नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय रंगमंच पर उभरने और 2014 के लोकसभा चुनावों में धमाकेदार बहुमत से जीत दर्ज करने के बहुत पहले से दक्षिणपंथी रुझान वाले दो प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जगदीश भगवती और अरविंद पनगढ़िया गुजरात मॉडल का जिक्र करते आ रहे थे.
अपने शोधलेख के अलावा दूसरे लेखों और भाषण में दोनों अर्थशास्त्री बताते आ रहे थे कि अगर सरकार ने सही रास्ता अख्तियार किया तो किस तरह भारत एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनकर उभर सकता है. दोनों ही ने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के तर्कों की दमदार काट पेश की. अमर्त्य सेन तबतक मोदी के सबसे मुखर विरोधी और राहुल गांधी के एलानिया समर्थक बन चुके थे.
1 जनवरी 2015 के एक प्रस्ताव के जरिए जब मोदी ने योजना आयोग को समाप्त करने और एक नई संस्था नीति (नेशनल इंस्टीट्यूशन ऑफ ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) आयोग बनाने का फैसला लिया तो स्वाभाविक तौर पर माना गया कि जगदीश भगवती या फिर अरविंद पनगढ़िया में से कोई एक इस आयोग की अगुवाई करेगा. सूत्रों ने कहा कि भगवती की उम्र चूंकि 80 साल से ज्यादा हो चुकी है सो उनकी राय है कि अपनी उम्र के छठे दशक के शुरुआती सालों में गुजर रहे अरविंद पनगढ़िया आयोग के उपाध्यक्ष पद के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त होंगे.
नीति आयोग उपाध्यक्ष ने लिए अहम फैसले
नीति आयोग के कई सुझावों ने आर्थिक सुधार के मोर्चे पर मोदी सरकार की नीति का रुप लिया. इस बात का श्रेय अरविंद पनगढ़िया को जाता है. रेल बजट को आम बजट में मिलाना और बजट को निर्धारित तिथि से पहले पेश करना ताकि सरकार के लिए वित्तवर्ष सचमुच पहली अप्रैल से शुरु हो सके इसी की मिसाल है.
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पनगढ़िया के एक और प्रस्ताव पर काम जारी है. यह प्रस्ताव वित्तीय कैलेंडर को 1 अप्रैल से 31 मार्च के बजाय बदलकर 1 जनवरी से 31 दिसंबर तक करने का है. एयर इंडिया के विनिवेश का प्रस्ताव भी नीति आयोग का ही था और सरकार इसपर एक निश्चित गति के साथ काम कर रही है. इस बात के भी संकेत मिले हैं कि कुछ अहम मंत्रिमंडलीय दस्तावेज मंत्रालय में तैयार ना होकर पहले नीति आयोग में तैयार हुए फिर उन्हें संबद्ध मंत्रालय को भेजा गया ताकि तय की गई रुपरेखा के सहारे वे उस पर आगे का काम करे.
पनगढ़िया का जाना मोदी के लिए आघात
बीते दो सालों से अरविंद पनगढ़िया एक तरह से मोदी सरकार के आर्थिक सुधारों का चेहरा बन चले थे. उनके नीति आयोग से जाने का अर्थ है अब नीति-निर्माण में उनकी भागीदारी नहीं होगी. नीति आयोग में रहते उन्होंने आर्थिक मोर्चे पर एक तरह से सरकार के प्रमुख प्रवक्ता का भी दायित्व निभाया. सो, पनगढ़िया का जाना मोदी सरकार के लिए एक आघात की तरह है. पनगढ़िया के इस्तीफे को इसलिए भी मोदी सरकार के लिए आघात माना जाना चाहिए क्योंकि खुद मोदी ने उन्हें नीति-आयोग के उपाध्यक्ष के रुप में चुना था. नीति आयोग की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं.
पनगढ़िया के इस्तीफे की खबर सबसे पहले फर्स्टपोस्ट ने ब्रेक की. पनगढ़िया इस माह के अंत यानी 31 अगस्त तक अपने पद पर काम करते रहेंगे और उसके बाद अपने अगले पड़ाव पर जाने के लिए मुक्त होंगे.
वापस अपने पहले प्यार के पास जाना चाहते हैं पनगढ़िया
सूत्रों का कहना है कि पनगढ़िया ने डेढ़ माह पहले प्रधानमंत्री से भेंट करके मसले पर चर्चा की थी और निवेदन किया था कि उन्हें उनकी मौजूदा जिम्मेदारी से मुक्त किया जाय ताकि वे अपने ‘पहले प्यार’ यानी एकेडमिक्स (अध्ययन-अध्यापन) की ओर लौट सकें. पनगढ़िया कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं. वे वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संगठनों में भी प्रमुख पदों पर काम कर चुके हैं.
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कुछ लोगों के साथ अपनी अनौपचारिक बातचीत में पनगढ़िया ने स्वीकार किया है कि अध्ययन-अध्यापन का काम उन्हें बड़ी शिद्दत से याद आ रहा है, कोलंबिया विश्वविद्यालय के अधिकारी, साथी प्राध्यापक और छात्र उनसे बार-बार पूछ रहे हैं कि बताइए, आखिर आप पढ़ने-पढ़ाने के काम पर फिर से कब लौट रहे हैं. लेकिन नीति आयोग की जिम्मेदारी अपेक्षित समय से पहले छोड़ने के कारण के रुप में यह तर्क बहुत सीधा-सरल जान पड़ता है.
क्या नीति आयोग में चल रही है खींचतान?
नीति आयोग का पद खुद पनगढ़िया के लिए और जिसने उन्हें इस पद के लिए चुना था उसे नेता के लिए भी बहुत मायने रखता है. सवाल उठता है कि क्या पनगढ़िया ने कुछ ज्यादा ही दक्षिणपंथी रुझान दिखाया जबकि सरकार अर्थव्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों में अब भी समाजवादी नीतियों पर चल रही है. क्या नीति आयोग में कुछ अंदरुनी खींचतान चल रही है क्योंकि आयोग में हाईप्रोफाइल सीईओ अमिताभ कांत और तीन पूर्णकालिक सदस्य बिबेक देबरॉय, प्रोफेसर रमेशचंद तथा वी के सारस्वत शामिल हैं.
सरकार और व्यापार-जगत में अब बड़ी दिलचस्पी से इस बात का इंतजार किया जायेगा कि मोदी अरविंद पनगढ़िया की जगह किस व्यक्ति को आयोग के उपाध्यक्ष पद के लिए चुनते हैं और चयन का फैसला कितना जल्दी लिया जाता है.
इस साल जून के दूसरे पखवाड़े में मोदी सरकार के एक और हाई प्रोफाइल अधिकारी मुकुल रोहतगी ने निवेदन किया था कि अटॉर्नी जनरल के रुप में उनके कार्यकाल का नवीकरण ना किया जाय क्योंकि वे प्राइवेट प्रैक्टिस की अपनी पुरानी दुनिया में लौट जाना चाहते हैं.
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