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नैचुरल सेल्फी से आए न आए लेकिन पहनावों से आती रही हैं क्रांतियां

एक खास तरह से बेहतर दिखने की सनक हमारे दिमाग में बचपन से भरी जा रही है

Animesh Mukharjee

पिछले कुछ दिनों से फेसबुक पर नैचुरल सेल्फी का अभियान चल रहा है. फोटो विदआउट मेकअप के इस अभियान ने लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया है. इसके समर्थन में आए लोग जहां इसे स्त्री के बाजार के तय किए गए मानकों को तोड़ने की दिशा में उठाया गया एक कदम बता रहे हैं, दूसरा तबका इसे बेमतलब की एक कवायद बताकर खारिज कर दे रहा है.

माना जाता है कि 90 के दशक में हमारी अर्थव्यवस्था के खुलने और उसके बाद विश्वसुंदरी जैसी प्रतियोगिताओं में भारतीय लड़कियों के जीतने से भारत में मेकअप और कॉस्मेटिक्स प्रोडक्ट्स का बाजार खुला.


ये बात सच है कि हम सबके बाथरूम में तमाम तरह के साबुन, वॉश और क्रीम्स के आने में इन घटनाओं का बड़ा हाथ रहा है, लेकिन सिर्फ को ऑब्जेक्टिफाई करने में सिर्फ यही कारण नहीं रहे हैं. कभी देखने वालों की नजरों में सुंदरता के मायने बदल गए हैं, तो कभी किसी और वजह से नए सौंदर्य प्रतिमान बने हैं.

विश्वयुद्ध और स्कर्ट

‘लगान’ जैसी 19वीं शताब्दी के अंतिम सालों पर बनी फिल्मों में महिलाओं की ड्रेस आपको याद है. जमीन को बुहारती अत्यंत लंबी ड्रेस, कसा हुआ कॉर्सेट और सजावटी हैट. यहां तक कि 1912 की कहानी ‘टाइटेनिक’ में भी इसी लंबाई की ड्रेस दिखती हैं.

मगर इसके दो दशक बाद की कहानियों में लड़कियों की पोशाक अचानक से घुटनों तक सिमट जाती है. स्कर्ट की लंबाई में आई ये कमी बेवजह नहीं थी. प्रथम विश्वयुद्ध में अमेरिका जैसे देशों के तमाम पुरुष युद्ध पर चले गए थे. ऐसे में फैक्ट्रियों और दफ्तरों में काम करने की जिम्मेदारी महिलाओं ने उठाई. अब अस्सी कली के घाघरे जैसी पोशाक के साथ दिन भर काम नहीं किया जा सकता था तो घुटनों तक लंबी स्कर्ट वेस्टर्न फॉर्मल ड्रेस बनी. एक युद्ध ने महिलाओं की पोशाकों को टखने से घुटनों तक समेट दिया.

क्रांति पैंट पहनने से होती है

वैसे ये पहला मौका नहीं था कि युद्ध के चलते फैशन बदला हो. रोटी कपड़ा और मकान में कपड़ा हमेशा से क्रांति का अहम हिस्सा रहा है. हिंदुस्तान के इतिहास में खादी का योगदान तो सबको पता है. फ्रांस की क्रांति में एक पहलू पैंट का भी रहा है. फ्रांस के अभिजात्य वर्ग की पहचान ‘नी ब्रीचर्स’ पहनना थी. घुटनों तक लंबी चुस्त पतलून जिसके नीचे सफेद मोजे पहने जाते थे.

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क्रांतिकारियों ने इससे अलग पहचान बनाते हुए पैंट पहनना शुरू किया. क्रांतिकारी होने, अपने हाथ में कमांड लेने का अर्थ था पैंट पहनना. धीरे-धीरे पैंट सामान्य जनजीवन का हिस्सा बन गई. अंग्रेजी में एक कहावत भी है ‘हू विल वियर द पैंट’ ये अक्सर घर के कमाने वाले या मुखिया के लिए इस्तेमाल होता है. अपनी विलोम सरीखी पेटीकोट गवर्नमेंट वाली कहावत के उलट.

गोरी छरहरी और क्लीवेज न हो

सुंदरता देखने वाले की आंखों मे होती है. आज के दौर में ब्रेस्ट इंप्लांट्स और क्लीवेज के सहारे कई हजार करोड़ की इंड्स्ट्री चल रही है. मगर कुछ दशक पहले तक एक ऐसा चलन भी था कि महिलाओं के सीने के उभार को असुंदर माना जाता था. कारण वही कि जो पितृसत्ता को लुभाए.

1920 के दशक में आदर्श फिगर का अर्थ था एंड्रोजनस लुक. दुबली पतली और सपाट काया. इस ट्रेंड की दीवानगी ऐसी थी कि महिलाएं अपने शरीर को पट्टी से कस कर बांधती थी कि वो सपाट नजर आएं. मगर इसके दो दशक के अंदर हॉलिवुड की लोकप्रियता और मर्लिन मुनरो जैसी स्टार्स के आने बाद कर्व का होना और उन्हें दिखाना फैशन बन गया. लंबी टांगों और टोंड बाहों को फैशनेबल मानने का चलन यहीं से शुरू हुआ.

