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नीति आयोग को नई पहचान देने में नाकाम रहे पनगढ़िया

योजना आयोग नौकरशाही के चक्करों में उलझकर रह गया था और इससे नई सोच पैदा होना बंद हो गई थी

Dinesh Unnikrishnan

नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का इस्तीफा ऐसे वक्त पर आया है जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार देश के आर्थिक कायापटल की योजनाओं को लागू करने के मध्य में है.

निश्चित तौर पर इस वक्त सरकार के एक बेहद अहम जानकार शख्स का इस तरह से जाना ठीक नहीं माना जा सकता, जब तक कि इसके पीछे कोई बड़ी वजह न हो. और यह भी साफ नहीं है कि आखिर किस वजह से पनगढ़िया ने इस्तीफा देने का फैसला किया. उनके जाने की वजह यह आई कि वह अध्यापन के अपने पसंदीदा काम में लौटना चाहते हैं.


खुद पीएम मोदी ने सौंपी थी नीति आयोग की कमान

हालांकि, यह थोड़ी सी चौंकाने वाली बात जरूर है. वजह यह है कि खुद प्रधानमंत्री ने उन्हें जनवरी 2015 में नए थिंक टैंक नीति आयोग की कमान सौंपी थी और काम अभी शुरू ही हुआ था.

पनगढ़िया को सरकार की नीतियां तैयार करने की मशीनरी में सबसे अहम माने जाने वाले पदों में से एक दिया गया था और भारतीय-अमेरिकी इकनॉमिस्ट को पता था कि उनके ऊपर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है.

सरकार की सकारात्मक आलोचना में नाकाम

इसके अलावा नीति आयोग में अपने ढाई साल के कामकाज के दौरान पनगढ़िया और सरकार के बीच ज्यादातर नीतिगत-आर्थिक मसलों पर सहमति दिखाई दी. इनमें विवादित नोटबंदी का फैसला भी है. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नीति आयोग ने अक्सर कई नीतिगत पहलों पर सरकार का समर्थन किया और उसका बचाव किया.

इस मामले में वह चीजों को दुरुस्त करने वाली और सरकार को सही राय देने वाली इकाई की भूमिका से डिग गई जिसके लिए मूल रूप में इसका गठन किया गया था. ऐसे में बेहद अहम वक्त पर और दोस्ताना बॉस के साथ काम करने के बावजूद उनका इस्तीफा काफी चौंकाता है.

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उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाया आयोग

गुजरे ढाई साल नीति आयोग के लिए निराशाजनक रहे हैं. संस्थान बड़े तौर पर शुरुआती उम्मीदों को पूरा करने में नाकाम रहा है. साथ ही यह एक ऐसी संस्था के तौर पर भी नहीं उभर सका है जो कि सरकार की सकारात्मक आलोचना कर सके और गलत नीतिगत फैसलों पर सरकार को सही रास्ता दिखा सके.

पनगढ़िया को 5 जनवरी 2015 को नीति आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया. नेहरू युग के नीतियां बनाने के अंतिम प्रमाण योजना आयोग को थका-हारा बताकर उसे खत्म कर एक नई संस्था नीति आयोग को इस आधार पर तैयार किया गया कि यह मोदी सरकार को एक नई सोच देगी. यह माना गया कि नीति आयोग पुरानी घिसीपिटी नीतिगत प्रक्रियाओं को खत्म करेगा और नए आइडिया लाएगा.

सरकार का पिछलग्गू बनकर रह गया नीति आयोग

कृषि सेक्टर में नीतियों को नए सिरे से निर्धारित करने, शिक्षा, सोशल सेक्टर पर खर्च और डिजिटल इकनॉमी के क्षेत्र में नीति आयोग ने अच्छा काम किया है. लेकिन, यह खुद को एक स्वतंत्र आवाज के तौर पर पहचान दिलाने में नाकाम रहा है. ऑब्जेक्टिव रूप से प्रस्तावों का विश्लेषण करने और सकारात्मक सुझाव देने की बजाय यह सरकार के आइडियाज का फॉलोअर बनकर रह गया.

ताकत, अधिकार और क्षमता की कमी

अपने ढांचे के तौर पर नीति आयोग अपनी पूर्ववर्ती संस्था योजना आयोग के मुकाबले कमजोर रहा. नीति आयोग के पास फंड आवंटित करने की ताकत नहीं रही, बल्कि यह सिर्फ सरकार को सिफारिश कर सकता है. फंडिंग का पूरा दायरा वित्त मंत्रालय के पास पहुंच गया. दूसरी ओर, योजना आयोग खुद भी फंड्स का आवंटन कर सकता था. इसके अलावा नीति आयोग राज्य सरकारों के लिए नीतियां तय नहीं कर सकता, जबकि योजना आयोग के पास ऐसा करने की मजबूत ताकत थी.

