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अ'स्वस्थ' तंत्र पार्ट 3 : इंसेफेलाइटिस के आंकड़ों पर झूठ तो नहीं बोल रहीं सरकारें?

शोध करवाने की जरूरत है कि जापानी इंसेफलाइटिस को ही एक्यूट इंसेफलाइटिस तो नहीं कहा जा रहा

Updated On: Sep 14, 2017 08:32 AM IST

Ashutosh Kumar Singh

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अ'स्वस्थ' तंत्र पार्ट 3 : इंसेफेलाइटिस के आंकड़ों पर झूठ तो नहीं बोल रहीं सरकारें?

(नोट: यह लेख पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से मरते मासूम बच्चों की मौतों पर सीरीज की तीसरी किस्त है. इस सीरीज में इंसेफेलाइटिस के अलावा हमारी बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था की तहकीकात कर रहे हैं आशुतोष कुमार सिंह)

भारत जैसे विकासशील देश में बीमारियों का सही इलाज नहीं होने का मुख्य वजह यहां की मनमौजी नौकरशाही और असंवेदनशील सरकारे हैं. इनकी कानों तक किसी की चीख-पुकार नहीं सुनाई देती है. यह बात उत्तर-प्रदेश में फैले जापानी इंसेफलाइटिस और एक्यूट इंसेफलाइटिस (जेइ/एइएस) के मामले में साफ-साफ दिख रही है.

इस रोग से बचाव के लिए जब बाल अधिकारों की रक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने सरकार को लताड़ लगाई, तब जाकर व्यवस्था में सुगबुगाहट शुरू हुई.

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यूपी में फैले जापानी इंसेफलाइटिस और एक्यूट इंसेफलाइटिस (जेइ/एइएस) को लेकर बहुत ही संजीदा रहा है. इस दिशा में किए गए अपने कार्यों को एनसीपीआर ने अपनी रिपोर्ट (स्ट्रेंथनिंग हेल्थ इंस्टिट्यूशन फॉर चाइल हेल्थः एनसीपीसीआर इंटरवेंसंस अगस्त-2012-अक्टूबर 2013,पार्ट -2 स्ट्रेंथनिंग ऑफ पब्लिक हेल्थ सर्विसेज इन गोरखपुर रिजिन फॉर चिल्ड्रेन विद जेई/एइएस) में प्रमुखता से उल्लेखित किया है.

अपने ऑबजरवेशन में आयोग ने पाया कि यूपी में जापानी इंसेफलाइटिस होने के पीछे कई वायरस, बैक्टीरिया, फंगस, पैरासाइट्स भी हैं हालांकि मुख्य वजह मच्छरों का बढ़ना ही है. इस रिपोर्ट में बीमारी फैलने की वजहों को गिनाते हुए आयोग का कहना है कि बीमारी को सही तरीके से एड्रेस करने व हैंडल में राज्य की व्यवस्था लचर साबित हुई है, खराब राजकीय स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ-साथ स्थानीय स्वास्थ्य व्यवस्था भी बहुत दयनीय रही है.

इस बीमारी को डायग्नोस करने में स्थानीय व्यवस्था ने बहुत समय लिया है, रेफरल की सही व्यवस्था नहीं है, गोरखपुर मेडिकल कॉलेज पर इस बीमारी का बहुत ही भार है. लोगों के बीच में इस बीमारी को लेकर जागरूकता का अभाव है, पीने का पानी सेहत के मानको को पूरा नहीं करता. साथ ही इस बीमारी से ग्रसित ऐसे बच्चे जो विकलांग हो चुके हैं, उनकी लिए पुनर्वास की व्यवस्था नहीं है.

यही कारण है कि आयोग ने इस बीमारी की भयावहता को देखते हुए इस बात पर बल दिया कि इस बीमारी से जुड़े सभी मंत्रालयों और विभागों (स्वास्थ्य, पेय जल और स्वच्छता, महिला और बाल विकास, सामाजिक न्याय, पशुपालन और शिक्षा) में आपसी सामंजस्य बिठाते हुए एक विस्तृत योजना के तहत इसके निराकरण के लिए आगे बढ़ना होगा.

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इस बावत आयोग राज्य सरकार, गोरखपुर परिक्षेत्र और जिला से संबंधित अधिकारियों के साथ लगातार दो साल तक बातचीत करता रहा ताकि इस बीमारी को लेकर बचाव किया जा सके और जो भी गैप है उसे भरा जा सके. हालांकि इस मामले सार्थक एक्शन लेने में में राज्य सरकार विफल थी. ऐसे में आयोग ने 3 अक्टूबर, 2012 को राज्य सरकार को सम्मन देकर बुलाया और उसकी स्थिति जाननी चाही और गोरखपुर में 11-12 सितंबर, 2013 को जन सुनवाई की.