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मगर 60 के दशक तक आते-आते ये ट्रेंड बिलकुल बदल गया. फैशन की पहचान हिरोइनों के बजाय रैंप पर चलने वाली मॉडल्स से होने लगी. मॉडल होने के लिए हैंगर की तरह दुबला होना पहली शर्त थी. दो दशक चली इस दुबलेपन की सनक ने महिलाओं में ईटिंग डिसऑर्डर जैसी तमाम समस्याएं बढ़ा दीं.

80 के दशक में एक बार फिर एरोबिक्स वाली कसरती देह सुंदरता का पैमाना कही जाने लगी. अगर आपको याद हो तो 80 के दशक के अंत में तमाम हिंदी सिनेमा की तमाम हिरोइंस अपनी आंखों के आइशैडो से मिलती ऐरोबिक ड्रेस पहने फिल्म के पर्दे पर दिखती थीं.

80 का ये चलन केटमॉस जैसी मॉडल्स के आने के बाद एक बार फिर दुबलेपन की सनक से बदल गया. और ये चलन अल्टर्नेट तरीके से चलता रहेगा. परिवर्तन प्रकृति का नियम है न.

दिक्कत जींस से नहीं है

हिंदुस्तान में महिलाएं तमाम पश्चिमी पोशाकें पहनती हैं. स्कर्ट तो बचपन से ही छोटे कस्बों तक में शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा है. मगर सबसे ज्यादा आपत्ति जींस पर होती है. दरअसल के साथ एक तबके को समस्या होने का कारण है कि जींस पहनावे के मामले में स्त्री और पुरुष को बराबर सक्रियता के स्तर पर ले आती है. जहां पहनावा शो ऑफ नहीं यूटिलिटी बन जाता है.

ठीक इसी तरह की आपत्ति 20वीं शताब्दी के शुरुआत में बंगाल की महिलाओं को झेलनी पड़ी थी. टैगोर परिवार की चलाई ब्रह्मिका साड़ी पहनने की मुहिम से पुरातनपंथियों को घोर आपत्ति थी. तब स्त्री का साड़ी के साथ ब्लाउज पहनना शायद आज के दौर में मिडिल क्लास परिवार में बहू के बिकनी पहनने के बराबर ही था. कारण बड़ा स्पष्ट था. सिले हुए बटन टंके कपड़े काम पर जा रहे पुरुषों का पहनावा था. कोई भले घर की औरत भला ऐसा कैसे कर सकती थी.

क्या स्नो पाउडर का दौर लौटेगा

हमारी आपकी दादी नानी के दौर में सजने संवरने के बड़े साधारण से उपाय थे. सर्दियों में ग्लिसरिन सोप, गर्मियों में नीम वाला साबुन, हेवेंस गार्डन का तेज खुशबू वाला टेल्कम पाउडर लगाया, सतरीठा शैंपू से बाल धोए और चेहरे पर अफगान स्नो लगा लिया. बोरोलीन से त्वचा का ख्याल रखने वाले उस दौर में लिपस्टिक शादी ब्याह की चीज हुआ करती थी और रूज लगाना तो बोल्डनेस की सीमा पर पहुंचने जैसा था.

देखते ही देखते बाजार ने इन सबको बदल दिया. अब सोशल मीडिया बदल रहा है. फिलहाल नैचुरल सेल्फी जैसे ट्रेंड कुछ खास असर छोड़ते नहीं दिख रहे हैं. क्योंकि एक खास तरह से बेहतर दिखने की सनक हमारे दिमाग में बचपन से भरी जा रही है. आज जो मानक हैं उनमें बदलाव आएगा मगर हम उसको बनाने के नहीं ग्रहण करने वाले सिरे पर होंगे.

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फैशन के बाजार पर बनी फिल्म ‘डेविल वियर्स प्राडा’ में एक जगह मिरांडा प्रीस्ली के किरदार में मैरिल स्ट्रीप कहती हैं कि जो सबसे अनफैशनेबल कपड़ा आप सुपर मार्केट से चुनते हैं ये सोचते हुए कि आप इस दिखावे की दौड़ में नहीं हैं. वहां उस स्वेटर को भी फैशन इंडस्ट्री के किसी बड़े आदमी ने रखवाया होता है. ये जानते हुए कि आप जैसे कुछ लोग आएंगे ये सोचकर कि कुछ ऐसा चुनना है जिसका फैशन से कोई लेना-देना न हो.

मतलब आप कुछ भी करें, बाजार के चलन से बिलकुल अलग जाना तय करें. फिर भी आपके लिए वहां भी बाजार ने पहले से कुछ न कुछ रखा ही होगा. बाकी तो बशीर बद्र का बड़ा मौजूं शेर है- ‘जब भी कसने लगा बदल दिया, इस बदन पर कई लिबास रहे.’