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बस्तर पार्ट 2: कभी माओवादियों का गढ़ था, आज पलनार गांव डिजिटल हब है

पलनार गांव के लोग ‘माओवादी’ का इस्तेमाल करने से डरते हैं, हिचकते हैं. इसकी जगह वो उन्हें ‘असामाजिक तत्व’ कहकर बुलाते हैं. इसीलिए उदयचंद ने जब ‘असामाजिक तत्व’ शब्द का प्रयोग किया तो उनका मतलब माओवादियों से ही था

Updated On: Jul 15, 2018 03:58 PM IST

Debobrat Ghose Debobrat Ghose
चीफ रिपोर्टर, फ़र्स्टपोस्ट

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बस्तर पार्ट 2: कभी माओवादियों का गढ़ था, आज पलनार गांव डिजिटल हब है

(एडिटर्स नोट: इस साल अप्रैल में, गृह मंत्रालय ने वामपंथी अतिवाद से ग्रस्त जिलों में से 44 जिलों के नाम हटा लिए थे. ये इस बात का इशारा था कि देश में माओवादी प्रभाव कम हुआ है. ये एक ऐसी बहुआयामी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत आक्रामक सुरक्षा और लगातार विकास के जरिए स्थानीय लोगों को माओवादी विचारधारा से दूर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, ये नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के कब्जे का अंत नहीं है. खतरा अब भी जंगलों में छुपा हुआ है- हारा हुआ, घायल और पलटकर वार करने के लिए बेताब. माओवादियों के गढ़ में घुसकर अतिवादियों की नाक के ठीक नीचे विकास कार्यों को बढ़ाना प्रशासन के सामने असली चुनौती है. तो फिर जमीन पर असल स्थिति क्या है? फ़र्स्टपोस्ट के रिपोर्टर देवव्रत घोष छत्तीसगढ़ में माओवादियों के गढ़ बस्तर में यही देखने जा रहे हैं. बस्तर वामपंथी अतिवाद से सबसे ज्यादा बुरी तरह जकड़ा हुआ है और यहीं माओवादियों ने अपने सबसे बड़े हमलों को अंजाम दिया है. इस सीरीज में हम देखेंगे कि यहां गांवों में कैसे बदलाव आए हैं, गांव वाले इन बदलावों को लेकर कितने उत्सुक हैं और ये भी कि खत्म होने का नाम नहीं लेने वाले माओवादियों के बीच में विकास कार्यों को बढ़ाने की मुहिम में प्रशासन और सुरक्षा बल कितने खतरों का सामना करते हैं.)

बस्तर जिले का मुख्यालय- जगदलपुर टाउन, सुबह के 8.30 बजे

रात की अच्छी नींद और सुबह के भरपूर नाश्ते के बाद अब मुझे अपनी अगली मंजिल के लिए निकलना था. मैं जानना चाहता था कि कैसे बस्तर के कुछ इलाकों में लोग माओवादियों के बर्बर राज से खुद को मुक्त करने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने अपने कैब ड्राइवर उमाशंकर से कहा कि वो मुझे दंतेवाड़ा ले चले. जगदलपुर से निकलते ही उमाशंकर मुझे बताने लगा कि 4 साल पहले तक दंतेवाड़ा कितना खतरनाक हुआ करता था. लेकिन फिर तस्वीर बदलने लगी.

उसने आगे कहा, 'लेकिन अब दंतेवाड़ा शहर में नक्सलियों का कोई डर नहीं.' दंतेवाड़ा तक की सड़क बहुत शानदार बनी थी. ट्रैफिक ज्यादा नहीं था और इसीलिए सफर में मजा आ रहा था. सड़क के दोनों ओर घने जंगल थे और सड़क इतनी अच्छी बनी थी कि हमारी कार को 100 की स्पीड पर जाते देर नहीं लगी. सड़क के दोनों ओर जबरदस्त हरियाली थी, लेकिन दूर-दूर तक कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ रहा था. करीब 35 मिनट तक मुझे कोई मोबाइल नेटवर्क भी नहीं मिला. मैंने उमाशंकर से पूछा कि क्या वह पलनार गांव के बारे में जानता है. उसने सिर हिलाकर हामी भरी.

