते में मैंने इस बारे में सुना, जो जगदलपुर शहर से 76 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. गीदम कस्बे से सटे और दूर-दराज के गांवों के आदिवासी जंगल के अपने उत्पादों को बेचने और रोजाना जरूरत की चीजों को खरीदने के लिए हाट-बाजार पहुंचते हैं. इस संडे मार्केट की लोकप्रियता इस बात से भी समझी जा सकती है कि यहां दंतेवाड़ा के खरीदार और बिक्रीकर्ता भी पहुंचते है, जो गीदम से 13 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है. दूर-दराज के इस इलाके में खरीदारों और बेचने वालों के लिए इतनी दूरी मायने रखती है. इस जिले के बैलाडीला में मौजूद नेशनल मिनरल डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएमडीसी) की खानों के कर्मचारी भी इस हाट-बाजार में पहुंचते हैं.

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पहले, यह साप्ताहिक बाजार न सिर्फ छोटे-मोटे बिजनेस का ठिकाना था, बल्कि गुप्त माओवादी गतिविधियों के लिहाज से भी अहम केंद्र था. माओवादी अक्सर गांव वालों की भीड़ में घुलमिल कर पुलिस की गतिविधियों पर नजर रखते थे.

गीदम के एक स्थानीय निवासी ने नाम जाहिर नहीं किए जाने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'साप्ताहिक हाट-बाजार एक बड़ा कवर हुआ करता था, क्योंकि हजारों की संख्या में गांव वालों को अपने जंगली उत्पादों और पारंपरिक हथियारों के साथ गीदम आते थे. भोले-भाले आदिवासियों के छद्म रूप में वहां नक्सली भी रहते थे, लिहाजा घटनाओं को रोकना मुश्किल था. अक्सर वे अचानक से पुलिस पर हमला कर देते थे. गुजरे वक्त में इसी तरह से दो बार पुलिस थाने को उड़ा दिया गया था.'

पुलिस सूत्रों के मुताबिक, लेफ्ट विंग एक्सट्रीमिज्म (एलडब्ल्यूई) यानी वाम विचारधारा को मानने का दावा करने वाली चरमपंथी इकाइयों से जुड़े लोग अब भी बाजार आते हैं, लेकिन सुरक्षा बलों और इंटेलिजेंस नेटवर्क की चौकस निगरानी के कारण उनकी संख्या में काफी कमी आई है.

LWE हब से शिक्षा का हब बनने का सफर: अहम बदलाव

साल 2016 तक गीदम के आसपास के गांव माओवादियों के नियंत्रण में थे, लेकिन अब सरकारी बलों का पलड़ा भारी है और अगर बेहद दूर-दराज के इलाकों में मौजूद कुछ गांवों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी गांव माओवादियों के चंगुल से मुक्त हैं.

स्थानीय लोगों के मुताबिक, पिछले 5 साल में गीदम में जबदस्त बदलाव देखने को मिला है. इसके शिक्षा का हब बनने के कारण गांव में सकारात्मक माहौल दिख रहा है. यह न सिर्फ दंतेवाड़ा जिले के छात्रों बल्कि वाम चरमपंथी गतिविधियों से प्रभावित बस्तर डिवीजन के बाकी 6 जिलों के लिए भी कौशल (स्किल) आधारित शिक्षा का अहम ठिकाना बन गया है.

इससे आदिवासियों और उनके कल्याण से जुड़े मामलों पर काम कर रहे कई सामाजिक कार्यकर्ताओं की कोशिशों के लिए भी प्रोत्साहन की तरह है, जो (सामाजिक कार्यकर्ता) आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं. अतीत में ये कार्यकर्ता आदिवासियों को शिक्षा समेत बाकी सुविधाएं मुहैया कराने में सरकार की उदासीनता को लेकर दुखी रहते थे. हालांकि, गीदम में बदलाव ने इस सिलसिले में नए मानक गढ़े हैं कि किस तरह से इन कार्यों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा सकता है.

आज गीदम में पोस्ट ऑफिस, बैंक की एक शाखा, एटीएम, मोबाइल फोन टॉवर, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, बस स्टैंड, मार्केट के लिए जगह, पुलिस स्टेशन और सीआरपीएफ का एक कैंप है. यहां की कुल आबादी 7,440 है, जबकि यहां कुल 1,715 घर हैं. हालांकि, इसकी विशिष्ट पहचान शहर से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जवंगा को अटल बिहारी वाजपेयी एजुकेशन सिटी का दर्जा मिलने के कारण है.

