जब भी पढ़ती हूं कि कोई शेखी बघार रहा है कि उसका पसंदीदा भोजन ‘वील’ है या देखती हूं कि किसी डिश में वील शामिल है तो सोचती हूं, क्या खाने वाला इस बात को समझ रहा है कि वह दरअसल कर क्या रहा है. मांस खाने वाले बड़े कम लोग जानते हैं या जानना चाहते हैं कि उनका भोजन तैयार कैसे हुआ है- मैं मानकर चलती हूं कि अगर खाने वाले ने अपनी आंखें खोल रखी हैं तो उसे अपना दिल भी खोलना चाहिए और दिल के दरवाजे खुलें तो फिर उसे धक्का लगेगा.
वील है क्या?
वील दरअसल है क्या? क्या है वील? यह गाय के नन्हें बछड़े का मांस होता है, ऐसे बछड़े का मांस जिसे भूखे रखकर मार दिया गया हो ताकि उसका मांस जर्द गुलाबी नजर आए, इतना जर्द कि लगे उजले रंग का है. यह मांस भारत के तकरीबन सभी फाइव स्टार होटलों में बिकता है.
‘वील’ मांस के लिए बछड़े तैयार करने का यह उद्योग सघन पशुपालन के बाकी सभी रुपों में सबसे ज्यादा बुरा है. पशु की इस नियति से तो कहीं उसकी मौत अच्छी. ‘वील’ तैयार करने के लिए जन्म के एक- दो दिन बाद ही नन्हें बछड़े को उसकी मां से अलग कर दिया जाता है. इस बछड़े को एक तंग और अंधेरे दड़बे में जंजीर से बांधकर रखा जाता है. दड़बा इतना तंग होता है कि उसमें बछड़े का शरीर बमुश्किल समा पाता है.
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अपनी छोटी सी जिंदगी में यह बछड़ा फिर कभी सूरज की रोशनी नहीं देख पाता, मिट्टी की छुअन से वह महरुम रखा जाता है. घास उसे ना देखने को मिलती है ना खाने को. बछड़े के रग-रेशे कसरत और आजादी के इंतजार में दर्द से दुखते हैं. यह बछड़ा अपनी मां की राह देखता है.
जन्म के 14 हफ्तों तक दड़बे में बंद
जन्म के तकरीबन 14 हफ्ते बाद ऐसे बछड़े को काट दिया जाता है. बछड़े को काठ के जिस दड़बे में रखा जाता है वह इतना छोटा (22 इंच गुणे 54 इंच) होता है कि बेचारा पशु अपना शरीर पूरा नहीं घुमा सकता. काठ के इस दड़बे की बनावट ही ऐसी होती है कि उसके भीतर कोई चल-फिर ना सके, सो बछड़े की मांसपेशियां एकदम शिथिल पड़ जाती हैं और मांसपेशियों की यही शिथिलता मांस को मुलायम बनाती है.
कल्पना कीजिए, अगर आपको किसी एक ही मुद्रा में बिना हिल-डुल के महीने भर बैठने को कहा जाय तो आप पर क्या गुजरेगी. दड़बे के दीवारों से बछड़े का शरीर बार-बार घिसता है सो उसपर घाव बन जाते हैं. काठ की उन दीवारों पर गद्दीनुमा कोई चीज नहीं बिछी होती, वह निरी काठ होती है.
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बछड़ा एकबार दड़बे में बंद हो गया तो समझिए अब वह कभी चल नहीं पाएगा. दरअसल, बछड़ा कभी खड़ा भी नहीं होता, सिवाय उस एक वक्त के जब उसे काटने के लिए ले जाया जाता है और इस घड़ी तक बछड़े की टांगे बेकाम हो चुकी होती हैं.
यह गाय का वह नन्हा बछड़ा होता है जिसे फिर कभी अपनी जिंदगी का कोई साल देखने को नहीं मिलेगा. वह कभी कूद-फांद नहीं कर सकेगा, कभी खेल नहीं पाएगा, कभी किसी और बछड़े को नहीं देख पाएगा.
जिंदा और मोटा रखने के लिए चुभाई जाती हैं सूइयां
इस बछड़े के मुंह में कुछ घंटों के अंतराल पर जबरदस्ती एक बोतल उड़ेली जाती है. इसे भोजन कहा जाता है. जबकि भोजन के नाम पर यह लुगदीनुमा दवाई होती है. बछड़े की चमड़ी में सूइयां चुभायी जाती हैं और यह सब इसलिए किया जाता है ताकि बछड़ा जिन्दा रहे और मोटा होता जाए.
बछड़ा लगातार डकारते रहता है, उसके पेट से पतली धार के रुप में बड़ी पीड़ा की हालत में गोबर निकलता है. गोबर से बछड़े के पीछे का हिस्सा एकदम गंदा हो जाता है.
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बछड़े को भोजन के नाम पर जो लुगदीनुमा दवा खिलाई जाती है वह तरल वसा (फैट) होता है, उसमें जान-बूझकर लौह-तत्व (आयरन) या ऐसे ही जरुरी पोषक तत्व नहीं डाले जाते. ऐसे भोजन के कारण पशु में आयरन की कमी हो जाती है. आयरन की कमी के ही कारण बछड़े का मांस जर्द पीला या कह लें तकरीबन उजला नजर आता है जो कि वील के लिए जरूरी माना जाता है.
आयरन की कमी से परेशान बछड़ा दड़बे की पेशाब सनी सीखचों या दड़बे में मौजूद धातु की किसी और चीज को चाटता है. ‘वील’ मांस के लिए बछड़े को तैयार करने वाले किसान उसे जरुरत भर का पानी भी नहीं पिलाते, प्यास से बेहाल बछड़ा भोजन के नाम पर दिए जा रहे बदबूदार तरल वसा को पीने के लिए बाध्य होता है.
