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बेगम जान मूवी रिव्यू: विद्या बालन और फेमिनिज्म के साथ नाइंसाफी

ये फिल्म आत्मा से विहीन मालूम होती है और इसने कलाकारों और दर्शकों के साथ अन्याय किया है

Updated On: Apr 14, 2017 06:35 PM IST

Anna MM Vetticad

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बेगम जान मूवी रिव्यू: विद्या बालन और फेमिनिज्म के साथ नाइंसाफी

सेक्स का धंधा करने वाली औरतों को समाज में हमेशा से बुरी नजर से देखा जाता है. उन्हें वेश्या, रंडी, कॉल गर्ल, कोठे वाली या फिर आज कल चलन में आए जुमले सेक्स वर्कर कहा जाता है.

ऐसी महिलाओं की अपनी राय कोई मायने नहीं रखती. उसकी ख्वाहिशों को कोई तवज्जो नहीं देना चाहता.

दिलचस्प कहानी 

लेखक-निर्देशक श्रीजित मुखर्जी की फिल्म बेगम जान, ऐसी ही एक महिला की कहानी है. ये महिला आजादी के पहले के पंजाब के एक कस्बे में कोठा चलाती है.

फिल्म की कहानी 1947 की है. देश का बंटवारा हो चुका है. पंजाब के सीने पर बंटवारे की रैडक्लिफ लाइन खिंच चुकी है. ये लाइन बेगम जान के कोठे के बीच से गुजरती है.

बेगम जान, इस लाइन को मानने से इनकार कर देती है. जब वो बाड़ लगाने के लिए अपना कोठा खाली करने से मना करती है, तो उसकी अधिकारियों से तकरार होती है. वो अधिकारी भी इस लाइन को दिल से नहीं मानते, मगर वो भी कानून के आगे लाचार हैं.

बेगम जान को अपनी ताकत का गुरूर है. उसके कोठे पर इलाके का कमोबेश हर रईस और ताकतवर आदमी आता है. उसके कोठे पर आम लोग भी आते हैं.

स्थानीय राजा भी बेगम जान के कोठे पर आते हैं. मुफ्तखोर पुलिसवाले और ब्रिटिश अफसर भी अक्सर बेगम जान के कोठे पर आते हैं. जब ये लोग बेगम जान के दर पर आते हैं तो जाति और समाज के दर्जे बेमानी हो जाते हैं. सब को अपने जिस्म की भूख मिटाने की ख्वाहिश ही रहती है.

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लेकिन बंटवारे की लकीर खिंचने के बाद बेगम जान का वास्ता तल्ख हकीकत से पड़ता है. हालांकि बेगम जान, उसके कोठे की लड़कियां और कारिंदे ये तय करते हैं कि वो बिना लड़े हुए हार नहीं मानेंगे.

ये फिल्म बेगम जान और उसके साथियों की अधिकारियों से लड़ाई की कहानी है. वो अधिकारी जो बंटवारे की रैडक्लिफ लाइन को लागू करने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं. कहानी तो दिलचस्प है.

रीमेक से क्या संदेश देना चाह रहे हैं श्रीजित?

बेगम जान, श्रीजित मुखर्जी की बांग्ला फिल्म 'राज कहानी' का ही रीमेक है. उस फिल्म में रितुपर्णा सेनगुप्ता ने लीड रोल किया था. हिंदी फिल्म में विद्या बालन बेगम जान की भूमिका में हैं.

फिल्म के पहले सीन से ही ऐसा लगता है कि निर्देशक श्रीजित मुखर्जी महिला सशक्तीकरण का संदेश देना चाहते हैं. लेकिन शायद उन्हें सशक्तीकरण का सही मतलब ही नहीं मालूम. इसीलिए वो ये संदेश देने में नाकाम रहे हैं.

बेगम जान फिल्म क्या कहना चाहती है, ये बात शायद उसे खुद समझ नहीं आती. फिल्म इतनी सतही है कि इसके नेक इरादे भी फिल्म को थकाऊ होने से नहीं बचा पाते.

बेगम जान का कोठा, इसका ठिकाना और इसके ग्राहक, सब मिलकर ये संदेश देते हैं कि एक खुशहाल भारत अपने बंटवारे को मंजूर करने को राजी नहीं.

इसी कोठे में रहने वाली एक बुजुर्ग महिला यानी इला अरुण, हिंदुस्तान की वीर महिलाओं की कहानियां सुनाती है. वो लड़कियों को झांसी की रानी, रजिया सुल्तान, मीरा बाई और पद्मावती के किस्सों से रूबरू कराती है.

इनमें से तीन महिलाओं के रोल विद्या बालन ने ही निभाए हैं. वहीं पद्मावती के किरदार को एक आवाज के जरिए बयां किया गया है.