आयोग ने अपनी रपट में यह भी लिखा है कि उसके द्वारा किए गए लगातार प्रयासों से गोरखपुर में परिक्षेत्र में टीकाकरण की दर 78.4 से बढ़कर 97.8 फीसद हुई, साथ ही इंडिया मार्क-2 हैंडपंप्स भी 78 फीसद तक इंस्टॉल किए गए.

यह जानकारी आयोग को डिविजन अधिकारी (एनआरएचएम) ने 10 सितंबर, 2013 को अपनी प्रस्तुति में दी थी. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि उपरोक्त दो बातों को छोड़कर राज्य सरकार किसी भी प्रिवेंशन को लागू करने में असफल रही. आयोग ने पाया कि इस बीमारी का असर देश के 17 राज्यों के 171 जिलों में है जिसमें अकेले 70-75 फीसद भार उत्तर प्रदेश पर है.

गौरतलब है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने अपने वरिष्ठ सदस्य डॉ. योगेश दुबे की अगुवाई में एक टीम गोरखपुर भेजी थी. 11 नवंबर 2011 को लखनऊ से यह टीम गोरखपुर परिक्षेत्र का दौरा करने गई थी. उस समय उन्होंने डायरेक्टर जनरल ऑफ हेल्थ से भी इस विषय पर बातचीत की थी. आयोग की टीम ने बीआरडी के अलावा जिला अस्पताल गोरखपुर, जिला अस्पताल पडरौना, कुशीनगर, जिला अस्पताल देवरिया का दौरा 5-8 दिसंबर 2011 में किया था ताकि इस रोग के कारणों और इसकी भयावहता की जानकारी हासिल कर सके.

इतना ही नहीं डॉ. योगेश दुबे ने 23-24 जुलाई 2012 को बीआरडी मेडिकल कॉलेज का पुनः दौरा किया और स्थानीय गैर सरकारी संस्थाओं की मदद से इस बीमारी से जुझ रहे परिवारों से मुलाकात की. और यह जानने का प्रयास किया कि उनके द्वारा दिए गए सुझाओं को सरकार ने कितना अमली जामा पहनाया है. इसी संदर्भ में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे के निदेशक डॉ. एसी मिश्रा को आयोग की ओर से डॉ. वंदना प्रसाद ने एक पत्र लिखकर जानना चाहा कि इस बीमारी को लेकर उनकी क्या राय है. वहां से इसका जवाब आया. इसके बाद आयोग ने पाया कि आयोग द्वारा पूछे गए सवाल के आलोक में सरकार ने संतोषजनक कार्य नहीं किया है.

विशेष तौर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों को मजबूत करने की उनकी अनुसंशा को टोकरी में डाल दिया गया है. इसके बाद आयोग ने संबंधित अधिकारियों को 3 अक्टूबर 2013 को सम्मन किया. जिसमें प्रिसिंपल सेकरेट्री (हेल्थ), उत्तर प्रदेश सरकार, प्रिंसिपल सेकेरेट्ररी (मेडिकल हेल्थ), डीजी (हेल्थ सर्विसेज, यूपी और डायरेक्टर (इपीडेमिक))और उन सभी संबंधित अधिकारियों को बुलाया गया जिन्हें 3 अक्टूबर 2012 की सुनवाई में बुलाया गया था.

ये भी पढ़ें: अ'स्वस्थ तंत्र: इंसेफेलाइटिस नहीं, अव्यवस्था से मर रहे हैं नौनिहाल 3 अक्टूबर 2012 को एनसीपीसीआर दफ्तर, नई दिल्ली में हुई सुनवाई में राज्य सरकार का पक्ष रखते हुए डिविजनल कमिश्नर ने कहा कि जापानी इंसेफलाइटिस का मामला गोरखपुर में नियंत्रित है, हालांकि इस वक्त जो केस आ रहे हैं वो एक्यूट इंसेफलाइटिस यानी एइएस का है. इस संबंध में विस्तृत जानकारी ( फा.सं. 35/01/2012‐ एनसीपीसीआर (पीडी) वॉल्यूम II) देखी जा सकती है. वहीं आयोग की ओर से वंदना प्रसाद ने राज्य सरकार की लचर व्यवस्था की ओर सबका ध्यान खींचा.

उन्होंने कहा कि ढाचागत विकास, मानव संसाधन, इक्यूपमेंट्स का सदुपयोग, रखरखाव आदि पर बहुत ध्यान देने की जरूरत है. इसमें डब्ल्यूएचओ और यूनीसेफ के एक्सपर्ट से इनपुट लेने की बात पर जोर देते हुए उन्होंने कहा था कि रिपोर्टिंग सिस्टम को फूलप्रूफ बनाए जाने की जरूरत है. वहीं योगेश दुबे ने अपने विजिट के दौरान देखे-सुने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि कुपोषण और जल अस्वच्छता को खत्म करने की जरूरत है.