रहने की ऐसी नुकसानदेह दशा और घटिया भोजन के कारण बछड़े को चंद रोज के भीतर ही न्यूमोनिया का रोग लग जाता है, साथ ही वह बार-बार डायरिया का शिकार होता है. नतीजतन उसे भारी मात्रा में एंटीबॉयोटिक्स और अन्य दवाइयां दी जाती हैं ताकि वह किसी तरह जिन्दा रहे.
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यह एंटीबॉयोटिक्स वील खाने वाले के शरीर में भी पहुंचता है लेकिन सिर्फ एंटीबॉयोटिक्स ही नहीं पहुंचता बहुत कुछ और भी पहुंचता है. वील का उत्पादन करने वाली ज्यादातर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां बछड़े को एक खतरनाक और अवैध दवा क्लेनबुटेरॉल देती हैं. यह बछड़े के शरीर को बढ़ाता और उसमें आयरन की ज्यादा कमी पैदा करता है ताकि बछड़े का मांस ज्यादा उजला दिखे. मांस जितना उजला दिखेगा, उसकी कीमत उतनी ज्यादा लगेगी.
मानक यह है कि ‘वील’ किस्म के मांस के लिए 16 हफ्ते का बछड़ा काटा जाए लेकिन क्लेनबुटेरॉल देकर रखा गया बछड़ा 12-13 हफ्ते का हो तब भी उसे काटने के लायक मान लिया जाता है.
ध्यान रहे, बछड़े के मांस के मार्फत हल्का सा भी क्लेनबुटेरॉल मांस-उपभोक्ता के शरीर में चला गया तो गंभीर बीमारी घेर सकती है. इन बीमारियों में हृदय की धड़कन का बढ़ना, कंपकंपी आना, सांस लेने में कठिनाई होना, बुखार होना और मौत होना तक शामिल है.
साल 1996 में यूरोपीय यूनियन ने मतदान के जरिए फैसला किया कि पूरे यूरोप में वील-क्रेट (काठ का दड़बा) पर प्रतिबंध लगा दिया जाए. लेकिन ‘वील’ मांस का उद्योग चलाने वालों का तर्क था कि उन्हें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा सो वील-क्रेट को चरणबद्ध ढंग से हटाया जाए, धीरे-धीरे उनकी तादाद कम की जाए. ऐसा होने के बावजूद वील-क्रेट अमेरिका और आस्ट्रेलिया में वैध ही बना रहेगा.
भारत में वील का उत्पादन गैरकानूनी, चोपी छिपे मिलता है होटलों में
वील मांस की तैयारी के लिए पाले जा रहे बछड़े की नियति पर विचार करके लेखक जॉन रॉबिन्स ने लिखा है- 'आज जानवर जिस तरह से बाजार के लिए पाले जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह सवाल कि मांस खाया जाए या नहीं, एक नए अर्थ में सोचने की मांग करता है, साथ ही इस सवाल पर फौरी तौर पर फैसला लेने की जरुरत पैदा हो गई है. अब से पहले कभी भी जानवरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं हुआ. अब से पहले कभी भी ऐसी गहरी और पूरे व्यवस्थित तरीके से अपनी निरंतरता में जारी क्रूरता व्यापक पैमाने पर सामने नहीं आई थी. अब से पहले कभी भी हर व्यक्ति की पसंद-नापसंद को इतना ज्यादा महत्व नहीं दिया गया.'
भारत में वील का उत्पादन करना गैरकानूनी है. पांचसितार होटलों ने इसकी काट निकाल ली है. वे कहते हैं हमने वील का आयात किया है. लेकिन इस तर्क को पेश करने से उनका दोष खत्म नहीं हो जाता.
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बछड़ा जब तीन दिन का होता है तो डेयरी-उद्योग के हाथों उसे स्थानीय बाजार में निर्यातकों को बेच दिया जाता है. इसके बाद बछड़ा वहां भेज दिया जाता है जहां उसे ‘वील’ मांस के लिए पाला जाएगा.
बहरहाल, मुझे यह भी लगता है कि खुद भारत के भीतर ढंके-छुपे इसका व्यवसाय चल रहा है. भारत में बछड़े को यातना दी जाती है और स्थानीय स्तर पर उन्हें होटलों को बेच दिया जाता है.
खाने से पहले लोग एक बार दिल से सोचें
मुझे पक्का यकीन है कि होटलों पर छापेमारी की जाए तो पता चलेगा कि इम्पोर्ट लाइसेंस और वील की खरीदी की मात्रा उससे कम निकलेगी जितना कि बेचा गया है. बहुत से होटल वील बेचते हैं और अपने मैन्यू में वील के नीचे ‘इम्पोर्टेड’ (विदेश से मंगाया) लिखते हैं.
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बहरहाल, वील का आयात डीजीएफटी के अंतर्गत हमेशा प्रतिबंधित रहा है और जिन होटलों में स्वदेशी या आयातित वील परोसा जाता है उनपर एनिमल प्रोटेक्शन एक्ट के तहत कड़ी कार्रवाई की जा सकती है. एनिमल एक्टिविस्ट को कहा गया है कि वे अपने इलाके के होटलों की जांच करें और देखें कि कहीं उनमें वील तो नहीं बेचा जा रहा.
वील ना खाइये और ना खरीदिए. दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों को बताइए कि ऐसा करना क्यों जरुरी है. अगर आपके इलाके के किसी होटल में वील परोसा जाता है तो उससे कहिए कि अपने मैन्यू से वील को हटा दो वर्ना हम तुम्हारा बॉयकाट करेंगे. अगर आपको लगता है कि कोई वील के व्यापार में लगा है तो फिर सीधे मुझे बताइए.