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‘अ’स्वस्थ तंत्र पार्ट 4: शिशुओं की चीख बनाम कागजी तंत्र

आखिर शिशुओं की चीख-पुकार को दूर करने के लिए आ रही धनराशि रास्ते में ही कहां गुम हो जा रही है?

Ashutosh Kumar Singh

(नोट: यह लेख पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से मरते मासूम बच्चों की मौतों पर सीरीज की चौथी किस्त है. इस सीरीज में इंसेफेलाइटिस के अलावा हमारी बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था की तहकीकात कर रहे हैं अाशुतोष कुमार सिंह)

भारत की सरकार अपने देशवासियों को स्वस्थ रखने के लिए औसतन 40 हजार करोड़ रुपए प्रति वर्ष खर्च करती है. स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए बड़ी-बड़ी बातें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों से की जाती है. लेकिन वास्तव में देखा जाए तो बुखार, एनीमिया, रक्तचाप, मधुमेह जैसी बीमारियों से लाखों लोग मर रहे हैं. बीमारियों की संख्या कम होने की जगह बढ़ती ही जा रही है. जो है उसे तो हम रोक ही नहीं पा रहे हैं, जो नहीं हैं वो भी मुंह बाए चली आ रही हैं.


इसी संदर्भ में पिछले तीन आलेखों में इंसेफेलाइटिस पर हम चर्चा करते आए हैं. इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आज हम गोरखपुर और आस-पास के जिलों के उन गांवों की स्थिति का जायजा ले रहे हैं, जहां पर इंसेफेलाइटिस ने सबसे ज्यादा अपना कहर बरपाया है. एक्शन फॉर पीस प्रोसपेरिटी एंड लिपर्टी (एपीपीएल) ने इंसेफेलाइटिस की मौजूदा स्थिति पर 2014 में एक सर्वे किया था. उस सर्वे में जो बात सामने आई उससे सरकार के कामों की पोल खुल रही है.

2014 में कराए गए इस सर्वे में यह बात सामने आई कि यूपी में 2006 के मुकाबले 2014 में जेई के मामलों में 0.7 फीसदी की कमी आई है. एक सरकारी शोध का हवाला देते हुए बताया गया है कि यूपी के 39 जिलों में विगत 30 वर्षों में हजारों बच्चों ने अपनी जान गंवाई है.

सरकार की पोल खोलता सर्वे

इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने राज्य के सबसे खराब हालात वाले 7 जिलों के 100 प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को इंसेफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर (ईटीसी) के रूप में विकसित किया, इन केंद्रों के चिकित्सकों को बीमारी के लक्षणों के बारे में प्रशिक्षित किया गया. साथ ही 108 और 102 एंबुलेंस सेवा को भी इन केंद्रों से जोड़ा गया ताकि स्थिति को काबू किया जा सके. सरकार द्वारा किए गए इन प्रयासों से कितना लाभ हुआ यह जानने के लिए यह जरूरी था कि कोई स्वतंत्र रूप से सर्वे करे और यह बताए कि सरकारी योजनाओं का कितना फायदा हुआ है.

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इस संदर्भ में शोध के दौरान एक्शन फॉर पीस प्रोसपेरिटी एंड लिपर्टी (एपीपीएल) द्वारा इस विषय पर किए गए गहन कार्य की जानकारी मिली. गोरखपुर परिक्षेत्र में इस स्वयंसेवी संस्था ने अच्छा काम किया है. संस्था का कामों से जुड़े नरेंद्र मिश्र ने बताया कि उनकी टीम ने इंसेफेलाइटिस के कारणों का पता लगाने के लिए एक गोरखपुर जिले में इंसेफेलाइटिस से प्रभावित परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को जानने और सरकार द्वारा उनकी मिली मदद की जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से एक सर्वे किया है.

फ़र्स्टपोस्ट को अपना सर्वे रिपोर्ट साझा करते हुए नरेंद्र मिश्र ने कहा कि आंकड़ों में बीमारी जितनी भयावह दिख रही है उससे कई गुणा ज्यादा भयावह स्थिति हकीकत में है. यह सर्वे गोरखपुर, महाराजगंज और कुशीनगर जिले के 14 प्रखंडों के 126 जेई प्रभावित परिवारों के बीच किया गया. नीचे दिए गए चित्र-1 के अनुसार कुशीनगर के 18.25 फीसदी, महाराजगंज से 21.43 फीसदी और गोरखपुर से 60.32 फीसदी सैंपल लिया गया.

चित्र 1: सैंपल वर्गीकरण (प्रतिशत में)

अभी तक के आंकड़ों में गोरखपुर जेई से सबसे ज्यादा प्रभावित जिला है. इसलिए इस जिले के 8 प्रखंडों के 76 परिवारों का सैंपल लिया गया. जबकि 27 महाराजगंज और 23 कुशीनगर से सैंपल लिए गए.

आमदनी बनाम बीमारी

इस सर्वे में पाया गया है कि इस क्षेत्र में परिवार का औसत आकार 7 से 8 लोगों का है. जिसमें दो पुरूष, दो महिला और 3 बच्चे हैं. यह औसत पूर्वांचल के परिवारों के औसत आकार के बहुत नजदीक है. इनकी आमदनी की बात की जाए तो इसमें से ज्यादातर प्रभावित परिवार या तो श्रमिक (42 फीसदी) या किसानी (31 फीसदी) से जुड़ा है. कुछ लोग व्यवसाय (9 फीसदी), नौकरी (5 फीसदी), किसानी के साथ जुड़ा काम (8 फीसदी) और अन्य 5 फीसदी हैं.