एजुकेशन सिटी का प्लान दंतेवाड़ा के पूर्व कलक्टर ओ पी चौधरी ने तैयार किया था और इस संबंध में निर्माण कार्य 2011 से 2013 में उनके कार्यकाल के दौरान हुआ. पिछले 3 साल में केंद्र सरकार की फंडिंग, राज्य सरकार और एनएमडीसी के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के फंड से इस हब को तैयार किया गया.

गीदम में एनएमडीसी डीएवी पॉलिटेक्निक (फोटो: देवव्रत घोष)

एनएमडीसी-डीएवी पॉलिटेक्निक और बाकी संस्थानों के शिक्षकों ने बताया कि चौधरी के असाधारण उत्साह, मिशनरी अंदाज में प्लान पर काम और फंड मुहैया कराए जाने के कारण एजुकेशन सिटी का सपना साकार हो सका.

जवंगा में युवा बीपीओ से जुड़े ट्रेनी रमन कुमार ने बताया, 'साक्षरता के अलावा युवाओं को अब अच्छी शिक्षा और स्किल ट्रेनिंग के मौके भी मिल रहे हैं. हम बीजापुर जिले के छोटे आदिवासी गांव से आए हैं, जो अब भी माओवादियों के शिकंजे में है. शिक्षा और उसके बाद रोजगार से युवाओं की सोच में बदलाव मुमकिन होगा और वे नक्सल विचारधारा की तरफ आकर्षित नहीं हो सकेंगे. हमारे जिले में भी अब धीरे-धीरे चीजें बदल रही हैं.'

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एजुकेशन सिटी 120 एकड़ के कैंपस में मौजूद है. एनएमडीसी-डीएवी पॉलिटेक्निक के अलावा कैंपस में 14 अलग-अलग संस्थान हैं. इनमें औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, डिग्री कॉलेज, स्पोर्ट्स अकैडमी, सीबीएसई और राज्य बोर्ड के स्कूल, दिव्यांग बच्चों के लिए दो आवासीय स्कूल, लड़कों और लड़कियों के लिए हॉस्टल और 800 सीटों वालों ऑडिटोरियम भी शामिल हैं. संबंधित अधिकारियों ने बताया कि इस कैंपस में 7,000 छात्र-छात्राओं को हॉस्टल सुविधाओं से लैस शिक्षा मिल सकती है.

हालांकि, जिस चीज ने मेरा ध्यान आकर्षित कर मुझे सबसे हैरान किया, वह इस कैंपस में मौजूद बीपीओ था. बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं (ज्यादातर आदिवासी समुदाय से जुड़े) बहुमंजिला इमारतों के बाहर बातचीत कर रहे थे, जिससे माहौल काफी जिंदादिल हो गया था. इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इस कैंपस उस जगह से महज एक किलोमीटर की दूरी पर वह जगह है, जहां माओवादियों ने पहला पुलिस स्टेशन उड़ाया था.

'युवा' नाम से चल रहा यह ग्रामीण बीपीओ बस्तर डिवीडन के 550 युवाओं को प्रशिक्षण दे रहा है. सरकार की योजना इसमें छात्रों की क्षमता को बढ़ाकर 1,000 करने की है. आदिवासी इलाके में स्थानीय युवाओं को कॉरपोरेट वर्क कल्चर मुहैया कराने वाला यह पहला केंद्र है.

दंतेवाड़ा के डिस्ट्रिक्ट कलक्टर (डीसी) सौरभ कुमार ने बताया, 'इस तरह के केंद्र से सभी सात जिलों के युवाओं को कौशल हासिल करने और उसके बाद राज्य में या इसके बाहर रोजगार हासिल करने में मदद मिलेगी. इसका मुख्य आकर्षण ट्रेनिंग सेशन पूरा होने के बाद नौकरी की गारंटी है. एक तरफ, यह रोजगार के मौके मुहैया कराता है, जबकि दूसरी तरफ यह आदिवासी युवाओं को माओवादी विचाराधारा से दूर रखेगा.'

यहां पर आधुनिक तकनीक और सुविधाओं से लैस क्लासरूम और सुविधाएं वाकई में आकर्षक थीं. सरकार जहां प्रशिक्षण देने वालों और प्रशिक्षण हासिल करने वालों को इंफ्रास्ट्रक्चर, उपकरण, हॉस्टल और आने-जाने से संबंधित सुविधाएं मुहैया कराती है, वहीं प्राइवेट कंपनियों को भी भागीदार बनाकर रोजगार पैदा करने के लिए सहमत किया गया है.