'पलनार गांव के अंदर जाने के लिए नक्सलियों की अनुमति चाहिए सर'

मैंने कहा, 'तो चलो, पलनार चलते हैं.' अब ड्राइवर उमाशंकर की प्रतिक्रिया देखने वाली थी. मेरी बात सुनते ही उसने कार में बज रहे पंजाबी पॉप गाने की आवाज धीमी कर दी और कार की स्पीड भी अचानक कम कर दी. और बोला, 'पलनार में देखने लायक कुछ नहीं है. बल्कि आपको इसके बजाय दंतेवाड़ा के मशहूर दंतेश्वरी माता मंदिर चलना चाहिए. मुख्यमंत्री रमन सिंह भी अपने चुनावी प्रचार की शुरुआत यहीं, देवी के दर्शन से करते हैं.' लेकिन जब उसे लगा कि वो मुझे अपने तर्कों से आश्वस्त नहीं कर पाया है, तो उसने अपने तरकश का आखिरी तीर छोड़ा, 'पलनार गांव के अंदर जाने के लिए नक्सलियों की अनुमति चाहिए सर.'

बड़े आत्मविश्वास के साथ मैंने भी झूठ बोला, 'मेरे पास अनुमति है, चिंता मत करो.' उमाशंकर दरअसल झूठ नहीं बोल रहा था. स्थानीय लोगों ने मुझे बताया भी था कि 5-6 साल पहले तक पलनार पर नक्सलियों का राज चलता था. गांव से कहीं आने-जाने के लिए लोगों को माओवादियों से इजाजत लेनी पड़ती थी. किसी की हिम्मत नहीं थी कि पलनार जाने की सोचे. यहां तक कि दंतेवाड़ा या जगदलपुर से भी कोई यहां नहीं आता था. कोई भी यहां आए-जाए, माओवादियों की नजरें उन पर रहती थी. जब भी सुरक्षाबलों ने माओवादियों के चंगुल से इस गांव को छुड़ाने की कोशिश की, उन्हें काफी प्रतिरोध झेलना पड़ा. सुरक्षाबलों पर नक्सलियों ने घात लगाकर खूब हमले भी किए क्योंकि वो पलनार और जगरगुंडा जैसे आदिवासी गांवों पर से अपना कब्जा खोना नहीं चाहते थे. (जगरगुंडा सुकमा जिले में था और उसी सड़क पर था, जिस पर हम फिलहाल सफर कर रहे थे. यह जिला माओवादियों का गढ़ माना जाता रहा है और बस्तर के इलाके में सबसे ज्यादा खतरनाक माना जाता है. यहां नक्सलियों का इतना आतंक है कि पिछले 7 साल में सुकमा में न कोई नया बैंक खुला है और न ही नया एटीएम)

पलनार गांव पहले नक्सलियों का गढ़ हुआ करता था

दंतेवाड़ा के लिए निकलने से एक दिन पहले एक सीनियर पुलिस अफसर ने मुझे बताया था कि '10 साल पहले माओवादियों का डर इतना था कि आप पलनार जाने की सोच भी नहीं सकते थे. यह इलाका एकदम अलग-थलग, कटा हुआ सा था. जैसे हिंदी फिल्म ‘न्यूटन’ में ऐसे ही किसी गांव को सुरक्षा बल ‘पाकिस्तान’ कह कर बुलाते हैं, पलनार भी कभी ऐसा ही था. लेकिन अब नहीं.'

इससे पहले पलनार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों पर कोई सुरक्षा नहीं थी. यह हिस्से माओवादियों के लिए बिल्कुल खुले थे और जगरगुंडा के नजदीक होने से यह इलाका माओवादी आतंक का पर्याय बन गया था. पलनार तक के लिए कोई सीमेंटेड (पक्की) सड़क नहीं थी.