कहानीकार की छोटी सोच 

ये कहानियां बताती हैं कि कैसे बहादुर महिलाएं परंपरा और रीति रिवाजों से लड़ती हैं. वो हार नहीं मानती हैं. मगर इससे फिल्म के कहानीकार की छोटी सोच को भी जाहिर करती है.

तभी तो वो रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी की तुलना महारानी पद्मावती से करता है. वो पद्मावती जो काल्पनिक किरदार है, जो इसलिए सती हो गई थी कि हमलावर सुल्तान उसकी अस्मत न लूट ले.

बेगम जान की कहानी और इसमें दी गई मिसालें गड्मगड्ड हैं. इसमें पद्मावती के बलिदान से लेकर महिलाओं की इज्जत को लेकर हमेशा से चली आई सोच को ही दिखाया गया है.

जिसमें किसी महिला के साथ बलात्कार को उसकी इज्जत लुटना बताया जाता है. ये बेगम जान के अपने ही उसूलों के खिलाफ है, जो शरीर बेचने को इज्जत बेचना नहीं मानती.

जब किसी फिल्म में सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता, 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' का जिक्र हो, उससे उम्मीद ही क्या की जा सकती है. यानी महिलाएं जब मर्दों की तरह लड़ेंगी तभी वो बहादुर मानी जाएंगी.

कमजोर कहानी के साथ कमजोर एक्टिंग 

हालांकि निर्देशक श्रीजित मुखर्जी कह सकते हैं कि सुभद्रा कुमारी चौहान के इरादे नेक थे. लेकिन फिल्म में इस्मत चुगताई और सआदत हसन मंटो का जिक्र करने का क्या मतलब है, ये समझ से परे है. वो भी तब जब मंटो के भाव को ठीक से बयां भी न किया गया हो.

फिल्म में मंटो की कहानी 'खोल दो' का जिक्र है. ये ऐसी लड़की की कहानी है जो बार-बार होने वाले बलात्कार की ऐसी आदी हो गई है कि जब भी वो किसी मर्द की आवाज सुनती है, अपने कपड़े उतारने लगती है.

लेकिन मुखर्जी ने जिस तरह इस लड़की के दर्द को पेश किया है, उससे सिर पीटने का दिल करता है.

फिल्म की पटकथा बेहद कमजोर है. इसीलिए फिल्म पूरी तरह बेअसर लगती है. बेगम जान या उसके कोठे की दूसरी लड़कियों की तकलीफ महसूस तक नहीं होती.

कमजोर कहानी के साथ घटिया एक्टिंग इस फिल्म को और लचर बना देती है. यहां तक कि विद्या बालन की एक्टिंग भी बेहद कमजोर नजर आती है. असल में बेगम जान के लिए अच्छे डायलॉग तक नहीं लिखे गए हैं, तो वो करें भी तो क्या.

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फिल्म के और कलाकार, पल्लवी शारदा, गौहर खान और नसीरउद्दीन शाह भी अपने अपने किरदार में कमजोर ही नजर आए हैं. हालांकि शारदा और गौहर खान ने फिर भी खुद को बेहतर तरीके से पेश किया है.

फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर हैं. दोनों कभी साथी थे. मगर देश के बंटवारे के बाद दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं. दोनों अपने अपने देशों की नुमाइंदगी करते हैं.

दोनों को जिस तरह से फिल्माया गया है, वो उनके रोल को और भी कमजोर कर देता है. हालांकि कैमरामैन गोपी भगत के इरादे नेक हैं. मगर उनकी फोटोग्राफी कोई छाप छोड़ने में नाकाम रहती है.

विद्या बालन की काबिलियत का 

फिर जावेद-एजाज के एक्शन सीन भी बेतुके और भौंडे हैं. पहले सीन में अलबत्ता उन्होंने अच्छा काम किया है जिसमें एक महिला अपने ताकत के बूते सरकारी अफसरों और पुलिसवालों को खदेड़ देती है. लेकिन क्लाइमेक्स तक आते-आते एक्शन का निर्देशन भी बेअसर हो गया है.

असल में फिल्म के निर्देशक श्रीजित मुखर्जी, फिल्म बनाने के बजाय महिला सशक्तीकरण के मसीहा बनना चाहते थे. ऐसे में न तो वो फिल्म के साथ इंसाफ कर सके हैं और न ही वो महिला सशक्तीकरण का संदेश ठीक से दे पाए.

कोई भी फिल्म तब तक अच्छी नहीं कही जा सकती, जब तक उसके कलाकार दर्शकों को अपने साथ न जोड़ें. फेमिनिज्म पर इससे बेहतर कहानी और फिल्म की जरूरत है.

बेगम जान के लेखक को अपनी बात और बेहतर तरीके से कहनी चाहिए थी. इसी तरह विद्या बालन को जो रोल मिला, वो उनकी काबिलियत के साथ नाइंसाफी लगती है.

ये फिल्म आत्मा से विहीन मालूम होती है. इसने कलाकारों और दर्शकों के साथ अन्याय किया है.

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