गोरखपुर में बीते पांच दिन में इनसेफेलाइटिस (दिमागी बुखार) से 63 बच्चों की मौत हो चुकी है

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सिफारिशें

22 नवंबर को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार को जेई/एइस को नियंत्रित करने के लिए कुछ गाइडलाइन दिया था. उन्हें बिंदुवार देखते हैं-

1-जेई/एइएस के कारण विकलांग हो रहे बच्चों को लेकर आयोग बहुत चिंतित है. अभी तक इस तरह के 6500 मामले सामने आए है. सरकार इन सभी को विकलांग प्रमाण-पत्र दें साथ ही इनके रहने और इनकी शिक्षा की व्यवस्था भी करे. सरकार ऐसी व्यवस्था विकसित करे जिससे विकलांगता के लक्षण को पहले पहचान की जा सके और उसे रोकने के लिए जरूरी उपाय किया जाए. साथ ही इस रोग से विकलांग हुए बच्चों को निश्चित रूप से कंपंशेसन दिया जाए.

2- आयोग ने यह पाया है कि जापानी इंसेफलाइटिस को रोकने वाला टीकाकरण शत प्रतिशत नहीं हो सका है. 2009 में 15 वर्ष तक के ही बच्चों का टीकाकरण किया गया वह भी कैंप मोड में. यदि इसे प्राप्त करने में कोई समस्या है तो उसे आयोग को बताया जाए.

3-जेइ/एइएस के मामले को जल्द डायग्नोस करने के लिए व्यवस्था व्यवस्थित किया जाए.

4- स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता के लिए नियोजन करने की जरूरत है. इसके लिए यूनीसेफ और डब्ल्यूएचओ से सुझाव लिए जाएं.

5-जल सुरक्षा को लेकर राज्य सरकार काम करे.

6- सुअर-घर को प्रशासन ने दूसरे स्थान पर स्थापित किया है. सरकार उनके पुनर्वास से जुड़ी रिपोर्ट आयोग को दे और साथ ही यह भी सुनिश्चित करे कि सुअर व्यपार करने वालों के यहां टिकाकरण 100 फीसद हो. ताकि जापानी इंसेफलाइटिस से बचा जा सके.

7- सरकार इस बात का विशेष ध्यान रखे कि किसी भी परिवार को तब तक नहीं हटाया जायेगा जब तक उनके पुनर्वास और उचित मुआवजा न मिल जाए.

8- आयोग ने पाया है कि ट्रैंड मानव संसाधन की जरूरत बीआरडी मेडिकल कॉलेज में है, अतः प्रशिक्षण का कम 2012 तक पूरा किया जाए. और इसी रिपोर्ट आयोग को दी जाए.

9- शिशु रोग विशेषज्ञों का अभाव है, इस क्षेत्र में. अतः राज्य सरकार सामुदायिक हेल्थ में तीन वर्ष का बीएससी पाठ्यक्रम चालू करे और पास हुए छात्रों को प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर नियुक्त करे. इसे हाल ही में एमसीआई ने स्वीकार भी किया है.

10- राज्य सरकार वित्तीय मामलों में केन्द्र द्वारा रिजेक्ट किए प्रोपजलों के कारणों को भी आयोग से साझा करें.

आयोग की अनुशंसाओं के आलोक में सरकार ने बाद में अपना जवाब भी दिया लेकिन उससे आयोग पूरी तरह सहमत नहीं था. और उसका फल गोरखपुर के क्षेत्र में लगातार हम देख ही रहे हैं. ऐसे में सवाल यह भी है कि आखिर कब ये सरकारें आम लोगों के लिए संवेदनशील होंगी.

जेई बनाम एइएस, कहीं सरकार झूठ तो नहीं बोल रही है!

इंसेफलाइटिस के कारणों और इसके बढ़ते क्षेत्र पर शोध करने के दौरान कई ऐसे लोग मिले जिनका मानना है कि सरकार ने जेई के मामलों को छुपाने के लिए और अपनी असफलता पर पर्दा डालने के लिए ही एक्यूट इंसेफलाइटिस शब्द को गढ़ा है. ताकि जेई के पर सरकार के काबू पाने की अफवाह फैलाइ जा सके. इस बात की चर्चा सरकार की ओर से आए कमिश्नर ने भी आयोग से की है, जिसमें वे कहते हुए पाए गए कि जेइ पर सरकार ने काबू पा लिया है अब ज्यादातर मामले एइएस के आ रहे हैं.

अगर जेइ और एइएस एक ही हैं इनके सिम्टम्स एक ही हैं और सरकार ऐसा कर रही है तो इस विषय पर भी एक गहन शोध कराए जाने की जररूर है कि सरकार सच में सच कह रही है या वो जनता को गुमराह कर रही है. सही बात जांच के बाद ही पता चलेगा.

(लेखक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं. हाल ही में स्वस्थ भारत अभियान के तहत 'स्वस्थ बालिका-स्वस्थ समाज' का संदेश देने के लिए 21000 किमी की भारत यात्रा कर लौटे हैं. )

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