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एम्स प्रवेश परीक्षा ड्रेस कोड: हिजाब पाबंदी पर अदालतें तक कंफ्यूज हैं!

कुरान के तहत हिजाब पहनना महिला की शालीनता से जुड़ा है और इसे महिलाओं के यौन उत्पीड़न से रक्षा करने वाला मानते हैं

Devika Agarwal

इस हफ्ते की शुरुआत में केरल हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) अपनी प्रवेश परीक्षा में बैठने वाले उम्मीदवारों को हिजाब पहनने से नहीं रोक सकता.

कालीकट यूनिवर्सिटी के मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्यों ने इस आधार पर याचिका (फिदा फातिमा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया) दायर की थी कि परीक्षा के लिए एम्स का ड्रेस कोड असंवैधानिक है और इससे मुस्लिम महिलाओं की धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होता है.


हालांकि केरल हाईकोर्ट ने कहा कि सिर पर पहने जाने वाले धार्मिक पोशाक का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत आता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 25 की कुछ अलग ही व्याख्या की है.

अतीत में सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के प्रतिबंधों को सही बताया था और कहा था कि इन प्रतिबंधों से धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता.

मुस्लिम महिलाओं के नकाब और अन्य धार्मिक पोशाकें पहनने के अधिकार पर यूरोप के देशों में लंबी बहस हुई है. इनमें से कुछ ने इन पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून भी बनाये हैं. धार्मिक आस्था के अनुरूप पोशाक धारण करने का अधिकार किसी भी व्यक्ति की धर्म की स्वतंत्रतता के अधिकार का हिस्सा है.

इस अधिकार पर किसी तरह की पाबंदी को भारतीय संविधान और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत जायज नहीं ठहराया जा सकता.

इस्लाम में हिजाब

‘हिजाब’ एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ अवरोध या विभाजन है. इस्लाम के सन्दर्भ में हिजाब सिर पर पहनी जाने वाली पोशाक है जो बाल और गर्दन को ढंकती है. हिजाब का व्यापक अर्थ 'ढंकना' अथवा ‘नकाब करना’ है.

छात्रों की याचिका में तर्क दिया गया है कि कुरान और हदीस (पैगंबर मुहम्मद के कथन) के मुताबिक मुस्लिम महिला जब सार्वजनिक स्थान अथवा ऐसे पुरुषों के साथ में हो जिनसे वह सैद्धांतिक रूप से शादी कर सकती है (गैर-महरम) तो उसे अपने चेहरे को छोड़कर शरीर के बाकी हिस्सों को ढीले वस्त्रों से अवश्य ढंक लेना चाहिए.

कुरान के तहत नकाब या हिजाब पहनना महिला की शालीनता से जुड़ा है. इसे महिलाओं की यौन उत्पीड़न से रक्षा करने वाला माना जाता है, क्योंकि नकाब महिला के शरीर को अवांछित दृष्टि से बचाता है.

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[प्रतिकात्मक तस्वीर: रॉयटर्स]दुनिया भर में हिजाब पर प्रतिबंध

यूरोप के विभिन्न देशों ने स्थानीय या राष्ट्रीय कानूनों के जरिए हिजाब पर आंशिक या पूर्ण प्रतिबंध लगाया है. फ्रांस के बाद 2011 में बेल्जियम सार्वजनिक स्थानों पर बुरका और नकाब पहनने पर प्रतिबंध लगाने वाला दूसरा देश बन गया. इसका उल्लंघन करने पर जुर्माना और सात दिनों तक की कारावास का प्रावधान है.

इस तरह के प्रतिबंध लगाने के पीछे कई कारण हैं. बुल्गारिया ने यूरोप में इस्लामी आतंकवादियों के हमलों के मद्देनजर सुरक्षा कारणों से बुर्के (चेहरे और शरीर को ढंकने वाली इस्लामी पोशाक) पर प्रतिबंध लगाया. मिस्र ने 2015 में काहिरा विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को नकाब पहनने से रोक दिया ताकि वे छात्रों के साथ आसानी से संवाद कर सकें.

बाद में मिस्र की सरकार ने सार्वजनिक स्थानों और सरकारी संस्थानों में बुरका पर पाबंदी लगाने के लिए विधेयक तैयार किया. एक सांसद और शिक्षाविद ने यूरोप के कानून का इस आधार पर समर्थन किया कि इस्लाम में नकाब पहनना अनिवार्य नहीं है. कुरान 'शालीन कपड़ों और ढंके बालों की बात करता है, चेहरे को ढंकने की नहीं.'

यूनाइटेड किंगडम में इस्लामिक ड्रेस पर प्रतिबंध नहीं है. लेकिन स्कूलों को अपना ड्रेस कोड लागू करने की इजाजत है, जिसमें नकाब पर प्रतिबंध भी शामिल है. नकाब पर प्रतिबंध लगाने की सबसे बड़ी वजह पहचान में सहूलियत और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को बताया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि इस तरह के प्रतिबंध आतंकवाद के भय से प्रेरित हैं.

दिलचस्प बात यह है कि 2016 में फ्रांस के कई तटीय शहरों ने 'बुर्किनी' (समुद्र तट पर मुख्य रूप से मुस्लिम महिलाओं के पहनने के लिए डिजाइन किया गया पोशाक, जो सर को ढंकता है) पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके पीछे फ्रांस का मुख्य तर्क था कि बुर्किनी फ्रेंच संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है.