यहां पर आमदनी और बीमारी का प्रत्यक्ष संबंध तो नहीं दिखता लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उनका रहन-सहन मानक से कमतर है और ऐसे में यह कहा जा सकता है कि इनकी गरीबी इस बीमारी को समय पर नहीं रोक पाने में एक बाधा है.

चित्र-2 में आय के साधनों को देखा जा सकता है.

रहन-सहन का तरीका तय करता है बहुत कुछ

मच्छरों के काटने से यह रोग होता है, यह सर्वविदित तथ्य है. ऐसे में इनसे बचने के लिए क्या किया जाता है यह भी जानना जरूरी है. प्रभावित क्षेत्र के लोगों कहां सोते हैं और कैसे सोते हैं, इसका अध्ययन भी जरूरी है. इस बावत सर्वे में यह पाया गया कि 53 फीसद परिवारों के पास सोने के लिए सुरक्षित कमरे नहीं थे. 32 फीसद से ज्यादा लोग अपने घरों के बरामदे में सोते हैं जबकि 10 फीसद लोग खुले आकाश और असुरक्षित जगह पर सोने के लिए मजबूर हैं.

हालांकि गांवों के लिए यह एक सामान्य स्थिति है लेकिन जब इंसेफेलाइटिस के रिस्क फैक्टर के नजरिए से देखा जाए तो यह मामला आत्मघाती है.

जेई और एइएस के बढ़ने-बढाने में पानी की गुणवत्ता की अहम भूमिका है. कैसा पानी हम पी रहे हैं. साथ ही हमारे घर के पास गंदा पानी जमा तो नहीं है. इन तमाम सवालों का उत्तर इन परिवारों में ढूंढने पर पता चला कि गंवई क्षेत्रों में गंदा पानी अथवा नाले का पानी का बहाव खुले में होता है. इसके लिए कोई व्यवस्थित व्यवस्था नहीं है जिससे इसे ट्रीट किया जाए.

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सर्वे में पता चला कि 56 फीसदी परिवार गंदे नाले के आस-पास ही रहते हैं, जो सुअरों के घुमने के लिए उपयुक्त जगह है. मच्छर पनपने का उपयुक्त जगह पानी का जमाव है. ऐसे में 21 फीसदी परिवारों का कहना था कि उनके घर के आगे जल-भराव की स्थिति है. वहीं 17 फीसदी परिवारो का मानना था कि प्रयोग किए हुए घरेलू पानी का जमाव उनके घर के आस-पास ही है. सिर्फ 6 फीसदी परिवारों के पास ही व्यवस्थित ड्रेनेज सिस्टम पाया गया. अर्थात तकरीबन 94 फीसदी परिवार ऐसी जगहों पर रह रहे हैं जो इस बीमारी के लिहाज से उपयुक्त जगह नहीं है.

चित्र-3 में इसे और आसानी से समझा जा सकता है.

यहां पर दूषित जल का संचयन ही एक समस्या नहीं है बल्कि स्वच्छ पेय जल की उपलब्धता भी एक बड़ी समस्या है. 70 फीसदी परिवारों के पास अपने घर परिषर में पानी का साधन है लेकिन 7 फीसदी के पास अपना पानी का अपना साधन नहीं. 90 फीसदी परिवार सामान्य हैंडपंप का पानी पीते हैं. इस बात से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि सरकार द्वारा इंस्टॉल किए गए इंडिया मार्का हैंडपंप तक इनकी पहुंच नहीं बन पाई है.

जागरूकता न के बराबर

इस बीमारी को लेकर जागरूकता की बात की जाए तो वह भी ढाक के तीन पात के बराबर ही है. सर्वे में पाया गया कि बहुसंख्यक गंवई आबादी को यह नहीं पता है कि जापानी इंसेफेलाइटिस कैसे फैलता है. 126 परिवारों में 28 फीसदी परिवारों ने ही सही जवाब दिया कि मच्छर काटने से जेई फैलता है. 6 फीसदी को यह पता था कि गंदा पानी के कारण यह बीमारी होती है. एक चौथाई परिवारों को बिल्कुल भी पता नहीं था कि यह बीमारी कैसे होती है. जबकि 50 फीसदी लोगों को यह नहीं पता था कि जेई के लिए वास्तविक रूप से कौन जिम्मेवार है.

ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि जेई/एइएस को रोकने और नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा किए गए कार्यों का आउटपुट दिख क्यों नहीं रहा है! कहीं ऐसा तो नहीं है कि बजट खर्च भी हो गया और जिसे लाभ मिलना चाहिए उस तक पहुंचा ही नहीं.

ऐसा लगता है कि कागजों पर बनी योजनाएं, अभी कागजों की ही शोभा बढ़ा रही हैं. आखिर शिशुओं की चीख-पुकार को दूर करने के लिए आ रही धन राशि रास्ते में ही कहां गुम हो जा रही है. कहीं कागजी-बाबू इन्हें डकार तो नहीं रहे हैं!

(लेखक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं. हाल ही में स्वस्थ भारत अभियान के तहत 'स्वस्थ बालिका-स्वस्थ समाज' का संदेश देने के लिए 21000 किमी की भारत यात्रा कर लौटे हैं. )