कुल मिलाकर योजना आयोग एक ऐसी संस्था थी जिसका स्वतंत्र दर्जा था और अपनी पहचान थी, जबकि नीति आयोग एक शक्तिहीन संस्था है. पनगढ़िया नीति आयोग को एक नई और शक्तिशाली संस्था बनाने में नाकाम रहे. वह और नीति आयोग सरकार की हां में हां मिलाते रहे.

नीति आयोग अब ढाई साल पुराना संस्थान है, और इसके कार्यक्षेत्र और प्रासंगिकता को लेकर गंभीर सवाल पैदा हो रहे हैं. राज्य सरकारों की विकास योजनाओं को लेकर नीति आयोग के अधिकार और इसकी क्षमता संदेह के घेरे में है, खासतौर पर तब जबकि राज्यों के पास अपने वित्तीय खर्च को लेकर अब ज्यादा अधिकार हैं, जबकि आयोग के पास अधिकारों का अभाव है.

कट्स इंटरनेशनल के महासचिव प्रदीप एस मेहता ने लाइवमिंट में लिखा है, ‘नीति आयोग के पास अभी तक सरकार के पेश किए जाने वाले दावों पर उसे चेताने का चेक्स एंड बैलेंस मेकेनिज्म नहीं है. साथ ही इसके पास जमीनी हकीकत के हिसाब से नीतियां निर्धारित करने की भी क्षमता नहीं है.’

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(फोटो. विकीकॉमन्स)

स्वदेशी जागरण मंच की नाराजगी बनी वजह?

दूसरी ओर, आरएसएस का सहयोगी संगठन स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) भी नीति आयोग के प्रदर्शन से ज्यादा खुश नहीं है. इस साल की शुरुआत में नीति आयोग के दो साल पूरे होने पर हुई राउंडटेबल कॉन्फ्रेंस में यह कहा गया कि आयोग देश की आर्थिक योजनाओं को और ज्यादा स्वदेशी बनाने की उम्मीदों को पूरा करने में नाकाम रहा है.

क्या इस आकलन ने मोदी सरकार और नीति आयोग के बीच संबंधों में कड़वाहट पैदा की, जिसकी वजह से पनगढ़िया ने इस्तीफा दिया? इस बारे में आगे चलकर हो सकता है तस्वीर कुछ और साफ हो.

एक वक्त पर 2016 के मध्य में रघुराम राजन के पद छोड़ने पर आरबीआई गवर्नर के तौर पर पनगढ़िया को मजबूत दावेदार माना जा रहा था. आरबीआई गवर्नर बनने के लिए उनका सीवी काफी मजबूत था. गुजरे वक्त में पनगढ़िया एशियाई विकास बैंक के चीफ इकनॉमिस्ट के तौर पर काम कर चुके हैं.

इसके अलावा वह वर्ल्ड बैंक, इंटरनेशल मॉनेटरी फंड (आईएमएफ) और अंकटाड में भी अलग-अलग पदों पर काम कर चुके हैं. उनके पास इकनॉमिक्स में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की पीएचडी डिग्री है. मार्च 2012 में भारत सरकार ने पनगढ़िया को पद्मभूषण से नवाजा था. लेकिन, बाद में सरकार ने उर्जित पटेल को आरबीआई का गवर्नर बना दिया.

उर्जित पटेल

दूसरा योजना आयोग न बन जाए नीति आयोग

पनगढ़िया की विदाई की तैयारियां शुरू हो गई हैं, लेकिन उनके ट्रैक रिकॉर्ड से ज्यादा लोग प्रभावित नहीं हैं. नीति आयोग को तब खड़ा किया गया जबकि उससे पूर्ववर्ती योजना आयोग एक ढुलमुल संस्थान बनकर रह गया था.

लाइवमिंट के आर्टिकल के मुताबिक, योजना आयोग नौकरशाही के चक्करों में उलझकर रह गया था और इससे नई सोच पैदा होना बंद हो गई थी. योजना आयोग जमीनी हकीकत से दूर हो गया था. नीति आयोग नए वादों के साथ आया था. लेकिन, यह भी सरकार के लिए कोई बड़ा योगदान करने या सकारात्मक आलोचना करने में नाकाम रहा.

पनगढ़िया के उत्तराधिकारी के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस संस्थान को नई सोच पैदा करने वाली इकाई बनाने की होगी, नहीं तो यह भी दूसरा योजना आयोग साबित होगा.