खैर, 128 किलोमीटर का सफर तय कर हम आखिर पलनार पहुंच ही गए. हाईवे से एक सड़क अलग होकर मुड़ी और करीब 18 किलोमीटर जाने के बाद इस अनूठे गांव के सामने हम खड़े थे. आदिवासी गांव की असल तस्वीर यही थी. आदिम युग के गांव ऐसे ही होते होंगे शायद. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और बंगाल में ऐसे घर नहीं होते, जैसे यहां के थे. झोंपड़ियां एक-दूसरे से काफी दूरी पर थीं और उनके चारों ओर पेड़ों के झुरमुट दिख रहे थे. पतली सी एक सर्पिलाकार (सांप के आकार वाला) धूलभरी पगडंडी उन्हें आपस में जोड़ती थी. दोपहर के साढ़े 3 बजे थे लेकिन गांव सन्नाटे में डूबा था. देश की राजधानी से आए हुए एक पत्रकार के कानों के लिए तो यह सन्नाटे जैसा ही था. हमने सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर दी.

Palnar School Cluster At Palnar Village With Hostel Facility For Tribal Students From Palnar And Neighbouring Village, Photo Debobrat Ghose Firstpost

(फोटो: देवव्रत घोष)

सड़क के एक ओर एक सामुदायिक केंद्र था जिसमें छोटी-छोटी कई दुकानें बनीं थीं. इसमें एक कॉमन सर्विस सेंटर भी था, जो कंप्यूटर, वी-सैट, माइक्रो एटीएम और दूसरे तकनीकी साजो-सामान से लैस था. सड़क के दूसरी ओर गांव का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था और इसकी दीवारों पर सुंदर तरीके से ‘डिजिटल पेमेंट’ से जुड़े स्केच और स्लोगन बने थे.

पलनार में घुसने के लिए अब नहीं लेनी पड़ती माओवादियों की इजाजत 

स्वास्थ्य केंद्र के एक कोने में दीवार पर एक बहुत बड़ा एलईडी टीवी लगा हुआ था और गांव के ढेर सारे लड़के-लड़कियां नेशनल ज्यॉग्राफिक चैनल पर कोबरा सांपों को लेकर चल रही कोई डॉक्युमेंट्री बड़ी तन्मयता से देख रहे थे. मेरे लिए तो खैर यह दृश्य अकल्पनीय ही था, लेकिन मेरे ड्राइवर के लिए भी यह अविश्वसनीय था, जबकि वो बस्तर से ही था. वह तो कुछ घंटे पहले तक यही मानता आ रहा था कि पलनार में घुसने के लिए माओवादियों की इजाजत लेनी पड़ती है.

कॉमन सर्विस सेंटर पर एक बोर्ड लगा था, ‘डिजिटल गांव पलनार में आपका स्वागत है’, यह देखकर मैं हैरान रह गया. जाहिर है माओवादियों के आतंकी असर वाले एक कुख्यात गांव के बारे में मैं और जानना चाहता था कि पलनार का डिजिटलीकरण कैसे हुआ. कहीं यह सरकारी प्रचार का हथकंडे तो नहीं? मैं यहां खड़े होकर कैमरे से तस्वीरें ले ही रहा था कि लोग मेरे आसपास जुट आए. जाहिर सी बात है मैं बाहरी था और लोगों के लिए अजूबा भी. मैंने उन लोगों से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें हिंदी समझ नही आ रही थी, क्योंकि उनकी बोली तो गोंडी थी.

इतने में सेंटर से एक लड़की मेरी मदद के लिए भाग कर आ गई. यह जानकी कश्यप थी. उसे हिंदी तो आती ही थी, थोड़ी बहुत कामचलाऊ अंग्रेजी भी वो जानती थी. उसने वहां खड़े एक लड़के से कहा कि वो भाग कर गांव के सरपंच और कुछ वरिष्ठ लोगों को मुझसे मिलने के लिए बुला लाए. जानकी कश्यप ने बोलना शुरू किया- 'सर, इस कॉमन सर्विस सेंटर के जरिए हम गांव वालों के लिए ऑनलाइन ट्रान्जैक्शन करते हैं. डिजिटल पेमेंट करते हैं, और परीक्षा के नतीजे ऑनलाइन देख लेते हैं. नोटबंदी के समय हमारे कलेक्टर सर ने इस सेंटर को कैशलेस सेंटर बना दिया था.' इस सेंटर को मॉडल सेंटर बनाने के लिए, जानकी को कुछ समय पहले ही केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद से पुरस्कार भी मिला था.