बुर्किनी पर प्रतिबंध का एक और कारण यह है कि फ्रांस इस्लामिक उग्रावाद से अत्यधिक भयभीत है. फ्रांस के उच्चतम प्रशासनिक अदालत ने कहा है कि यह प्रतिबंध 'मौलिक स्वतंत्रता का गंभीर और स्पष्ट उल्लंघन' करता है. इसके बावजूद यह प्रतिबंध जारी है.

मार्च 2017 में यूरोपीय अदालत ने फैसला सुनाया कि नियोक्ता कार्य स्थलों पर अपने कर्मचारियों को हिजाब समते धार्मिक प्रतीक धारण करने पर पाबंदी लगा सकते हैं.

अदालत ने कहा: 'एक उपक्रम का आंतरिक नियम जो किसी राजनीतिक, दार्शनिक या धार्मिक दिखने वाले प्रतीकों को धारण करने पर पाबंदी लगाता है, वह प्रत्यक्ष भेदभाव की श्रेणी में नहीं आता.' इसने उन कंपनियों का समर्थन किया जो धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबंध लगाकर एक तटस्थ छवि का प्रोजेक्ट करना चाहती थीं.

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हिजाब पहनने के अधिकार और भारतीय न्यायपालिका

केरल हाईकोर्ट ने एम्स के ड्रेस कोड को चुनौती देने वाली याचिका को मंजूरी दी. अदालत ने आमना बिन बशीर बनाम सीबीएसई एवं यूनियन ऑफ इंडिया मामले में अपने पहले के फैसले का सहारा लिया. यह मामला सीबीएसई की अखिल भारतीय प्री-मेडिकल प्रवेश परीक्षा (एआईएमपीटी) 2016 से जुड़ा था.

पहले मामले में हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि सिर ढंकने पर पाबंदी लगाने वाला ड्रेस कोड उन लोगों पर लागू नहीं होगा जो धार्मिक आस्था की वजह से ऐसा करते हैं. फैसले के मुताबिक यह अनुच्छेद 25 के तहत प्राप्त अधिकार का हिस्सा है.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षा ड्रेस कोड के समर्थन में व्यवस्था दी थी, जिसमें हिजाब और नकाब पर रोक शामिल थी. एआईपीएमटी प्रवेश परीक्षा में इस तरह के ड्रेस कोड को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि परीक्षा के दौरान सिर न ढंकने से किसी के धर्म की अवमानना नहीं होगी.

अदालत ने परीक्षा के दौरान सिर ढंकने वाली पोशाक पहनने की जिद को 'अहंकार' का विषय बताया था.

[तस्वीर प्रतिकात्मक: रॉयटर्स]संविधान और मानवाधिकार कानून के तहत हिजाब पहनने का अधिकार

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत सभी व्यक्तियों को अपने धर्म के पालन, प्रचार और प्रसार करने का अधिकार प्राप्त हैं. संविधान के तहत इस अधिकार में सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधार पर कटौती की सकती है. मौलिक अधिकारों पर लगाए गए किसी प्रतिबंध की वैधता की व्याख्या करते वक्त अदालतें प्रतिबंधों के औचित्य पर विचार करती हैं.

भारतीय अदालतें अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) के मामलों में किसी कदम के औचित्य के आकलन के लिए 'रिजनेबल नेक्सस टेस्ट’ का इस्तेमाल करती हैं. इसके तहत अदालतें तय करती हैं कि उठाए गए कदमों का उनके उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध हैं या नहीं.

फिदा फातिमा के मामले में याचिकाकर्ताओं ने इसका भी सहारा लिया. उन्होंने कहा कि ड्रेस कोड और ड्रेस कोड लागू करने की वजह के बीच तर्कसंगत संबंध नहीं है. एम्स ने नकल रोकने के लिए हिजाब पर पाबंदी लगाई थी. अदालत ने याचिकाकर्ताओं की दलील को स्वीकार कर ली कि उम्मीदवार ठीक तरीके से छानबीन के लिए परीक्षा केंद्र पर पहले रिपोर्ट कर सकते हैं.

याचिकाकर्ताओं ने बीजो इमानुएल बनाम केरल राज्य मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी आधार बनाया, जिसमें अदालत ने अनुच्छेद 25 के तहत धर्म के अधिकार की पुष्टि की थी. याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि हिजाब पर रोक लगाने से संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन होता है, जो बच्चों के विचार, विवेक और धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा करता है.

केरल हाईकोर्ट का फैसला किसी भी व्यक्ति को संविधान के तहत मिले धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार की स्वागतयोग्य व्याख्या है. एक मुस्लिम महिला के लिए धार्मिक पोशाक उसकी पहचान का हिस्सा है. अगर वह अपनी आस्था के अनुरूप हिजाब पहनते हुए पली-बढ़ी है तो वह धार्मिक पोशाक पहनने पर पाबंदी लगने से भयभीत महसूस कर सकती है.

यह भी संभव है कि नकाब पहनने से रोके जाने पर मुस्लिम महिलाएं सार्वजनिक जीवन में हिस्सा लेने से वंचित हो जाए. अगर पाबंदी से उनके धर्म का उल्लंघन होता है, तो वे बाहर न निकलने या प्रवेश परीक्षाओं में भाग न लेने का निर्णय कर लें. अगर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस तरह का कोई मामला आता है तो उसे इन पहलुओं पर गौर करना चाहिए और धर्म के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए, जिसमें हिजाब जैसे सर ढंकने वाली पोशाकें भी शामिल हों.

(लेखक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड के सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज की रिसर्च फेलो हैं. वह स्ट्रेटेजिक एड्वोकेसी फॉर ह्यूमन राइट्स (एसएएचआर) की स्वयंसेवक भी हैं. लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.)