युवा बीपीओ में प्रशिक्षण मुहैया कराने वाले शख्स साई सुशवंत ने बताया, 'हम कंप्यूटर साक्षर वैसे उम्मीदवारों को 45 दिनों का प्रशिक्षण दे रहे हैं, जो बस्तर के दूर-दराज के इलाकों से आते हैं. मुफ्त ट्रेनिंग के अलावा उम्मीदवारों को 4,000 रुपये का भत्ता भी दिया जाता है. हॉस्टल की सुविधा के कारण उम्मीदवार को कैंपस के भीतर ही रहने की सुविधा भी मिल जाती है'

गीदम के युवा बीपीओ में काम करते युवा (फोटो: देवव्रत घोष)

...पर अंदरखाने में भय का माहौल अब भी कायम

बेशक, प्रशासन की इच्छाशक्ति के जरिये गीदम गांव ने शिक्षा और अवसरों की संभावना की राह बनाई है, लेकिन अंदरखाने में डर का माहौल अब भी कायम है. यहां तक कि बीपीओ और एजुकेशन हब के कारण गीदम के अंदर भी मुख्य सड़क से 5 किलोमीटर के दायरे में शांति और बेहतर माहौल नजर आता है, लेकिन दूर-दराज के गांवों में अब भी माओवादियों के समर्थक मौजूद हैं. विकास अब तक उन इलाकों में नहीं पहुंचा है.

दंतेवाड़ा से जगदलपुर लौटते वक्त मेरे ड्राइवर उमा शंकर ने मुझे इस बात की याद दिलाई कि जब हम बस्तनार गांव पार कर रहे, तो सब कुछ इतना ठीक नहीं था. बस्तनार के घने जंगल वाले इलाके की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने (उमा शंकर) कहा, 'यहां नक्सली आज भी राज करते हैं.'

बस्तनर गांव गीदम से 24 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है. इसे अब भी माओवादियों का गढ़ माना जाता है. इस इलाके के माहौल में जो बदलाव हुआ है, उसका असर इस गांव पर अभी तक नहीं दिख रहा है.

सीआरपीएफ के दो कैंप और मध्य रात्रि में जवानों की पेट्रोलिंग के बावजूद बस्तनार सरकार के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है. इस गांव पर माओवादियों का नियंत्रण होने के कारण सरकार को यहां चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. बाहरी लोग सूर्यास्त के बाद इस गांव से पार करने में डरते हैं. दंतेवाड़ा के कुछ अन्य गांवों- मसलन कातेकल्याणा, कुवाकोंडा और कसोली आदि में भी ऐसा ही माामला है.

एनडीएमसी-डीएवी पॉलिटेक्निक में लेक्चरर पंकज शर्मा ने बताया, 'एक दशक पहले गीदम बुरी तरह से नक्सल प्रभावित था और हम बाजार के इलाकों और सड़कों पर माओवादी हमले के बारे में सुन चुके हैं. पिछले 5 साल में जबरदस्त विकास हुआ है. साक्षरता और शिक्षा से आदिवासी युवाओं की सोच को बदलने में मदद मिलेगी. इसके जरिये उन्हें नक्सल विचाराधारा से हटाया जाएगा. युवाओं को अब मुख्य धारा की शिक्षा और करियर विकल्पों का हिस्सा बनने का अवसर मिल रहा है.'

जब मैं गीदम में जनजीवन को सामान्य तरीके से चलते देखता हूं, तो इस बात को लेकर हैरानी होती है कि यह गांव दंतेवाड़ा जिले में पड़ता है, जो पूरे लाल गलियारे में सबसे उथल-पुथल वाला इलाका रहा है. दंतेवाड़ा वही इलाका है, जहां माओवादियों ने सुरक्षा बलों और अन्य सरकारी इकाइयों पर कई बड़े हमलों को अंजाम दिया है. निश्चित तौर पर इसका श्रेय उस उत्साही युवा टीम को दिया जाना चाहिए, जिसके हाथों में दंतेवाड़ा प्रशासन की कमान है.

उसके बाद मेरी गाड़ी कलक्टर सौरभ कुमार से मिलने दंतेवाड़ा शहर की तरफ बढ़ती है. कुमार से मिलने का मकसद उथल-पुथल वाली गतिविधियों से भरे इस जिले में जमीनी स्तर पर किस तरह का विकास हो रहा है, उस बारे में जानकारी हासिल करना था. और मेरे इस सफर में मेरे साथ उमाशंकर, उनकी कार और शोर-शराबे वाले पंजाबी संगीत का साथ था.