खैर, तब तक गांव के कुछ वरिष्ठ लोगों के साथ नौजवान सरपंच सुकलू मुरामी भी वहां आ गए. मुरामी ने बातचीत में टीवी स्क्रीन की ओर इशारा करते हुए बताया, 'कलेक्टर साहब ने खरीदा हमारे गांव के लिए, उन्हें इस गांव के लिए प्रधानमंत्री से पुरस्कार मिला था न. तो इनाम में मिले पैसों से ही उन्होंने हमारे लिए यह बड़ा टीवी खरीद दिया.'

कलेक्टर ने पलनार को डिजिटल गांव में बदल डाला है 

नोटबंदी के बाद पलनार को कैशलेस की क्षमता दिलाने वाले दंतेवाड़ा के कलेक्टर सौरभ कुमार का यहां खूब नाम है. लोक प्रशासन में सबसे अच्छा काम करने के लिए 2017 में वो प्रधानमंत्री पुरस्कार से नवाजे गए हैं. सौरभ यहीं नहीं रुके. उन्होंने पलनार को एक डिजिटल गांव में बदल डाला और ऐसी सुविझाएं दे दीं जो किसी आधुनिक कस्बे में होती हैं.

स्वास्थ्य केंद्र की दीवार पर शायद हम जैसे बाहरी लोगों के लिए ही अंग्रेजी के बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- डिजिटल इकॉनमी. यानी यह बताने की कोशिश कि कुल 342 घरों और 1962 लोगों की आबादी वाला यह गांव, टू टियर वाले किसी भी शहर की तरह आधुनिक तकनीक से लैस है. यही चीज, बस्तर के इस गांव को भारत के दूसरे गांवों से काफी आगे कर देती है. आज पलनार में एक टेली-मेडिसिन सेंटर है, प्रतीक्षा की सुविधा वाला जच्चा-बच्चा केंद्र है, आदिवासियों के बच्चों के लिए कक्षाएं हैं, आधार कार्ड सेंटर है और प्राइमरी हेल्थ सेंटर भी.

इन सुविधाओं की वजह से दंतेवाड़ा जिले को खासे आंकड़े उपलब्ध हो रहे हैं. जैसे अब नवजात शिशुओं की मृत्यु दर काफी घट गई है. 2013 में यह 70 थी जो अब घटकर 44 रह गई है. अस्पतालों में बच्चों के जन्म में भी बढ़ोतरी हुई है. 2003 में यह 19 थी जो 2018 में बढ़कर 72 हो गई है. गांव के किसान उदयचंद का कहना है कि 'हम यहां पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं. पहले यहां कोई सड़क नहीं थी और इलाके में असामाजिक तत्वों (माओवादी आतंकी) का आतंक फैला था. लेकिन पिछले 5 साल में यहां सड़क बनने के अलावा कई दूसरी सुविधाएं भी हमें मिल गई हैं. अब हमारे यहां 10 बिस्तरों वाला अस्पताल भी है और ऐसा जच्चा-बच्चा केंद्र भी, जहां डिलीवरी की तारीख से कुछ दिन पहले आ कर गर्भवती महिला भर्ती हो सकती है.'

स्थानीय लोग माओवादियों को 'असामाजिक तत्व' कहकर संबोधित करते हैं

दरअसल यहां के लोग ‘माओवादी’ का इस्तेमाल करने से डरते हैं, हिचकते हैं. इसकी जगह वो उन्हें ‘असामाजिक तत्व’ कहकर बुलाते हैं. इसीलिए उदयचंद ने जब ‘असामाजिक तत्व’ शब्द का प्रयोग किया तो उनका मतलब माओवादियों से ही था.

