साल 2015 में आई बांग्ला फिल्म 'राजकाहिनी' की शुरूआत मंटो की कहानी 'खोल दो' से होती है. इस कहानी में फातिमा नाम की लड़की के साथ बंटवारे के दंगो में कई बार बलात्कार हुआ होता है.
बंद कमरे में इलाज कर रहा डॉक्टर कंपाउंडर से खिड़की खोलने के लिए कहता है. लगभग कोमा जैसी स्थिति में बिस्तर पर पड़ी लड़की किसी मशीन की तरह अपनी सलवार का नाड़ा खोल देती है.
राजकाहिनी शबनम नाम के किरदार के जरिए मंटो की इस कहानी को दोहराती है. इस फिल्म में किसी हिंदी फिल्म के सीन की तरह से कैमरा सलवार के ढीले होते ही फेड आउट नहीं होता. धीरे-धीरे मूव करता रहता है और लड़की की उतरती सलवार आपके अंदर छिपी बैठी मर्दानगी को छीलती चली जाती है.
ये अहसास इतना तीखा है कि आप मन ही मन दुआ करते हैं कि ये सीन यहीं रुक जाए. मगर कैमरा बिस्तर की कोर से होते हुए दोनों टांगों के बीच में जाकर रुक जाता है और बैकग्राउंड में चीखती शबनम के साथ आप भी मन ही मन चीख रहे होते हैं.
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राजकाहिनी का हिंदी वर्जन
'राजकाहिनी' के हिंदी वर्जन 'बेगमजान' में ये सीन नहीं है. पता नहीं इसे सेंसर बोर्ड के डर से नहीं रखा गया या फिर ये हिंदी सिनेमा के दर्शकों के हिसाब से फिल्म को टोन डाउन करने करने का तरीका था.
वैसे एक दर्शक के तौर पर मुझे ये दोनों का मेल लगा. 'बेगम जान' में बांग्ला वर्जन से तीन चीजें कम लगीं.
किरदारों को स्थापित करते समय एक जगह ग्राहक निपटाने के बाद मास्टरबेट करती वेश्या को दिखाया गया है. ये सीन जिस तरह से किसी औरत के जिस्म और उसके दिमागी सुकून के अंतर को दिखाता है शायद हमारे सेंसर बोर्ड को वो बर्दाश्त नहीं होता.
इसके अलावा अर्धनारीश्वर शिव-पार्वती की तस्वीर के सामने स्मूच करती दो लड़कियों जैसे सीन, कोठे को गलती से दरगाह कहने जैसे डायलॉग भी गायब हैं.
बेगम जान में जो तीसरी बात गायब है उस पर आने से पहले कुछ और बात भी करते हैं. फिल्म की समीक्षा लिखने वाले ज़्यादातर क्रिटिक्स अब एक नए तरीके का रिव्यू लिख रहे हैं.
साल 2015 में बाहुबली के ऊपर एना वेटिकाड के लिखे गए बेहतरीन रिव्यू 'रेप ऑफ अवंतिका' के बाद से अलग-अलग विचारधाराओं के चश्में (खासतौर पर फेमिनिज्म) लगाकर रिव्यू लिखने का चलन बढ़ा है.
रिव्यू लिखने के इस स्टाइल में निश्चित तौर पर ऐना माहिर हैं, मगर हर फिल्म रिव्यू में उनकी नकल करने वालों से मेरी दो आपत्तियां हैं. (नकल करने का ब्रीफ दो से ज्यादा संपादकों से सुन चुका हूं).
पहली ये कि फिल्म को जांचने-परखने का पहला पैरामीटर उसका क्राफ्ट होना चाहिए न कि यह कि वो किस वाद को खुश करती है. अगर कोई फिल्म आलोचना का शिकार या महान सिर्फ फेमिनिज्म के 'प्रो या एंटी' होने के आधार पर होती है तो राष्ट्रवाद की चाशनी चटाकर नेश्नल अवॉर्ड जीतने वालों पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
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औसत दर्जे का रिव्यू
पिछली साल P नाम से शुरु होने वाली दो औसत दर्जे की फिल्मों के बारे में लिखा गया.(सोशल मीडिया की पोस्ट पर नहीं प्रतिष्ठित मीडिया हाउस की वेबसाइट्स पर) अगर आपको ये फिल्म पसंद नहीं आई तो आप कुंठा से भरे, पित्तृसत्ता को पूजने वाले मर्द हैं. आप महिलाओं को बराबरी पर नहीं देख सकते, एक फिल्म की कहानी, एक्टिंग, डायरेक्शन पसंद न आने के आधार पर लोगों के किरदार तय किए जा रहे थे.
खैर, वापस बेगम जान पर आते हैं. फिल्म की समीक्षा लिखने वालों में से ज्यादातर लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि 'बेगमजान' की शुरूआत में सआदत हसन मंटो को श्रद्धांजलि क्यों दी गई है.
कुछ ने अपने रिव्यू में सवाल पूछा है कि इस फिल्म का आइडिया कहां से आया. इसके अलावा फिल्म के अंत में जलती हुई वेश्याओं के साथ रानी पद्मावती की कहानी को सुनाने पर भी सवाल उठाए गए हैं कि पद्मावती तो काल्पनिक थी और इससे जोहर को स्थापित किया जा रहा है.
मेरा भी एक विनम्र सवाल है, '1947 की कहानी में एक ग्रामीण बूढ़ी औरत प्रेरणा के लिए क्या पढ़ेगी, पद्मावती और लक्ष्मीबाई की कहानियां या फिर सिमोन की द सेकेंड सेक्स?'
ये फिल्म अच्छी...बुरी औसत कुछ भी हो मगर हिंदी और गैर-हिंदी सिनेमा के बीच तुलना का एक बड़ा मौका हो सकती थी. जिसके बहाने हिंदी पट्टी को ही हिंदुस्तान मान लेने जैसे विषयों पर भी बात की जा सकती थी मगर तमाम क्लीशे और पूर्वाग्रहों से भरते जा रहे हमारे मीडिया ने इसकी ज़रूरत नहीं समझी.
अंत में वो तीसरी बात जो 'बेगम जान' में नहीं है. 'राजकाहिनी' में क्लाइमैक्स के समय राख में बदल चुके कोठे और वेश्याओं के शवों को देखने आ रहे लोगों की भीड़ के साथ बैकग्राउंड में बांग्ला उच्चारण में अपने सभी अंतरों के साथ 'जन गण मन' बजता है.
देशभक्ति और राष्ट्रवाद का तड़का लगाने के लिए हाल में कई हिंदी फिल्मों में नैश्नल एंथम बजा. मगर अपने कोठे को अपना देश मानकर लड़ने वाली औरतों की कहानी को भारत के राष्ट्रगान से खत्म करना एक ऐसा कदम था जिसका हिंदी वर्जन में न होना दिखाता है कि हम अभिव्यक्ति की आजादी के स्तर पर कितना सिकुड़ते जा रहे हैं.