Palnar Public Health Centre with 10 bedded hospital and Tele medicine Centre at Naxal free Palnar village in Dantewada PHOTO by Debobrata Ghose Firstpost (1)

(फोटो: देवव्रत घोष)

खैर, पलनर गांव के सरपंच हमें एक बड़े कैंपस में ले गए, जहां इमारतें बनीं हुई थीं और क्लास रूम बने थे. यह स्कूल और हॉस्टल थे, जो दूर-दराज से यहां पढ़ने आए बच्चों के लिए बनवाए गए थे. इनकी दीवारों पर स्लोगन लिखे थे- ‘जब आप एक लड़की को शिक्षित बनाते हैं, तब दरअसल आप एक देश को शिक्षित कर रहे होते हैं.’ सरपंच ने बड़े गर्व से हमें आगे बताया, 'यहां हर ब्लॉक पर आप अलग-अलग गांवों के नाम लिखे देखेंगे. हर ब्लॉक में जो स्कूल है, वो एक निश्चित गांव का है. माओवादियों ने इन गांवों में स्कूलों को जला दिया, इसलिए उन गांवों के बच्चे अब यहां हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करते हैं. जिला प्रशासन की ओर से यह एक अनूठा प्रयोग है. पलनार की जमीन पर कई और प्रोजेक्ट भी बस उतरने ही वाले हैं.'

सड़क किनारे बनी हुई दुकानों और पलनार के मुख्य बाजार में भी सिंगल फेज बिजली से चलने वाली चावल मिलें यहां-वहां लगी दिख जाती हैं. पूछने पर लोग बताते हैं कि यह सारी राइस मिलें, सेल्फ हेल्प ग्रुप से जुड़ी महिलाओं के द्वारा चलाई जा रही हैं. चावल मिल चलाने वाली एक महिला उद्यमी चंद्रावती ने बताया, 'यह सेल्फ हेल्प ग्रुप वैसे तो बहुत पहले से ही बने हुए हैं, लेकिन अब सरकार की सब्सिडी वाली स्कीम के चलते महिलाओं ने चावल मिलें खरीद लीं. और अब इन आदिवासी महिलाओं का जीवनयापन बहुत अच्छी तरह हो रहा है. इन राइस मिलों में एक बार में 150 किलो धान से चावल निकलता है.' चावल मिल चलाने के साथ-साथ चंद्रावती एक किराने की दुकान भी चलाती हैं.

पलनार से दंतेवाड़ा लौटते समय हम अवापल्ली जैसे कई ऐसे गांवों से भी गुजरे, जहां 4 बरस पहले तक माओवादियों का डंका बोला करता था. इन गांवों में जाने के लिए किसी बाहर वाले को माओवादियों से इजाजत लेनी पड़ती थी. लेकिन आज इनमें से ज्यादातर गांव आजाद हैं और यहां स्कूल, बैंक, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, मोबाइल टावर और पोस्ट ऑफिस जैसी सुविधाएं भी हैं.

दंतेवाड़ा जिले के घने जंगल वाले इलाके में माओवादियों का असर अब भी बरकरार

हालांकि पलनार और इसके कुछ पड़ोसी गांव माओवादी आतंक के चंगुल से छूट चुके हैं, लेकिन दंतेवाड़ा के सभी गांव इतने खुशनसीब नहीं हैं. प्रशासन बेशक यह कहता रहे कि माओवादियों को पीछे धकेल दिया गया है, जमीनी हकीकत कुछ और है. दंतेवाड़ा जिले के घने जंगल वाले जो इलाके हैं, उनमें माओवादियो का असर अब भी बना हुआ है. वो इतने ताकतवर हैं कि जब चाहें तब, दिन के उजाले में भी, कहीं भी आईईडी ब्लास्ट कर सकते हैं. जैसे उन्होंने पिछली 20 मई को तब किया था, जब किरंदुल-चोलनार सड़क पर, चोलनार गांव के पास एक आईईडी ब्लास्ट में पुलिस वाहन में सवार 7 पुलिसकर्मी मारे गए थे.

इसके अलावा नक्सलियों का गढ़ माने जाने वाले सुकमा में आतंक का राज अब भी बरकरार है. यह जानने-समझने के लिए कि विकास कैसे आतंक से लड़ पा रहा है, मेरी यह यात्रा जारी है. मेरा अगला पड़ाव होगा जीडम गांव जहां 'लाल आतंक' ने पुलिसवालों को भी नहीं बख्शा.

हमारी कार एक बार फिर 100 की स्पीड से चल रही है और पंजाबी पॉप भी पहले की तरह ऊंची आवाज में बज रहा है.

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